रमेश कुमार मिश्र
रात्रि का समय खुला आसमान नीम का पेड़ उसके नीचे बैठकर मैं बिजली की रोशनी में कुछ पढ़ रहा था, कि एकाएक मेरी निगाह उत्तर दिशा में आसमान की तरफ गयी। सप्त तारा मण्डल एक विशेषाकृति में दिख रहा था। हल्की-हल्की हवा चल रही थी। जिससे नीम की डालियाँ झूम रही थी जो कभी-कभी हमारी दृष्टि और उस तारामण्डल के मध्य आ जाती थीं.जिससे हमारे और उनके बीच में क्षणिक अवरोध उत्पन्न हो जाता था। शायद यह सायास नहीं था अपितु स्वाभाविक प्रक्रिया थी. उस नीम के पेड़ की डालियों की जो हवा के वेग से स्थानापन्न झूम रहीं थीं । चाँद भी उस रात्रि कुछ अजीब सा दिख रहा था। मैं उस चाँद में आज कुछ ढूंढ रहा था पर शायद वह आज कैसा न दिख रहा था जैसा मैं अपने बीते जीवन काल से उसे देखता आ रहा था। परिवर्तन उसमें था या मुझमे में सोचने लगा। निष्कर्ष ढ़ूढ़ने का प्रयास मुझे इधर-उधर की बातें याद दिलाने लगा। पर मैं किसी खास निर्णय तक पहुंचने में अक्षम रहा। वही चाँद जो मुझे प्रतिदिन प्यारा सा प्रकृति का अद्भुत सौन्दर्य दिखता था आज मुझे निर्जीव उल्का पिण्ड दिख रहा था। यह एकाएक इतना परिवर्तन मुझमें शायद एक निष्कर्ष के इर्द -गिर्द पंहुचाने में सक्षम हुआ. कुछ दिन पहले मैं एक शहर में गया हुआ था। शहर मेरा पुराना परिचित था. उससे पहले भी मैं उस शहर में कुछ दिन विता चुका था। कुछ सगे-सम्बंधी परिचित रह रहे थे। शहरी जीवन सभी अपने-अपने में व्यस्त रोजी-रोटी की जुगाड़ में दिन रात लगे रहते थे। कोई सम्बंधी तो भार जैसा स्वीकार होता था। खैर सबकी अपनी-अपनी मजबूरियाँ थीं । एकाकी पन से दूर मैं नित प्रतिदिन एक पार्क में जाने लगा। पार्क में खिले पुष्प और वहाँ की हरियाली मुझे बहुत पसंद थीं. पार्क जाने के दो फायदे थे एक तो हरियाली और फूलों से मिलना उनसे बात करना.और कुछ नये लोगों से पहचान बनान । लेकिन यहाँ शुरुआत में कुछ समस्या भी झेलनी पड़ी कि पहले तो कोई वहाँ भाव न दिया परन्तु कुछ दिन की लगातार उपस्थिति ने कुछ लोगों में विश्वासपैदा कर दिया कि आदमी ठीक है .
पार्क में अधिकतर बुर्जुग लोग ही मिलते थे। बेचारे पूरी जिन्दगी पसीना बहा-बहाकर पैसे कमाकर बच्चों को पढ़ाये लिखाए । उन्हें उस लायक बनाये कि वे साहब बन गये। परन्तु साहब तो वे जरूर बन गये लेकिन केवल शासन- प्रशासन के ही नहीं अपने बूढ़े माँ-बाप के भी। तभी तो ये बूढ़े – बाबा लेग इतनी दुःख भरी दास्ताँ की डेहरी बन गये थे। मैं जाता रहा परिचय बढ़ता गया। कभी-कभी बुर्जुगों के अलावा इक्का-दुक्का नव जवान युवक-युवतियों के दर्शन भी हो जाते थे। जो शायद परस्पर एक दूसरे के दोस्त होते रहे होंगे । खैर मैं उनसे दूर से ही हाय! हलो ! कर लेता था। मै उनके बीच जा उन्हें और भी भयाक्रांत नहीं करना चाहता था. क्योंकि वे हमेशा सहमे – सहमे से ही दिखते थे। अच्छा लगता था। इस शहर के नक्शे कदम पर मैं भी चलता था। किसी को मेरे वजह से दु:ख हो मैं न चाहता था. एक दिन मेरे पास कोई काम न था मैं दोपहर पार्क जा पहुचा। एक साहब बेंच पर सिर नीचे किए हुए बैठे हुए थे। जिन्हें मैं बहुत बार वहाँ उस पार्क में उनकी जोड़ी के साथ देख चुका था । आज पार्क में दो चार लोगों के अलावा और कोई न था। मैं भी उसी बेंच पर उन्हीं के बगल में बैठ गया। कुछ देर बाद उन्होंने सिर ऊपर किया । उनका चेहरा सहमा हुआ था. कुछ देर तक मुझे निराश भाव से देखते रहे. कुछ देर बाद मैंने उनसे पूछा क्या मित्र आज आप कुछ अस्वस्थ दिख रहे हैं. उन्होंने उत्तर न दिया. मैं शांत हो गया. शहर में किसी से बिना वजह कुछ पूछना भी खतरे से खाली नहीं. फिर शान्ति दोनों तरफ छा गयी. कुछ देर बाद उन्होंने कहा आप कुछ पूछ रहे थे. तब मुझे लगा कि साहब की तंद्रा टूट चुकी है बात करने का अवसर मिल गया. मैंने पूछा आज आपकी तवियत कुछ ठीक नहीं दिख रही है. आप शान्त एवं निराश दिख रहे हैं. क्षमा करें मैंने आपका नाम भी नहीं पूछा. कुछ देर तक मुझे अनमने भाव से देखते रहे. फिर बोले राजीव नाम है. अस्वस्थ तो हूँ पर शारीरिक नहीं बल्कि मानसिक, परंतु आप आगे कुछ न पूछें. तो अच्छा होगा. मैं बिल्कुल चुप रह गया. कुछ समय पश्चात उन्होंने मुझसे कहा आप क्या करते हैं? आप प्रतिदिन यहीं घूमते रहते हैं . मैंने कुछ देर उत्तर न दिया फिर मैंने कहा कुछ थोड़ा बहुत लेखन करता हूँ. कुछ प्रकृति से कुछ मानव से कुछ पक्षी थोड़ा बहुत लेखन करता हूँ. क
राजीव जी की आंखों में आंसू आ गए. वे बोल पड़े मित्र आप तो बहुत भाग्यशाली हैं जो लेखक हुए. लेखक ही है जो सबके दु:खों से जुड़कर अपना दुख बना लेते हैं तथा उसे कविता या कहानी का रूप दे देते हैं. अब आप से ही अपना व्यथा सुनाता हूँ. शायद कुछ मन हल्का हो जाए.
मैं भी इस शहर में कुछ दिन पहले आया हूँ. शिक्षा मेरा उद्देश्य रहा है. इसी बीच में हमारे कुछ नये मित्र बन गए. जिनसे मैं आत्मीय रूप से जुड़ गया. दोस्ती को मैं बहुत पवित्र रिश्ता मानता हूँ. यही तो एक संबंध है जो किसी लेन देन बांट बंटवारे से इतर है.यह दो भावनाओं का मृदुल संगम है. जहाँ आत्मीय विश्वास बहुत महत्वपूर्ण है जो एक एहसास एक उत्साह एवं मानवीयता को प्रतिपादित करता है.यह एक ऐसा संबंध है जो नि: स्वार्थ होता है. यही समझ हमारी आज तक दोस्ती शब्द के प्रति बन पारी है. परंतु क्या कहूँ मित्र आज मानव तो सिर्फ भावनाओं का सौदा करता है. जिसमें वह अपने स्वाभिमान एवं आदर्शो को सर्वोपरि रखता है. सामने वाले की भावनाएं किस हद तक आहत हो जाएंगी उसे इस बात से कोई मतलब नहीं. सबसे ज्यादा दुःख तो तब होता है जबकि किसी गलतफहमी का शिकार होकर मानव एक दूसरे पर इल्जाम ठोंक देता है. अपने व्यक्तित्व एवं कथन का मूल्यांकन किए बगैर यह मानवीय सभ्यता का उत्कर्ष नहीं तो और क्या हो सकता है. शहरीय जिंदगी में वैसे अपने तो पराए होते ही हैं और जो भावनात्मक धरातल पर जुड़ते हैं वे भी भावनाओं का मजाक उड़ाते हैं. जिसमें किसी से कुछ लेन देन का भाव नहीं होता है. श्रेष्ठता और कनिष्ठता से परे संबंधों का उच्चादर्श होता है. यहाँ धन दौलत जैसे शब्दों का कोई मायने नहीं होता है. ये सारी वस्तुएं भौतिक और नश्वर हैं परंतु यह संबंध संसार के सभी संबधों में श्रेष्ठ है. क्योंकि नि: स्वार्थता के धरातल पर इसका भवन खड़ा होता है. इसमें जहाँ भी स्वार्थ रूपी घुन लगता है लगा कि फिर दोस्ती के मायने ही बदल जाते हैं. आज मैं किसी ऐसे दोस्त द्वारा ठगा गया हूँ. जो मुझे अपना सबसे अच्छा दोस्त कहा करता था और मैं भी. परंतु उसने संबंधों को इतने हल्के ढंग से लिया कि हत प्रभ रह गए. मेरे लाख अनुनय विनय के पश्चात वह मुझसे अपनी जिद पर अड़ा रहा. मर्यादा की सारी सीमाएं लांघकर उसने मुझे अपमानित तक कर दिया जबकि वह मुझसे उम्र में काफी छोटा है. क्षमा और उत्पात में कुछ धरातलीय फर्क है. सृष्टि के आदिकाल से ही क्षमा करने वाले से श्रेष्ठ क्षमा मांगने वाला होता है. क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात की छूट में यदि छोटे अपनी मर्यादा भूलकर व्यवहार करने लगें और बार बार समझाने के बाद भी यही करें तो फिर आप क्या कहेंगे? दोस्ती भाव है जो लिप्सा रहित है. अब कौन उस नादान दोस्त को समझाए कि तुम जिसे दुश्मन समझ रहे असल में वही तुम्हारा असली दोस्त है. छोटा बड़ा अमीर गरीब ऊंच नीच मित्रता इन सबसे परे है. सच्ची मित्रता तो वह गंगाजल है जिसमें गलतफहमी के कीड़े कभी नहीं लगते हैं . उदार मन की चंचल गति है मित्रता तो समझदार मन का ब्रह्म ज्ञान है मित्रता. क्रोध से परे है मित्रता है लोभ से कोसों दूर है मित्रता. एक दूसरे के सीने की धड़कन है मित्रता एक दूसरे की पूरी सांस है मित्रता. धन से अनमोल है धर्म का भाग है देवत्व की गुरुता है और विस्वास की मलाई है तोली जाती नहीं, न बेंच कर दी जा सकती है न खरीदकर ली जा सकती है. यह संयोग का वरदान है. रोग का निदान है . धनों में सबसे श्रेष्ठ है. धर्म का मूलाधार है और धर्म ध्वजा का प्रतीक है.अहम का शमन है और संतोष की पराकाष्ठा भी यही है. इसलिए मित्रता का अतुल्य है. इसे कभी बेवफा कहकर बदनाम करना… पुरानी यादों में उस बंधु की बातों पर पुरुआ हवा के बीच सरपट कलम दौड़ ही रही थी कि घर के अंदर से आवाज आयी भोजन तैयार है आकर भोजन कर लीजिए और मैं डायरी का पन्ना बंद करके भोजन करने चला गया. इहलौकिकता में शरीर का मित्र भोजन है और आध्यात्मिकता में मन का मित्र भक्ति और ज्ञान.
रचनाकार – एम. ए. हिंदी व पी जी हिंदी पत्रकारिकता डिप्लोमा दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली से हैं.