अरुणाकर पाण्डेय
वे ठिकाने
जहां पिछली सदी में
आलोचक फैले हुए मिलते थे
और सत्ता के लिए
प्रति संस्कृति थे
अब केवल एक बुलंद इमारत
भर ही रह गए
कविता जब आत्मकथा और कवियों की जीवनी भर रह गई
तब वे बीच शहर में
होते हुए भी कोसों दूर हो गए
न जाने पिछले दशकों और सदी में अनगिनत वक्रोक्तियों को आकृति देते अब उन मंचों पर कौन आता जाता है
उन मंचों पर परंपराओं की निर्मम टकराहट
जिनसे भाषा चेतना और संवेदनाएं
बह कर
सबको अपने भीतर खींच लेती थी
और महीनों चाय समोसों पर हावी
होती थीं
क्या सिर्फ कुछ बचे हुए लोगों की गवाही और स्मृतियों की पूंजी भर है !
वे लोग अब नहीं है
मंच भी नहीं है
विश्वास भी नहीं है
सिर्फ एक पीड़ा है
जो कभी धमनी में एक झटके से
तड़प उठती है
अब सभी अधिकतर केवल देख सकते हैं
पहले से बहुत ज्यादा लेकिन
हो नहीं सकते
होना केवल होता था
ठिकानों पर !
लेखक –दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं.