कुरु वंश की जननी सूर्य कन्या तपती ,पौरव वंशी महाराज संवरण की पत्नी थीं।
ठाकुर प्रसाद मिश्र
पूर्व काल की बात है,हिमालय का कुछ दुर्गम क्षेत्र देवराज इन्द्र के नियंत्रण में था।अतः देव गण, देव कन्याएं, अप्सराएँ अक्सर देव लोक से चलकर उन स्थलों पर भ्रमण करने आया करते थे ।
एक समय भगवान सूर्यदेव एवं उनकी पत्नी छाया से उत्पन्न उनकी पुत्री तपती हिमालय के इस क्षेत्र के भ्रमण पर थी । उसके शरीर से सौंदर्य की दिव्य आभा फूट रही थी । उसके दैहिक प्रकाश से हिमालय का वह एकांत प्रांत जगमग हो रहा था ।
यह संयोग या दैव योग ही कहा जाएगा कि पौरववंशी महाप्रतापी राजा संवरण आखेट के उद्देश्य से उस पर्वत भाग के निकट के जंगल में पहुंचे थे। एकाएक उस पर्वत प्रांत से उठते दिव्य प्रकाश से वे आकर्षित हुए, और अकेले ही अपना अश्व उस दिशा में बढाते हुए आगे निकल गए। सैन्य दल काफी पीछे छूट गया । प्रकाश के निकट पहुंच कर इन्होंने अश्व को वहीं छोड पैदल ही चढाई चढते हुए उस प्रकाश पुंज के निकट पहुंच गए । वहां उन्होंने एक दुर्लभ नारी स्वरूप को देखा , जो निश्चित तौर पर भू मंडल पर बसने वाली नारियों के सुंदर स्वरूप के लिए अकल्पनीय था । मंत्रमुग्ध से राजा ने उस छवि को अंक में भर लेना चाहा किंतु उसके निकट पहुंचते ही वह नारी छवि मुक्त हास करते हुए वहां से अदृश्य होकर अपने लोक चली गयी ।यह देख महराज स्तब्ध रह गये ।उन्हें लगा उनकी प्राण शक्ति ने उनका त्याग कर दिया ।वियोग की महादशा को प्राप्त महाराज अचेत होकर वही जमीन पर गिर गए।
एकायक साथ छोडकर आगे निकल गए महाराज की खोज करता सैन्य दल काफी समय इधर-उधर भटकने के बाद अकेले चर रहे घोडे के पास पहुंचा तो महाराज को वहां न पाकर परेशान हो गये। किसी अनिष्ट की आशंका से सैन्य-दल ने आस-पास तलाशना शुरू किया, फिर पर्वत पर ऊपर जाते हुए वर्फ पर निशान पैरों के निशान के आधार पर वे ऊपर बढे । कुछ दूर आगे जाकर उन्हें अचेत अवस्था में महाराज जमीन पर पडे मिले। सैनिकों के अथक प्रयास के बाद भी जब महाराज की चेतना वापस नहीं लौटी तो उसी पर्वत के पद प्रदेश के आश्रम में निवास करने वाले राजा के गुरू भगवान वशिष्ठ पास गए। भगवान वशिष्ठ सेवकों के साथ स्थल पर पहुंचे और अभिमंत्रित जल छिडक कर राजा को मूर्छा से बाहर लाए । चेत होने के बाद भी राजा की मनः स्थिति स्थिर नहीं थी । वे अत्यंत दुःखी दिखे । जब मुनिवर ने उनसे उनकी इस दशा का कारण पूछा तो महाराज ने गुरू को प्रणाम कर अपनी सारी आप बीती सुनायी और कहा कि गुरुदेव मैं अपने मन के हाथों पराजित हो चुका हूं और अब बिना उस सुंदरी के मेरा जीवन संभव नहीं है। राजा की यह दशा देख मुनिवर को चिंता हुई , उन्होंने जब सुंदरी के बारे में और कुछ जानना चाहा तो राजा ने अनभिज्ञता जताई । अतः ऋषिवर ने ध्यान लगाकर देखा तो पता चला कि वह तो भगवान सूर्य एवं उनकी पत्नी छाया से उत्पन्न उनकी पुत्री तपती है।जिसका मृत्यु लोक में आना कठिन है। फिर भी राजा के ऊपर अनुग्रह करते हुए महर्षि ने कहा राजन अब आप शोक का त्याग करके प्रसन्न चित् हों मैं आपके अभीष्ट के लिए प्रयत्न करता हूं। ऐसा कहकर महर्षि ने योग बल से शरीर को साधा,और मन की गति से आकाश मार्ग से उड चले । उनके उडने के समय उनके शरीर से निकलने वाली ऊर्जा की चिंगारियां दिव्य एवं अचिन्त्य दृश्य उपस्थित कर रहीं थीं।
सूर्य लोक पहुंचकर उन्होंने भगवान भाष्कर से मुलाकात की और आतिथ्य ग्रहण करने के बाद महाराज संवरण एवं तपती के संबंध पर चर्चा की ।भगवान सूर्य ने तपती की इच्छा जानी, जो भू लोक छोडते समय राजा को देखकर स्वयं आकर्षित हुई थी। उसकी हां मिलते ही भगवान सूर्य ने तपती को वशिष्ठ के हवाले कर दिया । अत्यंत प्रसन्नता के साथ मुनिवर तपती को संग ले राजा के पास पंहुचे । तपती को प्राप्त कर राजा गुरुदेव के चरणों में गिर पडे। एवं तपती के संग अपनी राजधानी हस्तिनापुर लौट आए। तपती एवं संवरण के पुत्र महाराज कुरु हुए। इसी वंश परंपरा में (देवब्रत) भीष्म का जन्म हुआ था। तपती की प्रमाणिकता के लिए गीता का उपदेश देते हुए भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को तपती नंदन कहकर संबोधित करना भी है। सूर्य पुत्री होने के कारण तपती कालिन्दी एवं यमराज की बहन है।
आज यह पृथ्वी पर नदी के रूप में मध्य प्रदेश की सतपुडा की पहाडियों के वैतूल जिले के मुल्ताई नामक स्थान से निकलती है। ताप्ती का प्रवाह पशिच्म तरफ नर्मदा की ही तरह है।इसमें अनेक अति गहरे कुंड हैं।श्राद्ध पक्ष में इसके किनारे किया गया पितरों का तर्पण अति पवित्र माना जाता है। इसके किनारे पर भगवान सूर्य के परिवार का मंदिर भी है ।