ठाकुर प्रसाद मिश्र
आज जनकपुर की शोभा स्वर्ग छटा को लज्जित कर रही है। नगर की सज्जा देख विधाता भी भ्रम में हैं। सोच रहे हैं कि ऐसी सुंदर रचना तो मैंने कभी की ही नहीं। मुनि विश्वामित्र के संग धनुष यज्ञ देखने आए अवध नृपति के युगल किशोर सुत राम एवं लक्ष्मण भी गुरु आज्ञा लेकर नगर निकाई देखने के लिए जनकपुर की गलियों में घूम रहे हैं। देवताओं सदृश्य ऐश्वर्य के धनी नगरवासी दोनों भाइयों की छवि निहार कर अपनी सुधि- बुधि बिसार बैठे हैं। यत्र-तत्र सर्वत्र दोनों भाइयों के अलौकिक सौंदर्य की ही चर्चा है। इस समय ऐसी घटना पृथ्वी पर घट रही है जो ब्रह्म सृष्टि से ऊपर है। जनकपुर अति दैवीय दिव्य शक्ति का संगम बना हुआ है। एक तरफ नगर निवासी माता जानकी की उपस्थिति की दिव्यतम् रचना है। तो उसे निहारने के लिए उपस्थित कोटि काम छवि को लज्जित करने वाले माया, गुण , गोपार आनंद घन अखिल लोकनायक प्रभु श्रीराम नर रूप में , सर्वत्र दिव्यता की बाढ़ है। ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना जिसके समक्ष गौण बनकर अति लघु रूप में ही रह गई है।
आज का विषय मूरति मुस्कानी की इन्हीं दिव्य स्वरूपों के रहस्य की एक कड़ी है। मानस की पंक्ति का यहाँ शब्दार्थ प्रत्यक्ष में कुछ और है, तो भावार्थ ज्ञान के गहवर में विलास करता हुआ बहुत दूर जाकर दिव्य प्रकाश की अनुभूति करा रहा है। इसमें दो मातृ शक्तियों का लीला बिहार पाठक एवं रसज्ञ श्रवण कर्ता को व्यामोहित कर रहा है। एक स्थान पर पराम्बा जगदम्बा स्वेच्छा से मानवी चरित्र करते हुए राजकुमारी बनकर आशीष की कामना से मंदिर यानी पूजा स्थल पर जाती हैं। यहाँ वह माया हैं…
जासु अंश उपजहिं गुन खानी, अगनित उमा, रमा, ब्रह्मानी, अत्यंत सुखद मानव चरित्र करने की लीला कर रही हैं, तो दूसरी तरफ़ जगदात्मा पुरारि पियारी माता गौरी परमात्मा की योगमाया के लालित्यमय नाटक में सहयोगी भाव से दिव्य घटना को संपन्न करती हुई बहुत सारी उत्सुकता हृदय में बसाए अपने मंदिर में पाषाण मूर्ति को तिरोहित कर स्वयं सगुन सत्ता धारण कर उपस्थित हैं। शास्त्र गवाह है कि जब- जब इन दोनों शक्तियों का किसी एक विंदु पर संग में आने का वर्णन है, किसी नई अनोखी दिव्य घटना का उदय हुआ है। महालक्ष्मी भवन में माता पार्वती को सम्मान नहीं मिला, तो प्रतिक्रिया स्वरूप भगवान शिव द्वारा पार्वती जी को प्रसन्न करने के लिए स्वर्णमयी लंका की रचना हुई। जिसमें सीता महा लक्ष्मी का भी शिवभक्त रावण द्वारा अपमान हुआ। एक जन्म में माता सती द्वारा सीता का रूप धारण करने के कारण सम्पूर्ण जीवन भर वियोग की अग्नि में जलते हुए दक्ष यज्ञ में शरीर दहन करना पड़ा और फिर आज उन्हीं सीता से सामना होने जा रहा है।
किंतु आज की परिस्थिति भिन्न है। आज आद्याशक्ति मानवीय बनकर जगन माता गौरी के दरबार में अपने अभीष्ट की प्राप्ति के लिए विनय पूर्वक आशीर्वाद मांगने जा रही हैं। अब माता गौरी सदा शिव की अर्धांग बन गई हैं। अतः उन्हें संबल प्रदान करने के लिए भगवान भोले नाथ किसी भी स्थिति में माता द्वारा स्मरण करते ही उन्हें सम्मान देने के लिए तत्पर रहते हैं।
महल में माता सुनैना का आदेश पाकर जनक नंदिनी सखियों के संग गौरी पूजन के लिए जाती है। गौरी आदि शक्ति द्वारा पूजित होने के लिए उत्साहित होकर मूर्ति को हटाकर उसकी जगह स्वयं प्रकट हो जाती हैं। किंतु यह रहस्य कोई जान नहीं पाता। यथा-
सो मूरति पाषाण की गई तुरत पाताल ।
जनकसुता के कारने प्रगटी रूप तत्काल।।
जब जानकी जी गौरी पूजन के लिए फुलवारी में मंदिर को गईं तो गुरु देव की पूजा के लिए पुष्प लेने लाने के लिए उनके शिष्य़ राम, लक्ष्मण, पहले ही फुलवारी पहुंचे थे। मंदिर से लौटती हुई सीता का साथ छोड़कर उनकी एक सखी फुलवारी देखने के भाव से अलग हो गई थी। औचक ही उसकी दृष्टि कुसुम चुनते दोनों भाइयों पर पड़ी। और वह उनके रूप को देखकर आनंद मग्न हो गई और भाव विह्वल हो सोचने लगी, अरे .. ये तो वहीं राजकुमार लगते हैं, जिनके बारे में नगर में चर्चा है..
बरनत छवि जहँ-तहँ सब लोगू,
अवसि देखिएहिं देखन जोगू..
वह दौड़ती हुई जानकी जी के पास आकर कहती हैं, जिन निजरूप मोहनी डारी। कीन्हें स्वबस नगर नर नारी।
वे दोनों राजकुमार तो इस समय पुष्पवाटिका में ही उपस्थित हैं। वह भाव विह्वल हो हर्ष पूर्वक जब राम लक्ष्मण दोनों भाइयों के बारे में बताती है तो अति मानवीय चरित्र करते हुए राजकुमारी सीता भी उन्हें देखने में रुचि दिखाती हैं। जबकि उनकी पुरातन प्रीति के बारे में किसी को कुछ मालूम नहीं, और तभी…
लता भवन ते प्रगट भए तेहि अवसर दोउ भाय़।
निकसे जनु जुग बिमल विधु जलद पटल बिलगाए।
अनंत छवि की सीमा को अपनी छवि से लज्जित करने वाले स्वरूप को देखकर जानकी जी का हृदय आनंद से भर गया। उनकी दृष्टि जब श्रीराम से मिली तो दोनों अपलक एक दूसरे को निहारते ही रह गए । लक्ष्मण से बात करते हुए जब श्रीराम आगे बढ़े तो जानकी जी ने उनकी छवि को नेत्र मार्ग द्वारा अपने हृदय में स्थापित कर पलकें बंद कर लिय़ा। और अंतर्चक्षुओं से निहारने में निमग्न हो गयीं, कुछ क्षण पश्चात सामने उपस्थित श्रीराम को देखकर सखियां परिहास के भाव से बोलीं सखी मां गौरी का ध्यान बाद में कर लेना अबी तो पास आए राजकुमार को देख लो। सखी की बात सुनकर सीता ने अति संकोचपूर्वक अपने नेत्रों को खोला और मुग्ध भाव से श्रीराम के सुंदर स्वरूप को निहारने लगीं, किंतु तभी पिता के प्रण का ध्यान आया और वे विकल हो उठीं। पिता ने कठोर शिव धनुष को तोड़ने वाले के साथ ही उनके विवाह की प्रतिज्ञा जो कि थी। यह विचार करती हुई और विलम्ब होता देख माता के भय से वे महल की तरफ जल्दी- जल्दी जाने लगीं, तब भी बहाने से किसी अन्य वस्तु को देखने का भाव दर्शाते हुए वे बार- बार कनखियों से रामरूप निहारती जा रही थीं।
हृदय अधीर था, मन आकुल था। श्रीराम को देखते ही रूप आकर्षण के प्रगाढ़ प्रेम संबंध में उनका मन बंध चुका था। अतः आतुर मन के साथ वे दोबारा गौरी पूजन के लिए गईं। अबकी बार मातृ आदेश ही नहीं, मन की आकुलता उन्हें यहाँ खींच लाई। कल प्रतिज्ञा पालन का दिन है, देखिए विधाता की क्या इच्छा है। इस बार गौरी पूजन को गई जानकी का भाव बदला हुआ था। अब की बार वे वर विशेष की आकांक्षा से आई थीं। मन स्वस्थ नहीं आकुल था। अतः जब उन्होंने आर्तभाव से गौरी वंदना शुरू की तो माता गौरी की उन पर उठी दृष्टि सीता के हृदय पर पड़ी। वहाँ का दृश्य देख वे भयभीत हो गयीं। बिना पति देव शिव की आज्ञा लिए उन्होंने मूर्ति की जगह स्वयं प्रकट होकर फिर वही भूल दोहराई है, ऐसा सोचते हुए…
सोइ छल प्रकट कीन्ह मैं आजू सिय उर ते देखत रघुराजू।
यह ध्यान आते ही गौरी जी का हृदय काँप गया । अतः अपनी सुरक्षा के भाव से अपने स्वामी भगवान शिव की शरणागत हो गईं। स्मरण मात्र से ही गौरी के हृदय में प्रकट हुए शिव रौद्र नर्तन करने लगे। सीता ने पार्वती के उर में शिव नर्तन देख कर अपने नेत्र बंद कर लिए। और अत्यंत भक्ति भाव से माँ गौरी की उपासना में तल्लीन रहीं। सीता जी के इस विनीत भाव से दयार्द्र माता गौरी ने भोलेनाथ से शांत स्वरूप धारण करने के लिए विनती करती हुई बोलीं प्रभु पिछली बातें भूल जाइए अब की बार सीता की तरफ से मेरा कोई अपमान नहीं हुआ बल्कि वे अति विनम्र भाव से हमारी शरण में आई हैं। अतः हमें अपने घर में उनका अपमान नहीं करना चाहिए। माता गौरी के इस भाव को देखकर भोलेनाथ शांत मुद्रा में गौरी के उर में विराजमान हो गए।
जय -जय गिरिवर राज किशोरी जय महेश मुख चंद चकोरी
की प्रार्थना पूर्ण होने पर माता गौरी अति प्रसन्न हुईं। और प्रार्थना के बाद जब सीता जी उनके गले में माला डालने के लिए अपने नेत्रों को खोला तो देखा माता गौरी जी के हृदय में साक्षात् शिव शान्त भाव से विराजमान हैं। जानकी जी असमंजस में पड़ गईं उन्होंने सोचा माँ गौरी के हृदय के मध्य में जगत आत्मा शिव साक्षात् विराजमान हैं। यदि मैं गौरी जी के गले में माला डालती हूँ तो वह माला गौरी के गले से होती हुई शिव के गले में पड़ जाएगी , तो इस तरह शिव मेरे पति बन जाएंगे। अतः इस तरह मेरा उद्देश्य भ्रष्ट हो जाएगा। अतः वे भी अपने प्रियतम श्रीराम की शरणागत हो गईं और तुरंत उनको ध्यान आया कि भोलेनाथ अर्धनारीश्वर हैं, इनका वाम अंग नारी का है। अतः इनके वाम अंग पर माला चढाने से कोई हानि या भय नहीं है। इस विचार से उन्होंने गौरी जी के वाम भाग पर माल्यार्पण किया । गौरी जी के वाम भाग पर माला चढ़ते ही वह माला खिसक कर माता गौरी का चरण चुंबन करती हुई प्रसाद रूप में माँ सीता के सिर पर आ गिरी जो मूर्ति के चरणों के पास बैठी थीं।
माला चढाने की सोच —
अर्धांगी हैं देवता जनकसुता अनुमान वाम अंग माला खस्यो
तब मूरति मुसुकानि । माता सीता की विमल बुद्धि से की गई प्रार्थना एवं चतुराई से किए गए माल्यार्पण से भावविभोर हो माता गौरी अपने मूर्ति के छद्म रूप को भूल गयीं और उनके चेहरे पर मुस्कान दौड गयी। और केवल मुस्कान ही नहीं सीता के अति प्रेम से प्रभावित होकर मनुष्य वाणी में आशीर्वाद उनके मुंह से निकल पडा…
मन जाहि राचेउ मिलिह सो बरु सहज सुंदर सांवरो ।
करुना निधन सुजान सीलु, सनेह जानत रावरो
यहि भंति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियै हरषीं अली
तुलसी भवानी पूजि पुनिृ पुनि मुदित मन मंदिर चलीं।
जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाए कहि
मंजुल- मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे।
मां सीता को दिए गये आशीर्वाद के सदृश्य ही उर अंतर से यही प्रार्थना है कि मां का कृपा पूर्ण आशीर्वाद हम पर, आप पर समान रूप से बना रहे।