यह कथा सृष्टि के प्रारंभिक काल की है। जिसे भगवान श्रीराम ने अपने भाई वीरवर लक्ष्मण के कुतूहल को शांत करने हेतु सुनाई थी।
आदिकाल में प्रथम मानव महाराज मनु की तीसरी पीढ़ी में उत्पन्न हुए महाराज निमि के बारे में है। जो श्री मनु के पुत्र महाराज इक्ष्वाकु के पुत्र थे। महाराज इक्ष्वाकु के सौ पुत्रों में तृतीय महाराज निमि ने अपनी राजधानी हिमालय के अति निकट पर्वतीय पाद प्रदेश में बसाई। जिसका नाम रखा वैजयंत। यह नगर महर्षि गौतम के आश्रम के निकट था। पराक्रमी महाराज निमि का यश चारों दिशाओं में फैला था। एक बार महाराज निमि पिता की प्रसन्नता के लिए उनकी अनुमति से एक महायज्ञ का आयोजन किया। जो पाँच ह़जार वर्षों तक चलने वाला था। इसके लिए सबसे पहले महर्षि श्रेष्ठ वशिष्ठ को यज्ञ होत्र के लिए वरण किया तथा अत्रि, अंगिरा एवं भृगु आदि ऋषियों को भी आमंत्रित किया।
महर्षि वशिष्ठ ने महाराज निमि से कहा कि राजन अभी हमें महाराज इंद्र ने वरण किया है, उनका यज्ञ थोड़े समय में पूर्ण हो जाएगा, उसके बाद इस यज्ञ का प्रारंभ होगा। तब तक आप मेरी प्रतीक्षा करें। मैं शीघ्र ही वापस आजाऊंगा। ऐसा कहकर महर्षि इंद्रलोक चले गए। वशिष्ठजी के वापस आने में विलंब देख महाराज निमि ने महर्षि गौतम को वरण कर लिया और यज्ञ कार्य प्रारंभ करवा दिया गया।
इन्द्र का यज्ञ समाप्त होने पर जब महर्षि वशिष्ठ वापस आए तो गौतम के नेतृत्व में यज्ञ होता देख उन्हें बड़ा क्षोभ हुआ और वे कुपित हो गए। अतः महाराज से मिलने उनके भवन पर गए और उनसे से मिलना चाहा। लेकिन राजा उस समय महल में सो रहे थे जब देर तक राजा मिलने नहीं आए तो कुपित महर्षि ने उन्हें वायु के माध्यम से ही शाप दे दिया। कि हे राजन् आपने वरण किए पुरोहित को छोड़कर अन्य पुरोहित को वरण करके जो यज्ञ संचालन का अपराध किया है, जाओ तुम्हारा यह शरीर अभी छूट जाएगा। मुनिवर की भीषण बाणी जब अंतःपुर में शयनं करते महाराज के कानों में पहुंची तो वे उठकर बाहर आए। और अपने मिले शाप के कारण रोष में भर गए। उन्होंने कहा, ऋषिवर आपके आगमन के बारे में मुझे कोई पूर्व सूचना नहीं थी। अन्यथा मैं शयन करने ही नहीं जाता । मेरे इस अपराध पर आप जैसे ज्ञानी ऋषि द्वारा शाप देना कतई उचित नहीं है। अतः जो शाप आपने मुझे दिया है वैसा ही शाप मैं भी आपको देता हूँ। आप भी अपने इस सुंदर दैदीप्यमान शरीर का त्याग कर दें। इस आपसी शाप से महाराज एवं ऋषिवर दोनों का शरीर तत्काल छूट गया। इन दोनों की आत्माएं शरीर ना होने के कारण वायु रूप में आकाश में विचरण करने लगी। बिना शरीर के कोई क्रिया संभव नहीं थी, अतः दोनों निराशा में डूब गए। राजा के शरीर छोड़ने पर यज्ञ कार्य सम्पन्न करने के लिए ब्राह्मणों ने स्वयं यजमान की दीक्षा लेकर यज्ञ कार्यक्रम को आगे बढ़ाया ,और उनके शरीर को नवका बनवाकर उसमें घृत तेल भरवाकर उसमें रखकर सुरक्षित कर दिया।
इधर शरीर छूटने से तमाम धर्म कर्म ना हो पाने के कारण वशिष्ठ जी की प्राण वायु ब्रह्मा जी के पास पहुंची। और शरीर के लिए पिता से प्रार्थना किया। ब्रह्मा जी ने इनसे कहा कि तुम वरुण जी के वीर्य में समाहित होकर अयोनिज शरीर ग्रहण करो, मैं तुम्हें पहले ही की तरह अपने पुत्र के रूप में स्वीकार कर लूँगा और तुम्हारी सारी शक्तियां तुम हमें सुरक्षित रहेंगी। वशिष्ठजी ब्रह्मधाम से पिता की आज्ञा पाकर वापस आ गए।
जिस समय यह घटनाक्रम चल रहा था। उस समय लोक संचालन का कार्य मित्र देव एवं वरुणदेव साथ रहकर कर रहे थे। एक दिन की बात है ,स्वर्ग की अतिसुंदर अप्सरा उर्वशी अपनी सखियों के साथ आकर क्षीरसागर में जल क्रीड़ा करती हुए स्नान करने लगी। उसे देखकर उसके रूप लावण्य एवं मनोहरता पर मोहित हुए वरुण देव ने उससे समागम की इच्छा प्रकट की। तब उस उर्वशी ने वरुण देव से कहा प्रभु आप से पहले मित्र देवता मेरा वरण कर चुके हैं। अतः मैं आपकी समागम की इच्छा पूरी नहीं कर सकती। इस बात को सुनकर वरुण जो अत्यंत काम पीड़ित थे ने कहा सुंदरी यदि तुम ऐसा नहीं कर सकती तो कोई बात नहीं मैं तुम्हें लक्ष्य करके अपना तेज इस निकट रखे देव निर्मित कुंभ में डालकर ही सफल मनोरथ हो जाऊंगा। उर्वशी ने प्रसन्नता पूर्वक ऐसा करने के लिए उन्हें अनुमति दे दी। और वरुण देव ने अपना तेज (वीर्य) उस कुंभ में स्थापित कर दिया इसके बाद उर्वशी मित्र देवता के पास पहुंची। उसे देखते ही मित्र देवता ने उसे शाप दे दिया और बोले दुष्टे मेरे वर्णन करने के बाद भी तुम दूसरे व्यक्ति की पत्नी बनने गयी, अतः जा मृत्युलोक में किसी व्यक्ति से विवाह करके कुछ समय तक स्वर्ग सुख से वंचित होकर सौ साल बाद शाप की अवधि पूर्ण होने पर पुनः स्वर्ग वापस आ जाना। अतः वह पृथ्वी लोक पर आई और महाराज पुरुरवा से विवाह किया। जो पुरु वंश के आिद पुरखा थे।
इधर उस देव निर्मित घट में मित्र एवं योग वरुण दोनों का तेज स्थापित होने के बाद उसे घट से दो ब्राह्मण कुमारों का प्रकटीकरण हुआ। पहले अगस्त्य एवं दूसरे वशिष्ठ अगस्त्य तप हेतु जंगल चले गए और वशिष्ठ के प्रकट होते ही उन्हें सर्व गुणों से संपन्न देखकर और अपने कुल के लिए हितकारी मानकर उन्हें तुरंत अपने पुरोहित के रूप में महाराज इक्ष्वाकु ने निर्धारण कर लिया।
इधर जब महाराज निमि द्वारा प्रारंभ किया हुआ यज्ञ ब्राह्मणों के देख -रेख में संपन्न हुआ तो समस्त देवगण अत्यंत प्रसन्न हुए। वे सब सदेह वहाँ उपस्थित हुए और वायु शरीरधारी महाराज निमि से वरदान मांगने को कहा उन देवताओं ने उनसे कहा कि यदि आपकी इच्छा हो तो हम पुनः आपकी आत्मा को, आपके शरीर में स्थापित कर दें। लेकिन महाराज निमि इसके लिए तैयार नहीं हुए। उन्होंने कहा कि यदि आप लोग हमें वरदान देना ही चाहते हैं तो हमें हर प्राणी के नेत्रों में निवास करने का वरदान दें। इस पर सभी देवताओं ने उन्हें वायु रूप में हर प्राणी के नेत्रों में सदा संचरण करने का वरदान देते हुए कहा कि अब से आप सभी प्राणियों के नेतृत्व में सदा उपस्थित रहेंगे। और हमेशागतिमान रहने के कारण जब आपको थकावट आएगी तो प्राणियों के द्वारा पलकें झपकाने पर आपको विश्राम मिलता रहेगा।
वरदान देकर जब देवता चले गए तो ब्राह्मणों एवं ऋषियों ने देखा कि राजा का कोई वंशधर नहीं है तो उन्होंने राजा के शरीर को तेल से बाहर निकाला और उस पर यज्ञ अरणि रखकर मंत्र पढते हुए तीव्र गति से उनके शरीर को मथने लगे। कुछ काल के तीव्र मंथन के बाद उस शरीर से एक काला कलूटा विकराल व्यक्ति निकला जिस् ऋषियों ने निषद कहकर पुकारा और उसे क्रूर कर्मा निषाद के रूप में संबोधित किया । उसके बाद उस शरीर से एक छोटी आंखें छोटे बाल और भयानक चेहरे वाली स्त्री पैदा हुई जिसे ऋषियों ने सभी प्रणियों का अंत करने वाली मृत्यु नाम दिया और उसे यमराज के आधीन कर दिया । तीसरी बार मंथन के कारण एक अत्यंत तेजवान बालक उत्पन्न हुआ। मंथन के कारण उत्पन्न बालक का नाम मिथि हुआ इस अद्भुत ढंग से अपने ही शरीर से उत्पन्न वह बालक जनक कहलाया । और क्योंकि उनका वह शरीर मृतक था अतः जीव रहित शरीर से प्रकट होने के कारण वे वैदेह भी कहलाए। इस तरह महातेजस्वी विदेहराज का प्रथम नाम मिथि हुआ। प्रथम नाम मिथि के अनुसार जनक परंपरा में उत्पन्न होने वाले मिथि बंशी राजा मैथिल कहलाए आए और जनक वंश मैथिल राज्य का शासक कहलाया।
भगवान श्रीराम द्वारा अपने अनुज की प्रसन्नता के लिए सुनाया गया यह आख्यान श्री लक्ष्मणजी की तरह ही हम सब के लिए मोद कारक बने।
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लेखक – सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं । प्रकाशित हिंदी उपन्यास रद्दी के पन्ने ।