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ठाकुर प्रसाद मिश्र

Thakur Prasad Mishra

सेठ गिरधारी लाल ने पत्नी होने के बाद लंबे समय तक अवसाद में रहने के बाद एक दिन  वियोग की पीड़ा को दबाते हुए बिना किसी उद्देश्य से के ही सेठानी सरला की आलमारी खोला तो देखा पत्नी के सारे कपड़े एवं गहने के डिब्बे करीने से सजाकर अपने स्थान पर रखे थे। सेठ जी ने उन्हें निर्निमेष निहारते हुए कुछ देर तक भाव शून्य खड़े रहे फिर अनेक नेत्रों से अविरल जल धारा बहने लगी । संयोग की यादों से हृदय की ज्वाला धधक उठी फिर यह सोचकर कि जब इन की स्वामिनी ही नहीं रही तो अब ये मेरे किस काम के हैं, इस सोच के साथ जब वे दरवाजे बंद करने लगे तो उन्हें कपड़ों के ऊपर एक सफेद लिफाफा नजर आया। कुतूहल बस उस लिफाफे को निकालकर उसमें रखें पन्ने पढ़ने लगे।

लिखा था, प्रियतम, सर्वप्रथम तो इतने दिन के साथ में यदि मेरी तरफ से कोई भूल हुई तो उदार दिल दिखाते हुए मुझे माफ़ कर दीजिए। इधर मैं कुछ दिनों से महसूस कर रही थी कि मैं आपकी अपेक्षाओं पर खरी न उतर कर आपको वांछित खुशी नहीं दे पा रही हूँ। अतः मैं आपको भी घर आने पर अधिक गंभीर उत्साहीन देखती थी। वैसे मैं सौगंध पूर्वक कहती हूँ कि मैं अपना सारा प्रयास आपको सदैव सुखी एवं में प्रसन्न करने के लिए ही करती रही, लेकिन यह अपना दुर्भाग्य मानती हूँ कि इसमें मैं सफल नहीं हो सकी। मैं आप को किसी अन्य द्वारा प्राप्त होने वाले आनंद में बाधा भी नहीं बनना चाहती थी । इसलिए आप और कोकिला आपकी सेक्रेटरी की आत्मीयता एवं अंतरंगता में बीच में नहीं आई। ना ही कभी कोई सफाई पाने की बात ही करना चाही । हां कोकिला का अंग प्रदर्शन करने वाले वस्त्रों में ऑफिस आना और आपके पास शरीर के अति निकट खड़ी होकर फ़ाइलों को पलटते हुए । मधुर मुस्कान के साथ चर्चा करना मुझे जरूर बुरा लगता है । कारण मैं दो बार कंपनी देखने के भाव से वहाँ आप को बिना सूचित किए गए और दोनों बार मैंने आप और कोकिला को उसी स्थिति में देखा । इतना ही नहीं, कोकिला बड़े गर्व से अपने सहकर्मी युवतियों के साथ आपसे अति निकटता की बात करती थी। उन्हीं में से किसी ने मुझे बिना अपना नाम बताए फ़ोन पर आप और कोकिला के संबंधों को बताया तो मुझे विश्वास नहीं हुआ। लेकिन तार्किक मन के सुझाव पर दो बार ऑफिस आई और आप दोनों की निकटता अपनी आँखों से देख । तब मुझे विश्वास हुआ मैं एक संस्कारी परिवार की लड़की हूँ। मुझे पति को परमेश्वर का दर्जा देना सिखाया गया  पति के आनंद में ही अपना आनंद छिपा है । बताया गया अतः मैं आपके हर कदम पर अपनी सहमति देती और तलाक जैसी अप्रिय स्थिति ना आवे। अतः मैं आप लोगों की राह निर्भीक न करने के लिए अपने जीवन के अंत की तरफ बढ़ रही है। लेकिन एक प्रार्थना मेरी है कि मेरे पांच वर्ष के बेटे भरत पर मेरी सौत की छाया न पड़े, उसे या तो किसी विद्यालय की बोर्डिंग में डाल दीजियेगा या फिर उसे ननिहाल मेरे भाइयों के पास भेज देना। आप से दूर सदा के लिए दूर जाती हुई आपकी सरला।

पत्र पढ़ते ही तो सेठजी पर वज्रपात हो गया। वे व्यथा से पागल हो गए वे दहाड़ मार्ग मार कर रो पड़े हाय़ प्रिये, तुमने ये क्या किया मेरे साथ इतना बड़ा धोखा हुआ अरे तुमने जो कोकिला की बात लिखी है उसे तो मेरा दूर -दूर तक कोई नाता नहीं। कोकिला थोडी, एडवांस बनने के चक्कर में निंदित वस्त्र पहनती है, काम के बोझ में दबे मेरे मन मस्तिष्क में फ़ाइलों को देखने के अलावा उसकी निकटता का एहसास कभी नहीं हुआ।   हाय मेरे दुर्भाग्य ने तुम्हें मुझसे झूठे आरोपों के आधार पर अलग कर दिया। तुम्हारे क्रूर मन ने मेरे ऊपर इतनी भी दया नहीं दिखायी कि तुम एक बार मुझे अपने दुख का कारण तो बता देती। स्वास्थ्य के बारे में पूछने पर रोज़ कहती बड़े डॉक्टर को दिखाया है आराम है कहकर बात टाल देती मैं भी कितना स्वार्थी निकला कि फुर्सत निकालकर तुम्हें किसी डॉक्टर को दिखाने नहीं गया । वाह रे दुर्भाग्य मैं अपना घर, तिल – तिलकर जलता रोज़ देखता रहा हूँ। और भस्म हो जाने तक उस पर एक बूंद भी पानी डालने का प्रयास न कर सका। हफ्तों बाद सेठजी पश्चाताप की आग में जलते रहे।

 कुछ प्रकृतिस्थ होने पर सेठजी कंपनी पहुंचे। वहाँ गोकिला का रुतवा सेठ की अनुपस्थिति में और बढ़ गया था । सेठ की मुहं लगी सेक्रेटरी ज्योति मैनेजर का कुछ है आलम ठोकने लगे । सेठ जी के पहुंचते ही तुरंत आकर बोली, सर आपकी अनुपस्थिति में यहाँ कोई काम रुका नहीं, सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है। सेठ जी ने उसकी बातों को अनसुनी करते हुए उससे कहा, कोकिला, मैं तुम्हें कई बार टोंक चुका हूँ, ऑफिस में शालीन वस्त्रों में आया करो, लेकिन तुम पर कोई असर ही नहीं होता। सर, खाना-पीना और कपड़े पहनना नितांत व्यक्तिगत बात होती है, उम्र का तकाजा भी है और फैशन का ज़माना भी। तो सर इस पर आपको ऐतराज नहीं करना चाहिए कोकिला बोली । होगा फैशन का ज़माना, यह ऑफिस है, यहाँ शालीनता से ही आना होगा। सेठ जी की इस बात पर कोकिला बोलीि कि सर, यह जरूरी नहीं  है कि हर युवा पुरानी दकियानूसी की ही बातें माने, यहाँ मैं आपसे सहमत नहीं हूँ। कोकिला का जवाब सुन सेठजी बोले ठीक है, अब तुम अपनी केबिन में जाओ, आज मुझे कोई खास काम नहीं करना है।

 कोकिला के जाने के बाद सेठ जी ने मैनेजर को बुलाया और बोले अनुशासनहीनता के कारण कोकिला को सेवामुक्त करने का ऑर्डर टाइप करने का आदेश दिया। जिस पर सेठजी स्वयं हस्ताक्षर किए और टाइम आफिस और कोकिला के लिए कॉपी जारी कर दी। चपरासी द्वारा अपनी बर्खास्तगी ऑर्डर मिलते ही कोकिला अपनी बर्खास्तगी पर उछल पड़ी उसने तैश में दरवाजा खोला और ऑर्डर की कापी हाथ में लिए दनदनाती हुई सेठ जी के केबिन में घुसने लगी तो आगे बढ़कर चपरासी ने उसे रोक दिया और बोला, मैडम सेठजी का आदेश हो चुका है, अब वह बदलेगा नहीं। और अब ना सेठ जी आपसे बात ही करेंगे। उन्होंने कहा है आप टाइम आफिस जाकर अपना हिसाब बनवा लें एवं खजाने से जाकर अपना पैसा ले लें। कोकिला जमीदार आई तो उसकी कैबिन में तुरंत ताला लगा दिया गया। वह पैर पटकती रही, बड़बडाती रही, लेकिन किसी पर कोई असर ना हुआ। कुछ देर बाद महिला कर्मियो द्वारा उसे ऑफिस से बाहर करवा दिया गया।

   सेठ गिरधारीलाल निराशा से उबर नहीं पा रहे थे। सोच नहीं पा रहे थे कि अब जीवन की गाड़ी किस मार्ग से आगे बढ़ाई जाए। उनकी हताशा को देख युवक समझकर इनके पिता को। समय से ही घरेलू कार्यों के मुंशी बनवारी लाल थे । उन्हें बार-बार ढांढस बंधा सांत्वना देते, लेकिन सेठ का चित्त स्थिर नहीं हो पाता। एक दिन समय देखकर बनवारी लाल ने सेठ से कहा लल्ला, जीवन की डगर बहुत लंबी है और तमाम जिम्मेदारियों से भरी हैं। लल्ला भारत अभी बहुत छोटा है। उसके उचित लालन- पालन एवं अपने सुख शांति के लिए उचित है कि आप दूसरी शादी कर लें तो घर गृहस्थी में आपका मन लगने लगेगा और भरत को भी माँ का सहारा मिल जाएगा।

 मुंशी जी के मुख से दूसरी शादी की सलाह सुनकर शेठजी तड़प उठे। उन्होंने कहा, मुंशी काका, आप क्या कह रहे हैं? मैं तो दुर्भाग्य झेल ही रहा हूँ मासूम भरत के लिए बपत्ति का सौदा कर लूँ बिमाताओं का इतिहास आपको मालूम नहीं, सर्व सुख,संपन्न अति उच्च कुल की प्रतिष्ठित विमाता अपने जाये पुत्र के ब्यामोह में अपने पुत्र के विचार को बिना जाने श्रीराम जैसे प्रजा प्राण पुत्र को वन भेज सकती हैं तो हम अति सामान्य लोग हैं। भरत सरला की निशानी है अब यह जीवन हम और आप इसी की रक्षा, सुरक्षा एवं पालन पोषण में बिताएंगे। आखिर हमारे और आपके पास भरत के अलावा और कौन है? भरत तो मुझसे कहीं अधिक आपसे ही प्रेम करता है, आप ही के पास रहना चाहता है, क्या आप चाहेंगे कि वह विमाता की उपेक्षा का शिकार बने? अब मेरा निर्णय है कि मैं दूसरी शादी कतई नहीं करूँगा। अब मैं ही भरत की माता हूँ और पिता भी । मुंशीजी भरत को अंक में भरते हुए बोले ठीक है ऐसा ही हो।

 समय के पंख हिलते रहे सेठ सामान्य दिन चर्या में लौट चुके थे। मात्र 28 साल के एक पिता ने अपने पाँच वर्षीय पुत्र प्रेम में बाकी जीवन बिना पत्नी के गुजारने का निर्णय ले लिया था। आज उनकी कार शहर के चौराहे पर स्थित एक मॉल के सामने रुकी। काका एवं भरत के लिए कुछ कपड़े लेने थे, गाड़ी साइड में लगाकर वे मॉल की सीढ़ियां चढ़कर अंदर पहुंचे तो एक काउंटर पर एक अत्यंत आधुनिका लड़की अपने लक-धक परिधान काउंटरमैन से बात करती दिखीं। उसकी आवाज कुछ परिचित सी लगी। करीब गये तो वह मुड़ चुकी थी। उसकी नजर सेठ पर पड़ी तो वह हर्ष मिश्रित आश्चर्य से बोल पड़ी, गिरधारी जी, आप। सेठ बोले सुरभि जी, आप । कॉलेज टाइम के प्रगाढ मैत्री बंधन में बंधे दो शरीर आमने-सामने खड़े थे। सात-सालों के बाद भेंट हुई थी मिलते ही दोनों कॉलेज के दिनों की यादों में खो गए। गिरधारी लाल प्रतिभा के धनी होने के साथ व्यक्ति के भी धनी थे उनका सजीला शरीर रंग सुंदर मुख मंडल किसी भी नवयौवना को आकर्षित करने के लिए काफी था। कॉलेज के दिनों में तमाम सहपाठी युवतियां उन पर जांन छिडकती थीं तो वहीं सुरभि भी सुरभि थी, वह भी नख-शिख सौंदर्य वर्णन करने वालों कवियों की कल्पना जैसी थी और भीड़ उसके भी इर्द-गिर्द मंडराया करती थी और सबसे बड़ी बात थी सेठ गिरधारी एवं सुरभि की प्रगाढ़ मैत्री। यदि सुरभी पढ़ाई के लिए लंदन न गई होती तो शायद। आज दोनों पति- पत्नी होते फिर भी जाते समय वह बोल के गयी थी कि गिरधारी जी ध्यान रखना, मैं लंदन से वापस आकर शादी आप ही से करूंगी। मैं तो माता -पिता एवं परिवार की जिद पर लंदन बैरिस्टर पर बनने की नियत से जा रही हूँ। आपको कष्ट जरूर होगा, लेकिन मेरा इंतज़ार करना । सुना है सब्र का फल मीठा होता है और अब आज वहाँ सेठ के सामने खड़ी थी।

 माल में एक किनारे खड़े होकर दोनों आपस में बात करने लगे। फिर अभी बोली अभी मैं कल ही आई हूँ मैं कल से ही मिलने वाली थी। अब मेरे सारे कार्य हो चुके हैं अब हम हमारे बनने के लिए। कार्य शुरू कर दें। सुरभि की बात सुनकर उसे समझते हुए गिरधारी लाल ने क्षमा मांगते हुए कहा कि तुमने बहुत देर कर दी सर भी अब मैं मजबूर हूँ। पिता के दबाव के आगे मुझे भी झुकना पड़ा और तुम्हारे जाने के एक साल बाद ही मुझे शादी करनी पड़ी। शादी की बात सुनकर सुर भी अब आवाक् रह गई। फिर बोली यह क्या कह रहे हो आप ? आपने हमारे मैत्री का तनिक भी ध्यान नहीं रखा। मैं आपके भरोसे रही और आपने उसे तोड़ दिया। इन सात-सालों में ब्रिटेन की धरती पर रहकर भी मैं केवल आपके बारे में सोचती रही और आप अपने वादे पर साल भर भी नहीं टिक सके। इतना बड़ा धोखा तभी तो आपने मुझसे कभी पत्राचार या टेलीफोनिक संपर्क ही नहीं किया। फिर भी सेठ की बात सुनकर सेठ बोले, फिर भी आपने माता-पिता की बात रखने के लिए लंदन जाकर सात साल रही हूँ। और मैंने अपने माता बीमार माता-पिता की बात मानकर शादी कर ली। भले हम एक नहीं हो सके, लेकिन हम दोनों ने अपने माता -पिता की बात मानी यह कम है। फिर भी सोचने लगी सच में मैं काफी दिन विदेश में बिताया। ऐसे में कोई कुछ भी निर्णय ले सकता है। सबकी अपने परिवार की मजबूरियां हो सकती है। तथा कुछ देर चुप रहकर बोली जब शादी कर ही ली है तो शापिंग अकेले क्यों करने आए हो ? वह भी साथ होतीं तो मैं भी मिल लेती आखिर भिन्न मित्र की पत्नी से मिलने का मेरा कुछ तो हक बनता है।

 सुरभी की बात पर एक लंबे निश्वास के साथ सेठ बोले। अब यह पूर्ण संभव हो गया। फिर भी अब तो उस लक्ष्मी की केवल यादें ही शेष हैं। अब वह नहीं उसकी निशानी ही मेरे पास बची है। उसी में मेरे प्राण बसते हैं अन्यथा इस जगत से मेरा मोहभंग हो गया,यह कहकर गिरधारी जी ने सारी कहानी सरला की मृत्यु सुनकर सुरभि ने दुःख प्रकट किया लेकिन एक मुरझाने वाली आशा जागृत हो गई। उसने पूछा तो फिर अब आगे का क्या इरादा है? क्या हम कुछ सोच सकते हैं? नहीं सुरभि अब तो मुझे बस अपनी पत्नी की वह इच्छा पूरी ही करनी पड़ेगी कि उसके पुत्र पर सौत की छाया नहीं पड़नी चाहिए। लेकिन जो चला गया उसकी बात को लेकर अपना पूरा जीवन बर्बाद करने का क्या मतलब? और सभी बिमाताएं तो ऐसी होती भी नहीं । फिर बोली तो सेठ ने कहा, हो सकता है ऐसा हो, लेकिन अपना निर्णय अटल है लेकिन फिर भी सुरभि सेठ से अलग करके अपने को देख नहीं पा रही थी, अतः उसका मन अलग दांव लगाने को कह रहा था, वह कुछ सोच कर बोली चलिए ठीक है लेकिन हम तो अब भी अभिन्न मित्र बने रह सकते हैं। हमारा आना-जाना मिलना-जुलना तो होता रह सकता है ना । इस पर सेठ ने कहा, हाँ, क्यों नहीं? इस पर कौन सी आपत्ति है? आखिर हम मित्र तो हैं ही । करीब दो महीने बीत

गए करीब दो महीने बीते, सेठ का फ़ोन बजा हैलो कौन इतनी जल्दी भूल गये, फिर अरे हाँ, सुरभि जी बोलिए। सात मई को मेरा जन्म दिन है। मम्मी पापा धूमधाम से मनाना चाहते हैं आपका सुबह ही आ जाना। मैंने पापा जी से कहा है सारी व्यवस्था आपको ही देखनी है। ठीक है न, फिर तो यह बात ना कहनी होगी। ठीक है, ठीक है, मैं आऊंगा जरूर आऊंगा। फ़ोन कट गया।

 जन्मदिन धूमधाम से मना शाम को जब सारे गेस्ट चले गए तो फिर सुरभी बोली आपने आज दिन भर बड़ा श्रम किया है, सब ठीक -ठाक निभ गया और आप भी काफी थक गए। अब हमें भी भोजन कर लेना चाहिए। बोलिए भोजन के पहले कुछ ठंडा हो जाए। बाहर काफी गर्मी है, सेठ बोले शराब तो मैं पीता नहीं। एक गिलास ठंडा पानी या कोई ठंड पेय़ ले लूँगा, फिर सुरभी एक जग भर ठंडा पेय़ दो गिलास और थोड़े नमकीन लेकर आयी। दोनों टेंट के एक कोने शांत बैठकर पीने लगे। सुरभि ने दोनों गिलास दो बार भरा और दोनों पी गए। कुछ देर बाद नमकीन उठाते सेठ बोले पता नहीं क्यों मेरा सिर चकरा रहा है। फिर सुरभी बोले आप काफी थके भी हैं और गर्मी भी काफी है। चलिए जल्दी से कुछ खाकर कमरे में आराम करिए। सेठ बोले नहीं अब मैं कुछ खाऊंगा नहीं, बस सोऊंगा। फिर सुरभी उन्हें सहारा देकर कमरे में ले गई और अपने बिस्तर पर लिटा दी और स्वयं भी बगल में लेट गयी। योजना अनुसार नौकरानी लाइटें बुझा कर दरवाजा बंद कर दिया। बेहोशी के आलम में सेठजी के कपड़ों के साथ जो छेड़छाड़ हुई उन्हें कुछ भी पता नहीं चला। सुबह 8:00 बजे नौकरानी ने दरवाजा खोला तो दोनों चौक कर उठे। सेठ ने देखा सुरभी उनके बगल में ही लेटी और उन दोनों के कपड़े अस्तव्यस्त थे।  सुरभी अपनी और सेठ की दशा देखकर अपने सिर पर हाथ रखकर बिस्तर पर ही बैठ गई। उसके दोनों हाथ सिर पर थे। हल्की नाराजगी जताते हुए बोलीं यह क्या किया? गिरधारीलाल जी, आप तो ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने की प्रतिज्ञा लिए थे, और अवसर मिलते ही बिना मेरी राय लिए ही मेरी इज्जत लूट। मैं तो जन्मदिन के कारण थोड़ा पीए हुई थी। आदती ना होने के कारण मुझे नशा हो गया, मैंने आपकी तरफ देखे बिना यहाँ अपने बिस्तर आकर लेट गयी, लेकिन आपने तो नहीं पी थ। आप तो होश में होंगे, ऐसे में आप ने मेरे साथ जो किया उचित किया क्या? मैं अभी कुंवारी हूँ, दरवाजा भी बंद नहीं था। इस हालत में नौकरानी भी जगाने आ कर देख ली। नौकर की जात है, बिना शव जगह कहे मानेगी नहीं? मैं तो किसी को मुँह दिखाने लायक ही नहीं रही। आपने तो खूब किया। आप तो भेड के रूप में भेड़िये निकले ।  क्या य़ह नाटक है। मित्र बनकर आप ने मेरा जीवन बर्बाद कर दिया, अब मैं कैसे किसी का सामना करूँगी? लगता है अब मुझे आत्महत्या ही करनी पड़ेगी।

 सुरभी की बातें सुनकर सेठ अंदर तक कांप गए। वे सोच नहीं पा रहे थे यह सब कैसे हो गया? उन्होंने जब बचाव में कुछ कहना चाहा तो सुरभी झुंझलाकर बोली, तुम्हारी पोल खुल चुकी है। अब संत बनने की जरूरत नहीं है। सेठ घोर संकट में पड़ गए, उन्हें समझ में नहीं आ रहा था अब क्या करें? वे अपराधी भाव से बोले यदि सुरभि जी आपकी बात में सच्चाई है तो यद्यपि मुझे कुछ याद नहीं, फिर भी मैं अपना अपराध स्वीकार करता हूँ। तुम मुझे जो दंड देना चाहो मैं भुगतने के लिए तैयार हूँ, लेकिन यह बात बाहर नहीं जानी चाहिए अन्यथा तुम्हारे और हमारे खानदान तक की बदनामी होगी। सुरभी बोली यदि आज के ही इस घटना से मुझे कुछ हो गया तो बदनामी नहीं होगी क्या? अब वो इज्जत बचाने का एक ही रास्ता है कि हम दोनों शादी कर लें। और शादी भी मैं अपनी शर्त पर करूँगा अन्यथा अब जेल जाना जाने की बदनामी के अलावा आपके पास कोई मौका नहीं। सेठ की आँखों में आंसू आ गए, बेबस होकर बोले ठीक है, तुम्हारी शर्तें स्वीकार होंगी, लेकिन मुझे हफ्ते 15 दिन का मौका चाहिए। सुरभी बोली ठीक है लेकिन एक बात और नौकरानी ने हमारे बिस्तरे की फोटो भी खींच ली थी। उसे भी हमें हर हाल में रोकना होगा। यह सुनकर सेठ जी अंदर तक कांपते रहे।

 घर पहुँचकर सेठजी मुँशी जी अपने ऊपर आई सारी नई विपत्ति बयां किया और पूछा यदि मैंने शादी कर ली तो भरत का क्या? शादी के बाद मुझे उसी के साथ रहना होगा और अपने को कुंवारा बताना होगा। काफी चर्चा एवं सोच विचार के बाद सेठ जी ने कंपनी बंद कर दी। कर्मचारियों का हिसाब कर दिया और भरत से बोले बेटा हमें एक आध महीने के लिए विदेश जाना होगा तो मुंशी दादा के साथ रह लोगे ना? बेटा पहले तो साथ चलने की जिद करने लगा, लेकिन बहुत समझाने के बाद वह मान गया सारी व्यवस्था करके भरत को मुंशीजी के हवाले कर सेठ गिरधारीलाल सुरभी द्वारा छले जाने से आहत हृदय लिए सेठ गोपाल के बंगले पर पहुँचकर सुरभि के हाथों अपने को सौंप दिया। सुरभि के माता-पिता सुरभि के इस व्यवहार पर क्षुब्ध थे। उन्हें अपनी लड़की द्वारा इस तरह ब्लैकमेल करके शादी करना पसंद नहीं था। वह बैरिस्टर बनकर लौटी है। शायद यह पेशा झूठ का माहौल बनाने के लिए ही बना है। चरित्र की बात तो कहीं दिखाई नहीं पड़ती। खिन्न मन से सुरभी की अति सामान्य ढंग की शादी में शामिल तो हुए लेकिन एक सप्ताह के अंदर ही अपनी सारी संपत्ति की जिम्मेदारी बेटी दामाद को सौंपकर शहर से दूर दो चार नौकरों के साथ दूर गांव अपने फार्म हाउस चले गए।

 पंख लगाकर उड़ते समय के साथ परिस्थितियां भी बदलती गई। औपचारिकता ही सही सेठ जी को पति धर्म निभाना ही पड़ता था। कुछ दिन बाद फिर सुरभी को भी शायद अब यथार्थ का ज्ञान होने लगा था। अब उसके रहन- सहन और विचारों में बदलाव आ रहा था। सेठजी द्वारा उसने एक कन्या को जन्म दिया था, जो अब बड़ी होकर विश्वविद्यालय से स्नातक कोर्स कर रही थी। उसका नाम था श्रुति। श्रुति अपनी माँ से ज्यादा अपने पिता से प्रेम करती थी। अक्सर वह पिता के इर्द-गिर्द ही रहती। उसे देखकर सेठ जी को कुछ शान्ति मिलती लेकिन भरत भी इसी तरह मुझे से अगाध प्रेम करता था। सोचकर व्यथा से हृदय जलने लगता और न चाहकर भी पुनः पत्नी की राह पर ही चलना पड़ता।

 सेठ जी की योजना अनुसार मुंशीजी द्वारा बताया गया था कि विदेश जाने के 15 दिन बाद ही एक दुर्घटना में विदेश में ही सेठ जी की मृत्यु हो गई, जिससे भरत का कोमल हृदय बहुत दिनों तक घायल रहा। पिता की याद आते ही वह किसी कोने में बैठकर रोने लगता। अब उसके माता, पिता, दादा सब कुछ केवल मुंशी जी ही थे। उन्होंने उसे उसकी रुचि के अनुसार ही शिक्षा दिलवाई। वह अत्यंत मेधावी था। पहले प्रयास में ही संस्कृत प्रवक्ता के पद पर नियुक्त हो गया। लडका हर तरह से योग्य एवं जिम्मेदारियों को निभाने लायक हो गया था। अतः मुंशी जी ने गोपनीय तरीके से सेठजी की अनुमति लेकर एक अन्य सेठ की सुंदर संस्कारवान लड़की से उसकी शादी करदी।

 एक दिन सत्र के प्रारंभ में जब वह क्लास में गया। तो कुछ एडमिशन फॉर्म जो मेज पर पड़े थे, उन्हें देखने लगा। उसी समय उसकी नजर श्रुति के फॉर्म पर पड़ी तो पिता का नाम देखकर। वह हक्का- बक्का सा हो गया और उसे धक्का सा लगा। उसने श्रुति का नाम पुकारा तो क्लास में थोड़ी दूरी पर बैठी हुई। छुईमुई सी सुन्दर कन्या खड़ी हुई वह पूंछ बैठा तुम्हारे पिताजी का नाम गिरधारीलाल है। कहां रहती हो इत्यादि । लड़की ने कुछ देर बाद कुछ संकोच से पूछा, सर आप मेरे पिता जी के नाम के बारे में पूछे है, क्या आप उन्हें जानते हैं? नहीं बहन, असल में मेरे पिताजी का नाम भी यही था जो अब इस दुनिया में नहीं है। कौतूहल बस हमने पहुँच लिया था। सॉरी भैया सर? मेरे प्रश्न से आपको दुख हुआ अरे नहीं, कोई बात नहीं है। हमारे उस वार्तालाप से एक लाभ हुआ कि मेरे कोई बहन नहीं थी। पिता के नाम द्वारा ही सही, मेरी शिष्या मेरी बहन बन । गयी क्षमा करें सर मेरी भी वही हाल है, मेरे भी कोई भाई नहीं था आप के रूप में एक भाई मिल गया। पक्का रहा बहन अब हमारा तुम्हारा रिश्ता सदा के लिए भाई बहन का ही रहा। दोनों के वार्तालाप को क्लास के अन्य छात्रा-छात्राएं बड़े ध्यान से बिना कुछ बोले सुन रहे थे। फिर तो यह रोज़ की बात हो गई एक दिन भरत श्रुति को अलग बुलाकर बोला बहन मैं चाहता हूँ मेरी बहन क्लास में सदा प्रथम आवे, अतः तुम्हें यदि घर जाने की जल्दी ना हो तो मैं तुम्हें एक घंटा अतिरिक्त अकेले पढ़ा दिया करूँगा। श्रुति प्रसन्न होकर बोली  भैया सर  य़ह तो मेरे लिए बड़ी खुशी की बात होगी । मैं आज शाम मम्मी पापा से बात कर कल से पढ़ना शुरू कर दूंगी।

 माँ की अनुमति मिली, एक्स्ट्रा क्लास चलने लगी, दो दिन चार दिन बीता। अब भरत रोज़ एक घंटा लेट आने लगा और उसकी पत्नी अमृता से नहीं रहा गया। उसने पूछ ही लिया लेट आने का कारण । भरत बोला कुछ बच्चे हैं, उनकी एक घंटे एक्स्ट्रा क्लास लेता हूँ और हाँ उसकी कोई फीस नहीं लेकर परोपकार में एक काम करता हूँ । नारी मन शंकालू तो होता ही है घर पर भी रहते हुए कभी काल श्रुति का फ़ोन आ जाता, कुछ जानना चाहती या कभी परिवार की बात करती और एक बात कहती कि अबकी रक्षाबंधन पर घर जरूर आना माँ भी यही चाहती हैं। ठीक है, ठीक है कहकर भरत पीछा छुड़ाता। कभी-कभी तो ज्यादा बात करने पर उसे डांटने की मुद्रा डांटकर कहता अच्छा अब सब सुन लिया, फ़ोन रखें और वह डांट खाकर भी हंसते हुए फ़ोन काटती। रोज़ फ़ोन आने शुरू हुए तो अमृता का माथा ठनका। अब वह छिप- छिपकर भरत का पता लगाने लगी। वह दो- तीन दिन विश्वविद्यालय कैंपस गई, लेकिन सिवा उस लड़की के उससे और कोई छात्र- छात्रा ट्यूशन पढ़ते दिखाई नहीं दिए। अतः वह सतर्क हुई और उसने भरत पर अंकुश लगाने की बात सोची। अब उसके व्यवहार में अंतर आने लगा। वह कभी भी अब भारत से सीधे मुंह बात नहीं करती। हर बात में कोई व्यंग्य छिपा होता। भरत उसके इस व्यवहार से परेशान हो उठा, उसको समझ में नहीं आता था कि क्या कारण है? पूछने पर वह कुछ बताती भी नहीं थी। अब भरत भी चिंता मग्न रहने लगा। दो प्राणियों का परिवार उसमें भी अनजान कारणों से अनबन।

 रक्षाबंधन आने वाला है। श्रुति ने फिर वही बचपन की जैसी बात अपने पिता से बोली पापा रक्षा बंधन आरहा है। सभी लड़कियां अपने भाई को राखी बांधती है। मैं किस को बांधू ? आखिर मेरे पास भाई क्यों नहीं ।श्रुति के बाद फिर सुरभी को लाख दवा इलाज करने के बाद भी कोई दूसरी औलाद नहीं हुई थी। पिता बेटी की बात सुनकर हल्के व्यंग्य के साथ कहते हैं, बेटी अपनी माँ से पूछ। श्रुति जब भी सुरभि से पूंछती तो वह तो वह उसे समझाकर कहतीं, बेटी शायद भगवान की यही इच्छा है। श्रुति मन मसोसकर कहती, यह भगवान भी कैसा है. मुझे भाई नहीं दिया है, लेकिन आज के प्रश्न में कुछ प्रसन्नता  कुछ सोखी थी? श्रुति ने पिता को एक सुंदर राखी दिखाते हुए कहा, लेकिन अबकी बार मैंने एक बहुत अच्छा भाई ढूंढ लिया है। यह राखी मैं उसी के लिए लाई हूँ मैं। माँ खुश होकर बोली अब मेरी बेटी कितनी सयानी हो गई, भगवान ने नहीं दिया तो भी उसने भाई खोज ही लिया। सेठजी बोले बेटी आज ज़माना बहुत खराब है, आज भाई बनकर भी लोग छल करते हैं। कोई कदम सावधानी से उठाना। सब पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। ठीक है, पिताजी, मेरे भैया ऐसे नहीं है।

 इधर तीन दिनों से भरत कॉलेज नहीं आ रहे थे। रक्षा बंधन दो ही दिन रह गया था । और भैया सर कल कॉलेज नहीं आ रहे हैं देखू क्या बात है? फ़ोन लगाया तो उधर से नारी स्वर गूंजा कौन मैं श्रुति, सर से बात करनी है । अमृता समझ गई यह वही लड़की हो सकती है। अतः वह रूखे स्वर, में बोली इस समय वो बात नहीं कर सकते। क्यों नहीं कर सकते हैं … तो जवाब में फिर वही रुखी आवाज आई, वे काफी अस्वस्थ है। डॉक्टर ने बोलने से मना किया है, यह कहकर फ़ोन रख दिया और स्विच ऑफ हो गया। फ़ोन लगना बंद हो गया। श्रुति परेशान हो उठी भैया सर को क्या हो गया और यह फ़ोन पर बोलने वाली कौन? क्या यह भाभी की आवाज थी? या कि कोई और। इसका बोलने का ढंग तो बहुत असभ्यता पूर्ण था। कुछ भी हो अगर भैया सर ठीक नहीं है तब भी मैं उनके घर जाकर राखी बांधूंगी । दूसरे दिन वह विश्वविद्यालय गई तो वहाँ से भरत का आवासी पता लेकर आयी। फ़ोन अभी स्विच ऑफ था। उसने माँ को बताया कि उस औरत से बात करने के बाद से फ़ोन स्विच ऑफ है। उसने कहा तबियत खराब है, लेकिन बोली बड़ी बेरुखी से। मुझे तो बड़ी बदतमीज लगी । नहीं बेटी हर औरत का यही व्यवहार होता है। कोई भी औरत जब तक पूर्ण जानकारी न हो अपने पति का किसी गैर औरत से बात करना कतई पसंद नहीं करती। मुझे पूरा विश्वास है कि वह तुम्हारे उस तथाकथित भाई की बीबी ही होगी। उसके मन में भरत से मेल जोल रखने के कारण शंका होगी।

 कुछ भी हो मैं कल सुबह राखी बांधने भैया सर के घर जाउंगी क्योंकि वे बीमार हैं यहाँ नहीं आ पाएंगे ।

 सुबह हुई श्रुति ने माँ को जिद करके के साथ लिया और चल पड़ी भरत के घर। गाड़ी सेठ मंगलदेव निवास के सामने जाकर रूकी । भव्य महल जैसा विशाल घर पुराना होने के बाद भी अपने गौरव का बखान कर रहा था। गेट पर वॉचमैन से पूछने पर पता चला कि भरत भैया की तबियत ठीक नहीं है। अगर आप चाहें तो उनके दादाजी से मिल सकते हैं। खबर पाकर मुंशीजी गेट पर आए। और उम्र में माँ, बेटी जैसी दो सुन्दर सजी-धजी औरतों को देखकर पूछा आप लोग कौन हैं? किससे मिलना है । दोनों ने मुँशी जी को नमस्कार किया और सुरभी ने अपना नाम बताया और श्रुति का परिचय देते हुए कहा यह मेरी बेटी श्रुति है, इसके भैया सर बीमार हैं इसने बताया तो यह खुद चलकर उन्हें राखी बांधने आई है। मुंशी जी ने गाड़ी अंदर लाने को कहा और अमृता को दो औरतों के आने वाली सूचना दी। और बोले दोनों माँ बेटी हैं और किसी बड़े घर की लग रही हैं। अमृता ने दरवाजा खोला इन दोनों को नमस्कार इत्यादि के बाद बैठका में बिठाकर भरत को सूचना देने अंदर गई और दोनों माँ बेटी दीवारों पर टंगे चित्रों का जायजा लेने लगीं । तब तक दोनों की निगाह दीवार पर टंगे एक बड़े फ्रेम के चित्र पर पड़ी। दोनों चौक पड़े। कृति बोल पड़ी यह फोटो तो हूबहू मेरे पापा जैसी लग रही है । सुरभी आश्चर्य से बोली हू बहू नहीं यहाँ उनकी असली फोटो है, पर यह यहाँ कैसे यह सोच ही रही थी। तब तक जल्दी -जल्दी चलते हुए भरत आ गए। श्रुति को देखते हुए अत्यंत हर्ष से बोल उठी श्रुति मेरी प्यारी बहन, तुम यहाँ आ गई अरे वाह और आप यदि मैं गलत नहीं हूँ तो आप यानी हमारी दोनों की मम्मी हैं। यह कहानी कहते हुए उनके चरण स्पर्श करने लगा। सुरभी का गला भर आया जुग-जुग जियो बेटा। भरत बोले, अरे अमृता मेरी मुंह बोली किन्तु सगी से बढ़कर मेरी बहन आई है। अरे इनका कुछ स्वागत सत्कार तो करो। अमृता का भ्रम लगभग टूट गया था। वास्तव में भरत निर्दोष था, उसकी शंका निराधार थी। ऐसा विचार आते ही उसकी भाव-भंगिमा बदल गई। वह जलपान की व्यवस्था करने के लिए उठी तो श्रुति ने उसका हाथ पकड़ कर बैठाते हुए कहा रुको भाभी भाई के घर आई हूँ, जो भी जरूरी समझूंगी खुद ले लूँगी आपसे छोटी हूँ आपसे सेवा नहीं लूंगी लेकिन अब भैया सर को राखी बांध दूं जिससे बहन को छोड़कर कहीं दूर न भाग सकें और एक चमचमाती हुई कीमती राखी भरत के हाथों में बांध दिया । नौकरानी आरती का थाल लेकर आई, श्रुति ने भाई की आरती उतारते हुए सुरक्षा का वचन लिया और भाभी के गले मिली ।

 जलपान के बाद सुरभी की निगाह पुनः इस फोटो पर पड़ी तो वह भरत से पूंछ बैठी बेटा ये फोटो किसकी है और यहाँ कैसे टंगी है भरत बोला, माताजी, यह हमारे स्वर्गीय पिताजी की है। दुर्भाग्य से जब मैं पांच छः साल का था तो कहीं विदेश दौरे पर गए थे, वहीं उनका एक्सीडेंट में निधन हो गया था। दादाजी तो यही बताते हैं, तुम्हारे दादाजी हैं क्या? हां, वही जिन्हें सब मुंशी कहते हैं, मेरे सगे दादा जी से बढके हैं। वही मेरे माता- पिता भी हैं क्योंकि माँ पहले और थोड़े दिन बाद पिताजी भी नहीं रहे। अब यही मुंशीजी हैं,  जो हमारे सब कुछ हैं। ड्राइवर सारा सामान बैठक में लाया और पीछे से मुँशी जी भी आ गए। सुरभी ने रूंधे गले से फिर पूछा बेटा यदि ये नहीं है तो इनके चित्र पर माला क्यों नहीं ? दादाजी कहते हैं, इनके ऊपर टंगी माला देखकर मुझे बहुत दुख होता है इसलिए टांगने नहीं देते, लेकिन भैया यह तो मेरे पापा की फोटो है क्या तुम्हारे पापा की फोटो है? अरे पगली ये मेरे पापा की फोटो है जो अब इस दुनिया में नहीं हैं। नहीं भैया…. अरे रुको सेठानी जी क्या आप सेठ गोपाल की बेटी हैं? हां, लेकिन आपको कैसे मालूम आपके पति का नाम गिरधारीलाल है? हाँ, पर आपको कैसे मालूम? उनका उत्तर दिए बिना मुंशीजी बोले बेटा भरत यह तुम्हारी सगी सौतेली माँ  और यह तुम्हारी सगी बहन है। श्रुति और सेठानी जी यही आपका सौतेला बेटा भरत है, जिसे आप की शर्त के कारण जीवित पिता को मृत समझकर जीना पड़ रहा है। माता सौतेली ही सही और पिता के रहते ही बच्चों को अनाथ का जीवन- जीना पड़ा। अब तो भेद खुल ही गया था, अब कुछ छिपाने से क्या फायदा?

 मुंशी जी के मुख से सच्चाई सुनकर सब अवाक् थे । सुरभि ने दौड़कर भरत को सीने से लगाकर बोली बेटा तेरे दुखों का कारण मैं हूं, जिसका दंड परमात्मा तो मुझे अशांत जीवन देकर, दे ही रहा है। मुझे जो चाहो दंड दो लेकिन मुझे माफ़ कर दो बेटा मैं तेरी सगी माँ बनकर अपने पापों का प्रायश्चित करना चाहती हूँ। काफी देर तक मिलने की खुशी में रोना-धोना रहा, तभी श्रुति का फ़ोन बजा सेठजी बोले अरे तुम माँ बेटी कहाँ हो? शाम हो चली, अभी तक घर नहीं लौटी। श्रुति से फ़ोन लेकर सुरभी बोली हाँ शेठ जी आप नहीं, मैं अपने घर पहुंची हूँ। हर नारी की इच्छा ससुराल जाने की होती है तो मैं आ गई हूँ। अपनी बेटी के साथ अपने बेटे भरत और बहू अमृता के साथ मंगलदेव निवास पर हूँ। यदि आपको अपने हर परिवार से मोह है तो यहाँ आ जाइए और यदि ससुराल में रहने के आदी हो गए हैं। तो वहीं रहिए यह बात सुनकर। सेठ जी ने ईश्वर को धन्यवाद दिया और आतुरता के साथ मंगलदेव निवास की तरफ निकल पड़े।

 इधर माँ के बाद भरत के गले लगती हुई आंसुओं से भीग गए चेहरों को भरत के सीने पर रगडती हुई श्रुति बोली भैया सर अपनी छोटी बहन को अब न भुलाना, भरत ने उसका गाल थपथपाते हुए कहा अब अगर भैया के साथ सर बोली तो तेरा सर फोड़ दूंगा। द्रवित करने वाले इस माहौल में भी सबके चेहरे पर मुस्कान फैल गई।

लेखक – सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं । प्रकाशित हिंदी उपन्यास रद्दी के पन्ने ।

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