गांधीजी के राम : एक सांस्कृतिक-विमर्श

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अरुणाकर पाण्डेय

अरुणाकर पाण्डेय

रामनाम से गांधीजी का पहला परिचय उनकी धाय रंभा के कारण हुआ जिसने उन्हें बताया था कि भूतप्रेत का इलाज रामनाम है ।इस तरह देखें तो रामनाम का प्रभाव बचपन से ही गांधीजी पर पड़ गया था  और उनके अवचेतन में बैठ गया था ।गांधीजी ने लिखा है कि रम्भा का प्रेम उन्हें बहुत बाद में भी याद आता था जो यह बताता है कि परवरिश में समाज की भूमिका कितनी मूल्यवान रही है | निश्चित ही रंभा उनके यहाँ नौकरानी थीं लेकिन वे तत्कालीन भारत के आमजन की एक उदाहरण भी हैं जिन्हें अपने समाज और परिवेश से राम नाम का वह अद्भुत सूत्र प्राप्त हुआ जिसे उन्होंने आगे बहुत ही सहज रूप से गांधीजी को उनके बचपन में दिया था |गांधीजी जैसे महान,ऐतिहासिक और अभूतपूर्व नेता की निर्मिती में भारत के एक साधारण मनुष्य के दिए हुए संस्कार आगे चलकर एक वृहद भक्ति भावना का संचार करते हैं जिससे उन्होंने भारत से साम्राज्यवादी शक्तियों को परास्त करने का मानसिक बल प्राप्त किया |भारत के आमजन में राम कि उपस्थिति और उससे प्राप्त होने वाली शक्ति और प्रेरणा का यह विलक्षण उदाहरण है क्योंकि यहाँ पर बार-बार गांधीजी को पराधीन,निर्बल और निस्सहाय जनता को जीने के प्रेरणा स्त्रोत के दर्शन होते हैं | राम के प्रभाव, उनके बल का यह प्रथम परिचय उन्हें एक सामाजिक विश्वास का परिचय दे गया जिसमें राम उनके लिए एक सजीव शक्ति बनकर उभरते हैं | गांधीजी ने लिखा है कि वैष्णव घर में जन्म लेने के कारण उन्हें मन्दिर जाने के बहुत अवसर मिलते थे लेकिन तब भी राम के प्रति उनकी आस्था सशक्त नहीं हो सकी क्योंकि उनकी दृष्टि में वे मन्दिर बहुत प्रभावित नहीं करते थे बल्कि वैभवशाली होते हुए भी वहाँ के भ्रष्टाचार की बातों ने गांधीजी को उसके प्रति उदासीन बना दिया तह लेकिन जब उनकी धाय माँ रंभा ने उन्हें भूतप्रेत से डर की समस्या का इलाज राम नाम बताया तब उनके मन में राम का बीज पड़ गया और फिर जो प्रेम और विश्वास उनके मन में जन्मा वह निश्चित ही उनकी आजीवन अमूल्य निधि रही |जो काम मन्दिर नहीं कर पाए उसे एक धाय माँ ने कर दिखाया और यह प्रस्तावित कर दिया कि भगवान और धर्म मन्दिर और सम्प्रदायों से नहीं बल्कि साधारण जन की आस्था से अधिक मजबूत हो सकते हैं |

इसके बाद उनके ऊपर रामायण के परायण का बहुत गहरा असर हुआ।जब वे तेरह वर्ष के थे तब उनके पिता करमचंद गांधी पोरबंदर में बहुत बीमार पड़े।तब उस समय भगवान राम के परम भक्त बिलेश्वर के लाधा महाराज उन्हें मंदिर में रामकथा सुनाते थे । लाधा महाराज स्वयं कोढ़ से ग्रस्त थे लेकिन बिल्व पत्र बांधने और रामनाम का जाप करने से वे पूर्णतः स्वस्थ हो गए थे।वहीं से वे तुलसीदास की रामचरितमानस को भक्ति का सर्वोत्तम ग्रन्थ मानने लगे ।गांधीजी लिखते हैं –

“लाधा महाराज का स्वर मधुर था |वे दोहा-चौपाई गाते और समझाते थे |खुद उसके रस में लीन  हो जाते और श्रोताओं को भी लीन कर देते थे |मेरी अवस्था उस समय कोई तेरह साल की रही होगी; पर मुझे याद है कि उनकी कथा में मेरा मन बहुत लगता था | रामायण पर मेरा जो अत्यंत प्रेम है, उसका पाया यही रामायण श्रवण है |आज मैं तुलसीदास की रामायण को भक्ति-मार्ग का सर्वोत्तम ग्रन्थ मानता हूँ |”   

कहा जा सकता है कि जो रामनाम गांधीजी को धाय माँ से आत्मरक्षा के मन्त्र के रूप में मिला था अब लाधा महाराज के प्रभाव के कारण वह भक्ति रस के आस्वादन में परिणत हो गया था |विश्वास अब गहरे प्रेम कि तरफ बढ़ गया था जिसमें लीन होने की अवस्था गांधीजी को अब प्राप्त हो चली थी |इस अवस्था में भी मन को रामनाम कि टेक मिली थी जो जीवन में स्थायी जगह बना चुकी थी | लेकिन अभी भी जैसे उसका परीक्षण बाकी था और आगे की जीवन यात्रा उनके लिए फिर रामनाम का गंभीर अर्थ लेकर आने वाली थी |

3)इसके बाद जब वे पन्द्रह वर्ष के थे तब बड़े भाई का कर्ज चुकाने के लिए उन्होनें सोने के कड़े का एक हिस्सा चुराकर बेच दिया।पर मन माना नहीं तो पिताजी को चिट्ठी लिखकर पूरी बात बताई और क्षमा मांगी।उन्होनें सोचा था कि पिता कोई सजा देंगे लेकिन वे तो उस पत्र को पढ़कर रोने लगे । आसूँ की उन बूंदों ने गांधीजी के भीतर प्रेम और अहिंसा की लौ जगा दी लेकिन उन्होनें उसे ‘राम की भक्ति के बाण’ का असर माना। अर्थात प्रेम और अहिंसा को वे राम की भक्ति का प्रसाद ही मानते थे ।गांधीजी के शब्दों में –

“मोती के बूँदों के उस प्रेमबाण ने मुझे बेध डाला |मैं शुद्ध बना ! इस प्रेम को तो अनुभवी ही जान सकता है |

                  रामबाण वाग्यां रे होय ते जाणे |

मेरे लिए यह हिंसा का पदार्थ पाठ था |उस समय तो मैंने इसमें पिता के प्रेम के सिवा और कुछ नहीं देखा ,पर आज मैं इसे शुद्ध अहिंसा के नाम से पहचान सकता हूँ |ऐसी अहिंसा के व्यापक रूप धारण कर लेने पर उसके स्पर्श से कौन बच सकता है ? ऐसी व्यापक अहिंसा की शक्ति की थाह लेना असंभव है |”

उस दिन पन्द्रह वर्ष के गांधीजी को लगा था कि पिताजी उनके अपराध को जानकर क्रोध करते और आसमान सर पर उठा लेते | लेकिन उनके इस अद्भुत सत्य के प्रयोग जिसमें अपने अपराध को स्वीकार कर लेने की क्षमता और साहस थे उसने उनके पिताजी के ह्रदय को परिवर्तित कर दिया था | यह रसायन तीन तत्वों से निर्मित हुआ था |वे तीन तत्व थे – सत्य, प्रेम और राम |गांधीजी ने यहाँ जिस ‘रामबाण वाग्यां रे होय ते जाणे’ उक्ति का उपयोग किया है उसका अनुवाद दिया गया है कि राम की भक्ति का बाण जिसे लगा हो वही जान सकता है |इसका स्पष्ट अर्थ बनता है कि राम का बाण मतलब गहन निश्छल और प्रभावी प्रेम जो सत्य के माध्यम से अनुभव में आता है |देखा जाय तो धाय माँ के समय रामनाम गांधीजी के लिए एक आरम्भिक आकर्षण था जो लाधा महराज के प्रभाव से विश्वास में परिणत हुआ |लेकिन पिताजी वाली इस घटना ने तो उनके उस व्यक्तित्व को विकसित किया जिसने उनके सार्वभौमिक सिद्धांत अहिंसा को स्थापित करने कि जमीन बना दी |यहाँ से गांधीजी में अहिंसा और सत्य के प्रति जो सशक्त धारणा बनी है उसने जैसे स्वराज की नींव बना दी|देखा जा सकता है कि राम और नका नाम अब गांधीजी के लिए सत्य, अहिंसा और प्रेम के पर्याय बन चुके थे |

इसमें कोई दो राय नहीं कि गांधीजी को जिन राम का अनुभव हुआ वे तुलसीदास के राम थे लेकिन यह नहीं भुलाया जाना चाहिए कि वही सगुण राम अपने साथ महात्मा जी के लिए मानसिक भय से लड़ने का आत्मविश्वास, रोगों पर विजय पाने की क्षमता,प्रेम और अहिंसा के  आधुनिक-अध्यात्मिक मूल्य भी लेकर  आये थे । देखा जाय तो यहीं से सांस्कृतिक-विमर्श की भी शुरुआत होती है क्योंकि तुलसीदासजी के पारम्परिक राम से ही गांधीजी ने एक ऐसे राम पाये थे जो नवजागरणकालीन भारत को अपना स्वतंत्रता संग्राम लड़ने की शक्ति देने की अभूतपूर्व भूमिका निभा रहे थे ।सांस्कृतिक-विमर्श के विद्वान ज़ियाउद्दीन सरदार के अनुसार विमर्श नई संरचना को प्रस्तावित करते हैं तथा ज्ञान और सत्ता के नए अंतर्सम्बन्ध भी बनाते हैं।इसी सांस्कृतिक विमर्श की दृष्टि से देखें तो गांधीजी के राम की निम्नलिखित विशेषताएँ समझ आती हैं ।

गांधीजी के राम रूढ़िवादी मान्यताओं से अलग हैं।जिस राम को गांधीजी ने पाया वह तो जन्म और मृत्यु से परे शास्वत है और विश्व के कण-कण में मौजूद हैं |वे अवतरण से भी कहीं बहुत अधिक हैं और सभी धर्म के लोग उन्हें ही पूजते हैं |गांधीजी की यह धारणा भक्तिकाल के तुलसीदासजी की धारणा ही लगती है जब उन्होंने लिखा कि मैं सारे संसार को सियाराम जानकर ही अपने दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम करता हूँ |उनके मत में तो अलग-अलग धर्मों के लोग भी सिर्फ राम को ही पूजते हैं | ’रामनाम’ में उन्होंने लिखा है-

“मैंने कई बार खुलासा किया है कि मेरा राम खुद भगवान ही है |वह पहले था,आज भी मौजूद है,आगे भी हमेशा रहेगा |न कभी वह पैदा हुआ,न किसी ने उसे बनाया |इसलिए आप जुदा-जुदा धर्मों को बर्दाश्त करें और उनकी इज्जत करें |मैं खुद मूर्तियों को नहीं मानता, मगर मैं मूर्तिपूजकों की उतनी ही इज्जत करता हूँ, जितनी औरों की |जो लोग मूर्तियों को पूजते हैं, वे भी उसी एक भगवान को पूजते हैं ,जो हर जगह है, जो ऊँगली से कटे हुए नाखूनों में भी है |”

यहाँ गांधीजी कह रहे हैं कि उन्हें मूर्तिपूजा से कोई बैर नहीं है बल्कि वे तो राम को समूचे ब्रह्मांड में व्याप्त देखते हैं और उनकी दृष्टि में राम को न पूजने वाले या अन्य धर्मों को मानने वाले भी मूलतः राम की ही पूजा करते हैं |गांधीजी राम को मूर्ति तक ही सीमित न करते हए जैसे समूचे ब्रह्मांड को ही राम का जीवंत रूप मानते हैं | यह राम तुलसीदास के राम से ही विकसित हए हैं क्योंकि लाधा महाराज के माधुर्य भाव ने ही उनके भीतर राम को सशक्त किया था |गांधीजी ने उनका विस्तार कर ब्रह्मांड को ही उनका सजीव रूप मान लिया है |अतः गांधीजी के राम भी वही हैं जो तुलसीदास जी के यहाँ हैं |तुलसीदास जी मूर्तिपूजा करते हैं, गांधीजी नहीं करते लेकिन उपर के कथन से यह तय है कि गांधीजी को मूर्तिपूजा से कोई बैर नहीं है |आश्चर्य नहीं कि नवजागरण काल और सुधारकाल  में हिंदी साहित्य में जो सगुण भगवान चित्रित हुए हैं वे भी अपने मूल में भागवत से आधार पाते हैं लेकिन अपनी समकालीनता को स्वीकार करते हुए वे आधुनिक और मानवतावादी आवश्यकताओं और विशेषताओं को समाहित करते चलते हैं और पराधीन भारत को मुक्ति दिलाने के लिए कटिबद्ध दिखते हैं |   

गांधीजी के राम उपभोक्तवादी संस्कृति से लड़ते हैं।गांधीजी ने जब कहा था कि मेरा जीवन ही मेरा सन्देश है तब वास्तव में वे यह कहना चाह रहे थे कि भारत में देहात-गाँव में जो व्यक्ति  बसता है वह सरल और सहज जीवन से न केवल अपने आध्यात्मिक लक्ष्य बल्कि भौतिक लक्ष्यों को भी प्राप्त करता है|बल्कि उनके चिन्तन और आचरण को देख कर यह लगता है कि उनकी समझ में आध्यात्मिक और भौतिक लक्ष्य नाभिनालबद्ध हैं क्योंकि एक का दूसरे से गहरा अंतर्संबंध है |इसलिए वे साध्य और साधन पर दृष्टि रखते थे और साध्य के साथ साधन की  पवित्रता का निवेदन भी करते थे | यदि साधन पवित्र होगा तो साध्य को प्राप्त करना सहज हो जाएगा |इस दृष्टि से देखें तो गांधीजी स्वाभाविक ही उपभोगतावादी दृष्टि के विलोम में स्थित हैं |स्वाभाविक ही है कि तब राम और उनका नाम गांधीजी के लिए आध्यात्मिक महत्व तक ही सीमित नहीं है बल्कि उनका तर्क यही बनता है कि राम भौतिक जीवन में भी व्यावहारिक स्तर पर मनुष्य के साथ पग-पग पर उसे संबल प्रदान करे और वह गहन अनुभव करे | इसके लिए वे उन तमाम साधनों से सचेत करते हैं जो एक तो मनुष्य को आर्थिक रूप से शोषित करते हैं और दुसरे बजाय समाधान के उसकी समस्याओं को और अधिक बढ़ा देते हैं |तत्कालीन अंगरेजी चिकित्सा व्यवस्था से इसीलिये उन्होंने सशेत करते हुए रामनाम को ही अपनाने की सलाह दी है |रामनाम प्राकृतिक चिक्तिसा करने में सक्षम है यह उनका स्वयम का अनुभव है |रामबाण शब्द को भी वे इससे अर्थ में देखते हैं और उपभोक्तावादी अस्पताल संस्कृति से सचेत करते हुए वे कहते हैं –

“दुनिया में ऐसा कोई इलाज नहीं निकला है,जिससे शरीर अमर बन सके |अमर तो आत्मा ही है |उसे कोई मार नहीं सकता |उसके लिए शुद्ध शरीर तो पैदा करने का प्रयत्न तो सब करें |उसी प्रयत्न में कुदरती इलाज अपने आप मर्यादित हो जाता है |और इससे आदमी बड़े-बड़े अस्पतालों और योग्य डॉक्टरों बगैरा की व्यवस्था करने से बच जाता है|दुनिया के असंख्य लोग दूसरा कुछ कर भी नहीं सकते |और जिसे असंख्य नहीं कर सकते उसे थोड़े क्यों करें?”

गांधीजी यह बात अच्छी तरह से जानते थे कि ‘असंख्य’ अधिकतर ‘थोड़े’ को देखकर ही सीखता है और अपने आदर्श बनाता है | इसलिए वे ऊपर दिए गए उद्धरण में जैसे प्रश्न के माध्यम से ‘क्लास’ को निर्देश दे रहे हों कि यदि वे उपभोक्तावादी दृष्टि से जीवन जियेंगे तो फिर उनसे सीखते हुए या उन्हें देखकर ‘मास’ भी उपभोक्तावादी हो जाएगा | यह हर प्रकार से एक सामाजिक असंतुलन को जन्म देगा जिससे समाज का क्षरण होना अवश्यम्भावी है |इस उपभोक्तावाद जैसी बीमारी का यदि कोई कारगर इलाज है तो गांधीजी की दृष्टि में वह केवल रामनाम ही है और कुछ नहीं |लेकी एक जिज्ञासा यह बनती है कि आखिर कैसे राम का नाम लेने से समस्त समस्याओं का निवारण किया जा सकता है ? इसक उत्तर भी गांधीजी ने बहुत ही स्पष्ट रूप से दिया है जो बड़ी ही मनोवैज्ञानिक व्याख्या करता है |वे कहते हैं कि सिर्फ नाम लेने से ही चमत्कार नहीं हो जाता |उनके अनुसार रामनाम एक पूरी की पूरी मानसिकता है |यदि इसका दुरूपयोग किसी गलत लक्ष्य या मनमाने ढंग से अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए किया जायेगातो यह कभी काम नहीं करेगा |अर्थात रामनाम का स्मरण अपने आप में एक चरित्र निर्माण का कार्य करता है और इसे जपने के साथ-साथ मर्यादाओं का पालन भी करना पड़ता है |एक तपस्या करनी पड़ती है और उपवास करना पड़ता है तब रामनाम एक स्थायी असर दिखाने लगता है |मनुष्य बदल जाता है और उसका व्यक्तित्व निखरने लगता है |गांधीजी के शब्दों में –

“रामनाम की शक्ति की अपनी कुछ मर्यादा है और उसके कारगर होने के लिए कुछ शर्तों का पूरा होना जरुरी है |रामनाम कोई जंतर-मंतर या जादू-टोना नहीं |जो लोग खा-खा क्र खूब मोटे हो गए हैं, और जो अपने मुटापे की और उसके साथ बढ़ने वाली बादी कि आफत से बच जाने के बाद फिर तरह-तरह के पकवानों का मजा चखने के लिए इलाज कि तलाश में रहते हैं, उनके लिए रामनाम किसी काम का नहीं |रामनाम का उपयोग तो अच्छे काम के लिए होता है |……बादी का इलाज प्रार्थना नहीं उपवास है|उपवास का काम पूरा होने पर ही प्रार्थना का काम शुरू होता है, इसी तरह एक तरफ से आप शरीर में दवा की बोतलें उढ़ेला करें और दूसरी तरफ मुँह से रामनाम लिया करें, तो वो बेमतलब मजाक ही होगा |”

यही कारण है कि रामनाम सिर्फ वाचिक क्रिया ही नहीं है बल्कि उसके प्रत्येक वाचन में मानसिक उपचार करने की प्रेरणा और शक्ति उपस्थित है जिसे बिना क्रियान्वित किये समझा नहीं जा सकता | लेकिन यह तो स्पष्ट है कि रामनाम एक ऐसी संस्कृति या संस्कार-पुंज निर्मित करता है जिससे मनुष्य के मन कि कमजोरियाँ तिरोहित होने लगती हैं और वह आत्मनिर्भर बन कर उपभोक्तावाद जैसी सशक्त आंधियों का सामना बड़ी सहजता से कर सकता है |स्वयं गांधीजी का अपना जीवन ऐसेअनेक उदाहरणों और प्रसंगों से भरा पड़ा है |       

मर्यादा और उपवास के साथ ही साथ गांधीजी रामनाम के साथ एक अन्य महत्वपूर्ण आयाम साफ़-सफाई या स्वच्छता का भी जोड़ते हैं | इस अर्थ में देखा जाय तो यह समझ बनती है कि गांधीजी के राम पर्यावरण के संरक्षक हैं। रामनाम के उपचार में जहाँ एक ओर स्वच्छता की निर्णायक भूमिका है वहीं यह भी देखा जाता है कि जिन पंचतत्वों अर्थात मिट्टी,पानी,हवा,धूप और आकाश से चिकित्सा की जाती है वे भी अपनी शुद्धता और विशालता के साथ उपलब्ध रहें, किसी भी प्रकार भ्रष्ट या नष्ट न होने पाएँ |इस संरक्षण को रामनाम से जोड़ते हुए इसीलिए गांधीजी लिखते हैं –

“दिल से भगवान का नाम लेने वाले मनुष्य का यह फ़र्ज़ हो जाता है कि वह कुदरत के उन नियमों को समझे और उनका पालन करे, जो भगवान ने मनुष्य के लिए बना दिये हैं |यह दलील हमें इस नतीजे पर पहुँचाती है कि बीमारी का इलाज करने से उसे रोकना बेहतर है |इसलिए मैं लाजमी तौर पर लोगों को सफाई के नियम समझाता हूँ, यानी उन्हें मन,शरीर,और उसके आसपास के वातावरण की सफाई का उपदेश करता हूँ |”

यहाँ देखें तो रामनाम एक मंत्र की तरह काम करने लगता है क्योंकि गांधीजी के अर्थों में राम-राम बोलते ही मर्यादा और उपवास के साथ ही साथ स्वच्छता भी मानसिक रूप से मनुष्य में घर करने लगती है और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो उसके अवचेतन या उपचेतन में राम नाम के उच्चारण के साथ ही उसका कर्तव्य बोध भी जागृत होने लगता है | यह प्रक्रिया निरंतर चलने लगती है और राम का नाम लेने वाला व्यक्ति हर तरह से मजबूत होने लग जाता है और व्यावहारिक धरातल पर उसे बेहतरीन नतीजे भी प्राप्त होने लगते हैं |वह क्या करना है के साथ ही साथ क्या नहीं करना है के प्रति भी त्वरित गति से सचेत होने लगता है और व्यवहार में उसके स्वास्थ्य वर्धक गतिविधियाँ अपने आप ही बढ़ने लग जाती हैं |प्रसंगवश यह याद कर लेना उचित होगा कि यह अकारण नहीं था कि जब सं 1901 में गांधीजी मौरीशस से होते हए कांग्रेस अधिवेशन के लिए कलकत्ता आए थे तब वहाँ रिपन कॉलेज में स्वयमसेवक ठहरे हुए थे | लेकिन वहाँ गंदगी बहुत थी क्योंकि पैखाना जाने के बाद लोग सफाई नहीं करते थे और इसे जाति विशेष का काम मानते थे |इस पर गांधीजी ने खुद ही झाड़ू मांगकर वह गंदगी साफ़ की पर उन्हें यह समझ आ गया था कि वास्तव में अभी शिक्षा और दृष्टि का अभाव है | लेकिन यह तो स्पष्ट ही वे मानते हैं कि रामनाम के साथ स्वच्छता का कर्तव्यबोध अंतर्निहित है |   

गांधीजी के राम पाश्चात्य के यंत्रवादी दृष्टिकोण के विपरीत हैं।गांधीजी एक ऐसे व्यक्तित्व थे जिन्होनें साउथ अफ्रीका से लेकर भारत तक साम्राज्यवाद के क्रूर चरित्र को बहुत अच्छी तरह से पहचाना और उसे अहिंसा के माध्यम से बदलने का सफल प्रयास किया |लेकिन इस कर्म में न्होनें पाश्चात्य जगत कि सभ्यता समीक्षा भी कि क्योंकि वे मनुष्य को लेकर अध्ययनरत थे | साम्राज्यवाद कि आंधी उनके व्यक्तित्व को नहीं उड़ा पाई और वे जानते थे कि कौन से मूल्य हैं जो सार्वभौमिक हो सकते हैं |जो विकास साम्राज्यवाद को जन्म दे और मनुष्य को मनुष्य का गुलाम बना दे उसके रास्ते पर चलना उन्हें भला कैसे रुचिकर हो सकता था |वे मानते थे कि यह समझना कि पश्चिम से सीख कर या उसकी तरफ देखकर ही आगे बढ़ा जा सकता है ,एक बहुत बड़ा वहम है |उनकी समझ यह थी कि हम जो कुछ भी सीखना चाहते हैं वह सब हमारे अपने गाँवों में मौजूद है |रामनाम भी यहीं भारत की परम्परा से मिला है |उन्होंने लिखा है कि आध्यात्मिक रोगों के उपचार के लिए रामनाम की दवा प्रछें काल से ही भारत में दी जाती रही है और दैहिक व्याधियों का उपचार भी इससे किया जाता रहा है| इस संदर्भ में वे कहते हैं कि चरक और वाग्भट्ट जैसे विद्वान भी रामनाम का उपयोग करते थे |  इसका यह अर्थ भी नहीं था कि गांधीजी पाश्चात्य के प्रति अंधविरोधी थे बल्कि वे बहुत सोच समझकर और सचेत  होकर चिन्तन करते थे|उनके शब्दों में –    

“देहाती दवाएं , जड़ी-बूटियाँ दूसरे देशों में नहीं मिलेंगी |वे तो आयुर्वेद में ही हैं |अगर आयुर्वेद वाले धूर्त हों तो, तो पश्चिम जाकर आने से वे कुछ भले नहीं बन जायेंगे |शरीर शास्त्र पश्चिम से आया है |सब कोई कबूल करेंगे के उसमें से बहुत कुछ सीखने लायक है |लेकिन उसे सीखने के बहुत से जरिये इस मुल्क में मिल सकते हैं |मतलब यह कि पश्चिम में जो कुछ अच्छा है, वह ऐसा है और ऐसा होना चाहिए कि सब जगह मिल सके |साथ ही, यहाँ यह भी कह देना जरुरी है कि कुदरती इलाज सीखने के लिए यह बिलकुल जरुरी नहीं है कि शरीर-शास्त्र सीखा ही जाए |”

ध्यान देने की बात है कि यहाँ गांधीजी भारतीय चिकत्सीय परम्पराओं को पाश्चात्य शरीर शास्त्र से बेहतर मानते हैं लेकिन वे यह भी स्वीकार कर रहे हैं कि आयुर्वेद के चिकित्सक या आचार्य धूर्त हो सकते हैं | पर जो असर देसी या भारतीय इलाज का है वह पाश्चात्य का नहीं |जाहिर है  कि गांधीजी इनमें रामनाम को सर्वोपरि मानते हैं |साम्राज्यवाद की आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक विषमता को उस युग के समस्त महानुभावों ने जिया था इसलिए वे विदेशी सभ्यताओं के प्रति बहुत सचेत थे |वे आधुनिकता चाहते थे लेकिन यह भी देखते-समझते थे कि कहीं उसके बहाने उन्हें गुलाम बनाकर उनका शोषण तो नहीं किया जा रहा | ऐसा नहीं कि इस यांत्रिकता पर सिर्फ गांधीजी की ही दृष्टि थी बल्कि साम्राज्यवाद विरोधी दृष्टि यदि उसी पाश्चात्य जगत से मिलती थी तो वे से भी अपनाते थे |इस यांत्रिकता के संदर्भ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास में गांधीजी को लेकर जो काव्यखंड : नई धारा : तृतीय उत्थान में लिखा है उसे ध्यानपूर्वक पढ़ना आवश्यक है | आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं –

“दूसरे देशों का धन खींचने के लिए योरप में महायंत्रप्रवर्तन का जो क्रम चला उससे पूँजी लगाने वाले थोड़े से लोगों के पास तो अपार धनराशि इकट्ठी होने लगी पर अधिकांश श्रमजीवी जनता के लिए भोजन वस्त्र मिलना भी कठिन हो गया |अतः एक ओर तो योरप में मशीन कि सभ्यता के विरुद्ध टॉलस्टॉय की धर्मबुद्धि जगाने वाली वाणी सुनाई पड़ी जिसका भारतीय अनुवाद गांधीजी ने किया ; दूसरी ओर इस घोर आर्थिक विषमता की ओर प्रतिक्रिया के रूप में साम्यवाद और समाजवाद नामक सिद्धांत चले जिन्होनें रूस में अत्यंत उग्र रूप धारण करके भारी उलटफेर कर दिया |”

शुक्लजी के इस कथन का अवलोकन करने से स्पष्ट हो जाता है कि सारे विश्व की तरह गांधीजी की दृष्टि में भी साम्राज्यवाद की अमानवीय, असंतुलित  और असमानता की प्रवृत्ति थी और उनके समय इसके विरोध में दो धाराएँ दिख रही थीं | इनमें एक तो हिंसा के मार्ग वाली साम्यवादी या समाजवादी विचारधारा थी तो दूसरी अहिंसावादी विचारधारा जिसका नेत्रित्व टॉलस्टॉय के सिद्धांतों के अनुरूप गांधीजी कर रहे थे |जाहिर है कि इसीलिये गांधीजी विलायत की शिक्षा और संस्कृति के प्रति सचेत थे और रामनाम उनके लिए आत्मसंबल का अप्रतिम स्त्रोत था |इसलिए रामनाम सिर्फ अध्यात्म तक सीमित नहीं था बल्कि विश्व दृष्टि के निर्माण का ऐतिहासिक माध्यम भी था |यदि गांधीजी को उनके राम नहीं मिलते तो संभव था कि इतना बृहद स्वतन्त्रता आन्दोलन अपनी परिणति तक नहीं पहुँच पाता|

 लेकिन इस समस्त विवेचन का यह अर्थ नहीं कि गांधीजी के राम तुलसीदास के राम से अलग हो जाते हैं।बल्कि वे उनका विस्तार हैं।उन्होनें तुलसीदास की रामचरितमानस और उसके राम को स्त्री,दलित आदि प्रसंगों से उठने वाले प्रश्नों में भी उनका पक्ष लिया है। तुलसीदास और मानस और उनके राम के लिए उन्होनें ‘हिंदू धर्म क्या है? ‘पुस्तक में संकलित ‘तुलसीदासजी’ नाम के अध्याय में स्पष्ट कहा है कि –

“यह विश्वास रखकर कि रामादि कभी छल नहीं कर सकते,हम पूर्ण पुरुष का ही ध्यान करें और पूर्ण ग्रंथ का ही पठन-पाठन करें |परन्तु ‘सर्वारम्भा हि दोषेण घूमेनाग्निरिवावृता’ न्यायानुसार सब ग्रन्थ दोषपूर्ण हैं,यह समझकर हंसवत दोष-रूपी नीर को निकाल फेंकें और गुण रूप क्षीर ही ग्रहण करें |इस तरह अपूर्ण में सम्पूर्ण की प्रतिष्ठा करना,गुणदोष का पृथक्करण करना, हमेशा व्यक्तियों और युगों की परिस्थिति पर निर्भर रहेगा |स्वतंत्र सम्पूर्णता केवल ईश्वर में ही है और वह अकथनीय है |”

यहाँ गांधीजी यह प्रस्तावित कर रहे हैं कि यदि हम केवल अपनी समीक्षा दृष्टि में दोष ही खोजेंगे तो कुछ भी पूरी तरह से सटीक नहीं होता क्योंकि दोष तो सभी में मिल जाएगा| लेकिन ध्यान जब किसी लक्ष्य पर हो तो अपने काम की बात से जुड़ी हुई बात को हंस के नीर-क्षीर विवेक कि तरह अवश्य ग्रहण कर लेना चाहिए अन्यथा यात्रा का कोई अर्थ नहीं रह जाता| कुल मिलाकर सम्पूर्णता में ही सोचना चाहिए ना कि खंडित रूप में | इसी आधार पर गांधीजी तुलसीदासजी और उनके राम को एक सम्पूर्ण रूप में देखने का आग्रह करते हैं |   

गांधीजी ने अपने समय के उपलब्ध राम के टेक्स्ट से अलग अपने राम के टेक्स्ट का निर्माण किया ।लेकिन वे उसमें दशरथ नन्दन राम से ही एक नए राम का निर्माण कर सबके सामने लाते हैं जिसका विकास कबीर के राम की तरह हुआ है जो व्यापक,निर्गुण एवम ब्रह्म स्वरूप राम की तरह ही है और व्याधियों को मिटाने में सक्षम हैं।पर वे तुलसीदास के राम को भूलते नहीं बल्कि सगुण राम से ही अपने समकालीन निर्गुण राम का अवतरण प्रस्तावित करते हैं।अकारण नहीं होगा कि रामनाम की ऐसी भक्ति अंतिम क्षण में भी उनके साथ थी जब अचानक हुए उन पर प्रहार में भी उनके अंतिम शब्द ‘राम’ ही थे ।

लेखक – दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली में हिंदी के प्राध्यापक हैं।

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