वाघा बॉर्डर से पहली बार

वाघा बॉर्डर से पहली बारimage source meta ai

(विश्व पर्यटन दिवस के अवसर पर विशेष)

अरुणाकर पाण्डेय

अरुणाकर पाण्डेय

चिलचिलाती धूप में वाघा जाने का मतलब होता है पहली या आखिरी बार एक शब्द को जीना जिसे हम पाकिस्तान कहते हैं ठीक उसी तरह जैसे कि जीवन में हम बहुत से शब्द सुनते हैं और कभी एकाध बार ही जान पाते हैं उसके कुछ करीब के अर्थ तो यह युद्ध, क्रिकेट, पठानी, हलवा, कश्मीर या खोये हुए बॉलीवुड, संगीत, मेवे इत्यादि से एक अलग तरह की जगह हो सकती है और यह समझ आते ही कि आप लाहौर से महज चौबीस-एक किलोमीटर दूर भटक रहे हैं खत्म कर देती है उसी चौकन्ने शब्द पाकिस्तान को

उस पार का एक लॉन्ग शॉट देखने के बाद जब आप को याद आता है टी.वी. या इन्टरनेट पर देखा हुआ सैनिकों वाला दरवाजा खोलने या बंद करने का दृश्य तब आप खुद एक यथार्थपरक चिह्न हो जाते हैं क्योंकि वे आपको नज़र भी नहीं आते हैं और आप भीड़ में विलीन हो जाते हैं और भीड़ आप में 

हताश मध्य वर्ग का क्लास-टेस्ट हो जाता है जहाँ वह सही जगह पहुँच कर भी कुछ नहीं देख सकता बस कभी-कभी रह-रह कर राष्ट्रगान  गाता है और उस पार की भीड़ रहित खाली जगहों से नफ़रत नहीं कर पाता और ध्यान से देखता रह जाता है दुरंगी झंडे और मोहम्मद अली जिन्नाह की मिड-शॉट बड़ी तस्वीर को तब जब उन दोनों के बीच में तनातनी का प्रोफ़ेशनल प्रदर्शन हो रहा है 

आभासी यथार्थ की दुनिया से बहुत दूर तनातनी न देख पाने वाली हताश मध्य वर्गी भीड़ एक बहुत बड़ी भीड़ से अपना युद्ध हारने के बाद पेप्सी की शरण में आ गयी है और उस पार से आने वाली गाड़ियों को इस तरह देख रही है कि जैसे उनके धड़ पर सिर नहीं आँख रखी हो जिससे खालीपन का गहन संबंध उजागर होता है 

एक युवा – “मैं अगले साल वीज़ा लेकर जाऊंगा और उस पार से यह सैनिक समारोह देखूंगा” 

दूसरा युवा – “पाकिस्तान का वीज़ा लेने के बाद तुम किसी भी विकसित देश में आसानी से नहीं जा   

           पाओगे” 

पहला युवा चुप हो जाता है और पेप्सी की आखिरी सिप लेकर फिर से भीड़ हो जाता है 

कुछ बूढ़ी और पथरायी आँखें हाथों की छतरी से सारे प्रयास करने के बाद थक गयी हैं और वाघा को बता रही हैं कि यह उनकी आखिरी यात्रा है इससे अनजान कि उसे “बर्लिन वॉल ऑफ़ एशिया” कहते हैं 

लेकिन वाघा है कि धड़कते हुए फुसफुसा रहा है कि उसका कसूर इतना ही है कि वह लाहौर और अमृतसर के ठीक बीच में पड़ता है और सन सैतालीस के पहले के बाद वह दो-तीन बार ही आराम कर पाया है !

(आज विश्व पर्यटन दिवस है । यह कहीं बेहतर होता यदि हम पर्यटन के बजाय विश्व यात्रा दिवस मनाते।ऐसा इसलिए क्योंकि पर्यटन में किसी स्थान को ब्रांड बना देने की क्षमता होती है जबकि यात्रा नितांत आत्मीय होती है और स्थान को एक नया अर्थ देती है जो निश्चय ही संवेदना से परिपूर्ण होता है। सन् 2012 में अमृतसर की यात्रा की थी । तब यह कविता लिखी थी। पहले भी जलियांवाला बाग पर एक कविता कहानीतक पर प्रकाशित हुई थी।यह कविता भी उस कड़ी में ही है : अरुणाकर पाण्डेय)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *