अरुणाकर पाण्डेय
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने चिंतन में द्वंद्व को पर्याप्त महत्व दिया है जो उनके लेखन में अक्सर उभरता है।एक जगह उन्होंने कहा भी है कि – “अनुभूति के द्वंद्व से ही प्राणी के जीवन का आरंभ होता है।” इसका अर्थ है कि द्वंद्व जीवन की पहचान है।जहाँ द्वंद्व नहीं, वहाँ जीवन नहीं।लेकिन समझना चाहिए कि अनुभूति का द्वंद्व से शुक्ल जी का क्या अभिप्रेत हो सकता है । यदि एक उदाहरण से बात को समझने का प्रयास किया जाए तो जैसे भोजन के अपने चयन को ही देखें । मान लीजिए कि हमें जलेबी बहुत प्रिय है क्योंकि हमारे अनुभव में वह बहुत स्वादिष्ट मिठाई है।लेकिन उसके इस पक्ष के साथ यह अनुभव भी है कि उसके सेवन से ,कई कारणों से स्वास्थ्य की हानि भी हो सकती है । ऐसे में एक द्वंद्व पैदा हो गया कि इसे स्वीकार किया जाए या फिर उसकी ओर से मन हटा लिया जाए। अपने में एक ही समय में ये दो विपरीत भाव चल रहे हैं। अंततः कौन सा भाव हावी होता है यह चयनकर्ता की मानसिक शक्ति पर निर्भर करता है । लेकिन यह तय है कि उसके मन में अनुभूति का द्वंद्व चलता है जो शायद बहुत लंबा समय ले। यहां दो अनुभूतियां टकरा रही हैं,इसे समझने की आवश्यकता है।यह तो बहुत ही साधारण उदाहरण है जो रखा गया है लेकिन जीवन बार बार जटिल चुनावों में द्वंद्व में डालकर कठिन परीक्षा लेता है।
उनका एक मनोवैज्ञानिक निबंध है,जिसका नाम ‘उत्साह’ है। इसमें वे द्वंद्व का उपयोग अपने चिंतन में बहुत सहजता के साथ कर जाते हैं। एक उदाहरण – “जो लोग मान-अपमान का कुछ भी ध्यान न करके, निंदा-स्तुति की कुछ भी परवाह न करके किसी प्रचलित प्रथा के विरूद्ध पूर्ण तत्परता और प्रसन्नता के साथ कार्य करते जाते हैं वे एक ओर तो उत्साही और वीर कहलाते हैं तो दूसरी ओर भारी बेहया ।”
इस वाक्य का एक बड़ा हिस्सा पढ़ते हुए यह धारणा प्रवाहित होने लगती है कि शुक्ल जी परिवर्तन लाने वाले लोगों के पक्ष में एकतरफा कहने जा रहे हैं लेकिन आखिर के पाँच शब्द जैसे पूरे वाक्य को तोड़ कर रख देते हैं और पाठक उसी समय विपरीत स्थिति में पहुँच कर सोचने के लिए विवश हो जाता है !
पाठक इस पशोपेश में पड़ जाता है कि ऐसे व्यक्ति को उत्साही माना जाए या फिर बेहया माना जाए। उत्साही कहने में सम्मान की भावना है तो बेहया कहने में जैसे अपमानित किया जा रहा हो या गाली दी जा रही हो। पर हम इसे जो भी माने,लेकिन यह तो स्पष्ट दिख रहा है कि द्वंद्व की स्थिति यहां बन रही है । यही आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी का अर्थ हो सकता है जिसे आज भी चिंतन की प्रणाली में स्वाभाविक रूप से देखा जा सकता है । चाहे साहित्य हो,दर्शन हो या इतिहास हो या कुछ और, आलोचना का और अध्ययन का आधार द्वंद्व है जिसे शुक्ल जी प्रस्तावित करते हैं। इससे लोगों को जीवन की बारीकियां और साहित्य आदि समझने में निश्चित ही मदद मिलती है ।
लेखक – दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं.