ठाकुर प्रसाद मिश्र

निःशब्द मन की गूंज को ऐ लेखनी  तू व्यक्त कर दे |

खींच आकुल ऊष्णता उर से धरा को तप्त कर दे ||

लिख चुकी है तूं करोड़ों विगत को, इतिहास को |

कुछ सृजन की गौरवगाथा बहुत सत्यानाश  को ||

त्याग दो अब लोभ कुछ तो चाटुकारी मान के |

खोल दे अब द्वार थोड़ा विवस जन हित ज्ञान के ||

अब तो तू पन्ना पलट दे आहतों के सर्ग का |

वांच दे इतिहास मानिन कुछ तो मध्यम वर्ग का ||

संस्कृति की बेडियों से जो सदा जकड़ा रहा |

त्यागकर सर्वस्व जो निज धर्म पर अकड़ा रहा ||

पीढ़ियों से सीस कटवाया जो देसी आन पर |

पर नहीं लगने दिया धब्बा जननि भू मान पर ||

जो सदा बलि पशु बना आक्रांता के क्रोध का |

पात्रता जिसने निभायी दुष्ट जन प्रतिशोध का ||

दूब सा देता रहा सिर फिर भी वाणी मूक जिसकी |

शीश कटवाता रहा पर यह न पूंछा असि है किसकी ||

रक्त जिसका मच्छरों से सिंह तक पीते रहे सब |

मर्म उनका समझने को कौन आएगा कहो कब ||

उड़ चले जब दूर पक्षी निकट दुर्दिन जान करके |

स्वान बिल्ली तज चले गृह यातना पहचान करके ||

क्या कभी जाना किसी ने पीर जो उर घाव में |

पशु कहाँ जाए बंधा जो सूखते तरु छांव में ||

नाक में नथ जुआ ग्रीवा खींचता  लढ़िया भरी जो |

शुष्क भूसा भाग आया   सूर्करी चुनी खरी जो ||

क्यों नहीं कुछ बोलती है लेखनी उनके लिए तूं |

है नहीं सामर्थ्य तो है बनी फिर किसके लिए तूं ||

 नृप किरीटों से ही है यदि मोह तो जा दूर हो जा |

रानियों की कंचुकी से बंध प्रणय की नींद सो जा ||

अन्यथा कुछ बोल भद्रे! उन विवस जन के लिए |

सांत्वना के गीत लिख दे डूबते मन के लिए ||

लेखक प्रसिद्ध साहित्यकार हैं .   प्रकाशित हिंदी उपन्यास “रद्दी के पन्ने’

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