ठाकुर प्रसाद मिश्र 

जिन तुलसी को पढ़कर आज बहुत सारे लोग जगतगुरु की उपाधि धारण कर मठाधीश बने बैठे हैं .जिन तुलसी के जीवन की दिव्यता का प्रकाश कण- कण में फैला है.जड़ चेतन गुण- दोषमय की विवेचना ही जिसका कलेवर है.उन महात्मा भगवान तुलसीदास को हृदय की गहराई से असंख्य नमन. 

अविरल प्रवाह मान भगवती गंगा के पावन सलिल समान ही अचिह्नित आदि काल से ही सनातन धर्म भी प्रवाहमान है. संपूर्ण जगत ही सनातनमय है .यह ईश्वर की काल रचना का ही स्वरूप है.जिसकी गुण दोषमय प्रकृति ही सहचरी है. गुण और दोष के विभाजन में ही इसकी समग्रता छिपी है.जैसे – 

“जड़ चेतन गुण दोषमय विश्व कीन्ह करतार 

संत हंस गुण गहहिं सब परिहर बारि विकार.” 

महात्मा तुलसीदास केवल युग पुरुष ही नहीं कलयुग में गंगा तट पर अंकुरित एवं विकसित विशाल बटवृक्ष हैं. जिसकी छाया में चारों युग विलास करते हैं.चारों युगों का कोई भी ऐसा रहस्य नहीं है जो श्रीराम कृपा से  तुलसीदास से छिपा हो. उदाहरणार्थ….  

“नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोपि.” 

श्री विभूति युत गृह में जन्म के बाद भी भौतिक जगत में उनका जीवन कष्ट साध्य ही रहा . किंतु अपने ईष्ट के  प्रति शत्- प्रतिशत  समर्पण के कारण काल की कठोरता उनका कुछ भी बिगाड़ न सकी. पत्नी के उलाहने में छिपे बासना की भयावहता का ग्यान क्षणमात्र में समझ में आने पर सत्य एवं भक्ति के पथ के राही बने तुलसी को छह वर्ष के पुत्र ताराचंद्र का पुत्र शोक भी डिगा न सका. अयोध्या में मानस चौरा से प्रारंभ “वर्णानामर्थसंघानां…..काशी में जगत पावनी गंगा तट पर जब ये “यत्पूर्वं प्रभुणा कृतं सुकविना” तक पहुंचा  तो काशी की विद्वत मंडली में हाहाकार मच गया. इन्हें वेद शास्त्र के विरुद्ध भाव विचार वाला एवं अवधी जैसी लोकभाषा में रामचरित मानस लिखने के कारण देववाणी संस्कृत का अपमान करता कहा  गया. विवाद बढ़ता ही जा रहा था किंतु विश्वनाथ मंदिर में भगवान शिव द्वारा सत्यं शिवम् सुन्दरम् का अनुमोदन मिलने पर विवाद शांत हुआ.  

आगे उन्होंने अन्य कई रचनाएं भी की जिनमें विनय पत्रिका, कवितावली दोहावली, रामाज्ञा प्रश्न , बरवै रामायण आदि हैं.  अपने  द्वारा काशी में रत्नावली को रामचरित मानस की प्रति देने का वादा उन्होंने रत्ना के मृत्यु के समय राजापुर जाकर रत्ना जी के सीने पर मानस की प्रति रखकर पूरा किया . महात्मा गुरुदेव पर यदि शोध कर लिखा जाए तो उन्हीं के शब्दों के अनुसार “ बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊं” जैसा होगा. वैसे आज के समय में यह अतिशयोक्ति नहीं है कि कोई बड़ा से बड़ा विद्वान प्रवचन  करता चाहे जिंस भी ग्रंथ या विषय पर प्रवचन करता हो,बिना तुलसी को छुए उसका प्रवचन पूर्ण नहीं होता. रंक से लेकर राउ तक त्यागी से लेकर गृही तक तथा प्रकृति के हर कोने तक ऐसा कोई स्थल नहीं जो महात्मा जी से अछूता हो. यही कारण है कि महात्मा जी के चरित्र एवं लेखन की प्रशंसा में लिखने वाली लेखनी को ऊँचाई तक पहुंचने के लिए शब्दों के अभाव का सामना करना पड़ता है. फिर भी कवियों ने उनकी चरण वंदना में अक्सर कुछ प्रयास किया है.. 

कवि बेनी लिखते हैं … 

वेदमत शोधि -शोधि -शोधि के पुराण सब.  

संत औ असंतन के भेद को बतावते. 

कपटी कुराही क्रूर कलि के कुचाली जीव. 

कवन राम नाम हूँ को चर्चा चलावतो.  

कहैं कवि वेनी  मानो- मानो हो प्रतीति यह  

पाहन हिए में कौन प्रेम उपजावतो. 

भारी भवसागर उतारतो कौन पार 

जौ पे यह रामायन तुलसी न गावतो. 

यह तो कवि वेनी की भक्ति दृष्टि है…  

वहीं भारतेंदु जी महात्मा जी के काव्य कला पर यह कहते नहीं थकते हैं कि… 

बनि राम रसायन की रासिका रसना रसिकों की हुई सफला . 

अवगाहन मानस में करके जन मानस का मल सारा टला. 

बनी पावन भाव की भूमि भली 

हुआ भावुक भावुकता का भला कविता करके तुलसी न लसे  

कविता लसी पा तुलसी की कला. 

काव्य रसों के संयोजन में जहाँ महात्मा जी का कोई सानी नहीं है. वही मर्यादा को प्रभावित करने वाले अश्लील रस पर यह कहकर अपनी सफाई दी है कि… “कवित विवेक एक नहिं मोरे सत्य कहौं लिखि कागज कोरे”  अद्वितीय कहना भी महात्मा तुलसीदास के विराट व्यक्तित्व के लिए कम ही है. 

अत: ऐसे देव पुरुष के चरित्र पर लिखने में लेखनी के शैथिल्य के मर्म को समझते हुए मुझे क्षमा करने का कष्ट करना ही पाठक की उदारता होगी. उन महामानवों के चरणों में अनंत प्रणाम. 

अंबेडकर नगर, उत्तर प्रदेश

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