अरुणाकर पाण्डेय
लोभवश या किसी भय या दबाव के कारण ऐसा होता है कि अपने स्वर को व्यक्ति दबा देता है। जो बात अपना मन कह रहा है,उसमें सुख या संतोष पाने के बावजूद लोग उसे दरकिनार कर देते हैं। इसमें कई बार तो भूमिका अपने परिजनों या प्रियजनों की होती है । उनके दबाव में अपने मन की अनसुनी कर व्यक्ति व्यवस्था का गुलाम होने के लिए मजबूर हो जाता है। इसका परिणाम तो यह होता है कि उसे उस समय तो ठीक लगता है लेकिन अपनी प्रकृति के विरुद्ध वह एक समय के बाद असहज होने लगता है,अपनी आत्मा की आवाज का शोर उसे बेचैन किए रहता है। वह मनोरोगी की स्थिति में पहुंचने लग जाता है ।कहा गया है
“संतन को कहाँ सीकरी सो काम ?
आवत जात पन्हैया टूटी,
बिसरि गयो हरि नाम ।।
जिनको मुख देखे दुख उपजत,
तिनको करिवे परी सलाम ।”
यह मध्यकाल के कवि कुम्भनदासजी का पद है जिसमें वे बता रहे हैं कि जो सच्चे संत होते हैं वास्तव में वे किसी राजा के गुलाम नही हो सकते बल्कि उन्हें सत्ता से कुछ लेना देना नहीं होता । जो संत राजा के चक्कर में पड़ते हैं वे बहुत नुकसान उठाते हैं। एक तो यह कि दौड़ते दौड़ते उनकी चप्पलें टूट जाती हैं यानी उनकी दुर्गति होती है। दूसरी यह कि वे ईश्वर का नाम लेना भी भूल जाते हैं। इसके साथ ही सबसे बड़ी विडंबना और मानसिक कष्ट यह होता है कि जिनके चेहरे को देख कर भी दुख होता हो या घिन आती है, उन लोगों को देखकर भी ऐसे संतो को उन्हें सलाम करना पड़ता है ।
इसलिए अपने मूल चरित्र,स्वभाव और कर्म से समझौता नहीं करना चाहिए ।यह निश्चित रूप से आत्मसंहार का पथ है ।
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं
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