प्रेमचंद जी की पुण्यतिथि के अवसर पर विशेष 

प्रेमचंद जी की पुण्यतिथि के अवसर पर विशेष 

उनकी स्मृति – ‘हंस’ आज भी जीवित है, परन्तु ‘हंस’ का वह मोती कहाॅ‌ ?”

अरुणाकर पाण्डेय

ये उद्गार कथा सम्राट प्रेमचंद जी की पत्नी श्रीमती शिवरानी देवी द्वारा उनके देहावसान के बाद व्यक्त किए गए हैं। वे स्वयं एक उत्कृष्ट लेखिका थीं जिन्होंने अपने समय यानी कि परतंत्र भारत के दौर में स्त्री विषयक कहानियां लिखी थी।उनमें से एक कहानी ‘नर्स’  हंस के काशी विशेषांक में सन् 1933 में प्रकाशित भी हुई थी।

इन्हीं शिवरानी देवी ने प्रेमचंद जी को जिस पीड़ा से अपने लेख में याद किया है,वह बहुत मार्मिक है । उस लेख के अंत में उन्होंने अपना जो परिचय दिया है उसमें लिखा है – शोकग्रस्ता, *उनकी दासी रानी*! 

यह छोटा लेख यह बता देता है कि प्रेमचंद जी और शिवरानी देवी जी में पति और पत्नी का संबंध बहुत प्रगाढ़ था और वे एकदूसरे का सम्मान सिर्फ अपने रिश्ते के कारण ही नहीं करते थे बल्कि लेखक होने के कारण भी करते थे । वे प्रेमचंद जी को अपना विनीत मित्र लिखती हैं जो बताता है कि वे उनके साथ एक उन्मुक्तता का अनुभव करती रही होंगी। वे यह भी विनम्रतापूर्वक लिखती हैं कि उनमें कोई गुण नहीं था लेकिन फिर भी प्रेमचंद जी ने उन्हें पर्याप्त प्रेम और सम्मान देकर अपने हृदय के *”ऊंचे से ऊंचे आसन पर बैठाया।”*

यह बहुत बड़ी बात है जिससे यह सिद्ध होता है कि प्रेमचंद जी संबंधों और विशेषकर स्त्री का सम्मान किया करते थे जो उनके व्यक्तित्व को और भी अनुकरणीय बनाती है। उन्होंने अपने लिखे साहित्य में स्त्रियों को जैसे जगह दी है,वैसे ही अपने जीवन में भी दी है । यह भी प्रतीत होता है कि प्रेमचंद जी हंसमुख मिजाज के व्यक्ति रहे होंगे क्योंकि शिवरानी देवी जी ने उनके जाने के बाद उसे बहुत याद किया है । वे लिखती हैं 

“आज इस घर में उनका सरल हास्य नहीं ; उनकी सम्पादकीय चौकी खाली है। यों तो सब कुछ है; परन्तु सब होते हुए भी कुछ नहीं है ।आज मेरे ईश्वर नहीं हैं । मैं अपना सब कुछ त्याग कर भी उन्हें बचाना चाहती थी, परन्तु मैं कुछ नहीं कर सकी ! मनुष्य का प्रयत्न इतना तुच्छ है,इसका आज मैं दुःखद अनुभव कर रही हूं।

उनकी स्मृति – ‘हंस ‘ आज भी जीवित है, परन्तु हंस का वह मोती कहाॅं ? शायद मैं इसीलिए जीवित हूं कि मेरे देवता जिस छोटे से पौधे को छोड़ गए हैं,उसको मैं हृदय के खून से सींच कर बड़ा कर जाऊं।”

आज जीवन की आपाधापी, रोजगार के दबाव और सांस्कृतिक दुराव के कारण यह अक्सर देखने को मिलता है कि किसी रचनाकार,लेखक या कलाकार को उसका अपना परिवार और समाज वह सम्मान नहीं दे पाता जिसका वह हकदार होता है । बहुत से महत्त्वपूर्ण लेखक,रचनाकार अब भुला दिए गए हैं जिन्होंने  ऐतिहासिक महत्व का साहित्यिक योगदान दिया है। लेकिन शिवरानी देवी जी के इस कथन से ज्ञात होता है कि उनके रचनाकर्म को बाहर की दुनिया के अलावा भी उनके घर के लोगों और बाद की पीढ़ियों ने भी सजो कर रखा । यह कोशिश जारी रहनी चाहिए। यह प्रेमचंद जी की पुण्यतिथि पर एक जरूरी संदेश है

लेखक – दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली में हिंदी के प्राध्यापक हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *