रावण का दिग्विजयी अभाियान —भाग-3

अमर पक्षी कौआIMAGE SOURCE CHAT GPT

अमर पक्षी कौआ

ठाकुर प्रसाद मिश्र

Thakur Prasad Mishra

वेदवती के प्रति विफल मनोरथ रावण पुनः पुष्पकारूढ होकर पृथ्वी पर सब ओर भ्रमण करने लगा । और इस तरह वह तुषीर बीज नामक देश में पहुंचा और देखा वहां महाराज मरुत सभी देवताओं के साथ यज्ञ कर रहे हैं । साक्षात् वृहस्पति के भाई संवर्त देवताओं के संग स्वयं उस यज्ञ को करा रहे थे । रावण जब वहां पहुंचा तो उसे देखकर समग्र देवता जो यह जानते थे कि ब्रह्मा जी के कारण यह अजेय है । हम पर आक्रमण करके हमें पीडित कर सकता है । अतः इस भय से सारे देवता तिर्यग योनि में प्रवेश कर गये जो यज्ञ के आस- पास घूम रहे थे उन में सम्मलित हो गये इंद्र मोर बन गये,धर्मराज कौआ बन गये कुबेर गिरगिट और वरुण हंस हो गये इस तरह से जितने देवता थे विभिन्न प्रकार के पक्षियों के रूप में हो गये । तब रावण ने बिना रोक-टोक उस मंडप में सीधे किसी अनियंत्रित कुत्ते की तरह प्रवेश किया । उसके द्वारा किए गये इस आचरण को वहां उपस्थित राजा व अन्य ऋषि गण अत्यंत क्षुब्ध हुए । लेकिन उसने किसी की परवाह नहीं की और राजा से बोला कि अपने मुंह से कहो कि मैं पराजित हो गया । या फिर मुझसे युद्ध करो । यह सुनकर महाराज मरुत ने पूछा आप कौन हैं । उनकी यह बात सुनकर रावण हंस प़डा और बोला आश्चर्य है राजन कि आप अभी तक मुझे जानते ही नहीं । मैं कुबेर का छोटा भाई दिग्विजयी रावण हूं । एक बात का विषमय है मुझे देखकर न तो आपके मन में कोई कुतुहल हुआ न कोई भय ही उत्पन्न हुआ । अतः मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूं ।

त्रिषु लोकेषु कोन्योस्ति यो न जानाति मे बलम्

भ्रातरं येन न निर्जित्य विमानमिदमाहृतम् ।।

तुम्हारे अलावा तीनों लोक में कौन ऐसा राजा होगा जो मेरे बल विक्रम को नहीं जानता । मैं ही वह रावण हूं । जिसने अपने बडे भाई धनाध्यक्ष कुबेर को पराजित कर उनका वाहन पुष्पक विमान छीन लिया । तब राजा मरुत व्यंग्य पूर्वक बोले तुम्हारे जैसा उत्तम पुरुष तीनों लोकों में है कौन । तुमने पूर्व काल में किस शुद्ध धर्म का आचरण किया था जिसके बल पर ऐसा बल प्राप्त किया था । ऐसी बेशर्मी की बातें करते हुए मैंने कभी किसी  और पर से नहीं सुनीं कि जिसने अपने पराक्रम से स्वजनों को ही प्रताडित किया हो । हे दुर्बुद्धि राक्षस रुको अअभ तुम यहां से बचकर नहीं जा सकोगे । मैं तुम्हारा बध करके तुम्हें यम लोक पहुंचा दे रहा हूं ।

तदंतर महाराज मरुत अत्यंत क्रोध में भरकर अपना धनुष बाण उठा लिए और रण में प्रवेश करने के उद्यत हुए । ऐसा देखकर सहर्ष संवर्क ने उनका रास्ता रोक लिए और स्नेह पूर्वक उन्हें समझाते हुए बोले हे राजन मेरी बात सुनो और यदि उसे उचित समझो, तो उस पर आचरण करो इस समय आपने यज्ञ की दीक्षा ली है। अतः इससे विरत होकर युद्ध करना उचित नहीं है । यह माहेश्वर यज्ञ अत्यंत महिमावान है ।य़दि पूरा न हुआ तो  तो विकराल अग्नि के समान तुम्हारे कुल को जला देगा। जिसने यज्ञ की दीक्षा ली है उसके लिए युद्ध का अवसर कहां है । यज्ञ दीक्षित पुरुष में क्रोध का स्थान नहीं होता । अतः यदि युद्ध करते हो तो इसमें किसकी जय किसकी पराजय होगी यह तो संशय का विषय का है । और यह राक्षस अत्यंत दुर्जेय है अतः इससे युद्ध करना आपके के लिए उचित नहीं है । अपने आचार्य की यह बात सुन महाराज मरुत युद्ध से विरत हो गये और अपना धनुष बाण त्याग दिया ।

 राजा के इस व्यवहार को देखकर उसके मंत्री शुक ने घोषणा कर दी कि महाराज रावण की विजय हुई  और वे सब बडे हर्ष से सिंह गर्जना करने लगे । रावण ने उस य़ज्ञ में उपस्थित बहुत सारे –ऋषियों महर्षियों का बध कर दिया ।उनका मांस खाकर और रक्त पीकर अति तृप्त हुए । और पुनः पुष्पक पर आरूढ होकर प़ृथ्वी पर विचरने लगा ।

रावण के चले जाने पर इंद्र सहित संपूर्ण देवता प्रकट हो गये और उन-उन पक्षियों को वर देने लगे जिनका उन्होंने स्वरूप धारण किया था । सर्वप्रथम इंद्र ने मोर को वर देते हुए कहा हे मोर तुम धर्मज्ञ हो मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूं तुम्हें कभी सर्पों से भय नहीं होगा, और जो यह तुम्हारा पूर्ण शरीर नील वर्ण शरीर है उसमें मेरे सहस्र नेत्रों के समान तुम्हारे पंख और पूंछ में सुंदर चिह्न उपस्थित होंगे । जिससे तुम्हारी सुंदरता बहुत बढ जाएगी । और जब मैं मेघ रूप होकर वर्ष करूंगा तब तुम्हें अत्यंत आनंद की प्राप्ति होगी ।..

नीलाः किल पुरा बर्हा मयूराणंम् नराधिप।

सुराधिपाद् वरं प्राप्य गताः सर्वेपि बहिर्णः

 तदंतर धर्मराज ने यज्ञशाला के पूर्व यजमान के घर के मुढेर पर बैठे हुए कौवे को कहा पक्षी मैं तुम पर बहुत प्रसन्न् हूं । अतः तुम्हें वरदान देता हूं ..

यथान्ये विविधै रोगैः पीड्यन्ते प्राणिनो मया

ते न ते प्रभविष्यन्ति मयि प्रीते न संशयः ।।

जैसे दूसरे प्राणियों को मैं नाना प्रकार के रोगों से पीडित करता हूं वैसा मेरी तुम पर प्रसन्नता के कारण तुम्हें कभी ऐसे कोई भी रोग तुम्हें पीडित न कर सकेंगे ।मेरी वाणी सत्य होगी । विहंगम मेरे वरदान से तुम्हें मृत्यु का भय न होगा जब तक मनुष्य या कोई अन्य हिंस प्राणी तुम्हारा बध नहीं करेंगे तुम जीवित रहोगे । मेरे राज्य यम लोक में स्थित रहकर जिन मनुष्यों के पुरखे भूख प्यास पीडा इत्यादि से या अन्य कष्टों से पीडित हैं, पृथ्वी पर रहने वाले जब उनके वंशज जब तुम्हें भोजन कराएंगे तब उन प्राणियों की आत्मा को मेरे लोक में रहते हुए परमतृप्ति प्राप्त होगी और वे सुखी हो जाएंगे ।

त्तपश्चात वरुण जी ने गंगा जी के जल में विचरण करने वाले हंसों को संबोधित करके कहा हे पक्षी श्रेष्ठ मेरा प्रेम पूर्ण वचन सुनो ..

वर्णो मनोरमः सौम्यश्चंद्रमंडलसन्निभः ।।

भविष्यति तवोदग्रः शुद्धफेनसमप्रभः

हे हंस तुम्हारे शरीर का रंग मेरे आशीर्वाद से चंद्रमंडल के समान कांतिमान तथा शुद्ध फेन के समान परमोज्जवल, सौम्य और मनोहारी होगा । अभी तक जो दबा हुआ तुम्हारा रंग है वह शुद्ध स्वच्छ सफेद हो जाएगा । मेरे जल में रहते हुए तुम सदा कांतिमान बने रहोगे ।  ऐसा कहा जाता है पूर्व काल में हंसों के  पंखों का अग्रभाग नीला और दोनों भुजाओं के बीच का भाग हरित दूर्वा के अग्रभाग के समान कोमल एवं श्याम वर्ण का हुआ करता था  ।

तत्पश्चात विश्रवा के पुत्र कुबेर ने पर्वत के शिखर पर बैठे हुए क्रिकलास ( गिरगिट) से कहा मैं पर्सन्न होकर तुम्हें सुवर्ण के समान सुंदर रंग प्रदान करता हूं । …

सद्रव्यं च शिरो नित्यं भविष्यति तवाक्षयम्

एष कांचनको वर्णो मत् प्रीत्या ते भविष्यति ।।

हे गिरगिट मैं तुम पर प्रसन्न हूं । तुम्हारे सिर का रंग सदा सोने के समान होगा और अपरिवर्तनीय होगा। तुम्हारे काले वर्ण का शरीर सुनहरा हो जाएगा । तुम अपने रंगों को बदलने में सक्षम होगे ।

 इस प्रकार सारे देवतागण त्रियग योनि के जीवों को इस प्रकार वरदान देकर अपने लोक को चले गए ।  

आज हम जिस दशा या जिन परिश्थितियों में हैं, इस कथा से  यह प्रमाणित होता है कि हमारी आज की परिस्थितयों का संबंध भी आदि काल की परिस्थितियों से कहीं न कहीं जुडा हुआ है । जो समय के साथ  कदम ताल मिलाते हुए आगे बढ  रहा है ।

लेखक—- हिंदी साहित्य के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं ।

प्रकाशित हिंदी उपन्यास रद्दी के पन्ने ।

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