अरुणाकर पाण्डेय
कई बार जीवन में ईर्ष्या वश बहुत कठिन अनुभव होते हैं। जब कभी ऐसा होता है कि एक योग्य व्यक्ति अपने स्वयं के बल पर कुछ महत्वपूर्ण पद,प्रतिष्ठा अथवा धन इत्यादि प्राप्त करता है तब उसके आसपास के लोग उससे बेहद ईर्ष्या करने लगते हैं और उसके बारे में अनर्गल प्रलाप खूब जम कर करते हैं। वे इस बात को नहीं मानते कि वह व्यक्ति उनसे किसी न किसी गुण में बहुत आगे था,इसलिए उनसे कुछ अलग कर पाया। वे तो इसे स्वीकार ही नहीं कर पाते कि अमुक में कुछ गहरी विशेषताएं थीं। बहुधा अब तो यह भी देखने को मिलता है कि ईर्ष्या के वश में और किसी की योग्यता के डर के कारण भी बहुत लोग मिलकर एक योग्य को निपटाने का खेल राजनीति,सिनेमा,खेल और न जाने ऐसे कितने अन्य क्षेत्रों में लोग करने लगे हैं। स्वाभाविक है कि यह बहुत ही शर्मनाक स्थिति होती है क्योंकि इससे बहुत से कर्मठ लोगों का मन टूटने लगता है और बेहतर होने के बावजूद भी वे गुमनाम हो जाते हैं और कई बार तो इतने उत्पीड़ित भी हो जाते हैं कि जीवन को नमस्कार कर दूसरी दुनिया का रुख कर लेते हैं। इसमें समस्या यह है कि समूचे समाज को एक साथ कोई सजा नहीं देखने में आती । ऐसे में साहित्य शिक्षक का बेहतरीन काम करता है ।
उदाहरण के लिए संत कबीरदास का यह दोहा है जो हमें यह बता रहा है कि ऐसी स्थिति में हमें कैसे जीना चाहिए और इस निर्मम उत्पीड़न से कैसे मानसिक रूप से बचा जा सकता है । दोहा है
हस्ति चढ़िए ज्ञान की
सहज दुलीचा डारि ।
स्वान रूप संसार है
भूकन दे झक मारि ।।
यह कबीरदास जी का दोहा है जिसमें वे ज्ञान का महत्व बता रहे हैं। उनके अनुसार ज्ञान रूपी हाथी पर दुलीचा (बैठने की सुंदर व्यवस्था/कपड़ा/डोली) डाल कर जीवन की यात्रा करनी चाहिए ।इस तरह कुत्ते की तरह भौकने वाले संसार की परवाह नही करते हुए अपनी यात्रा पर आगे बढ़ना चाहिए और अपने लक्ष्य को प्राप्त करना चाहिए।
संदेश वही है कि अपने स्वभाव के अनुसार अपने कर्म करते हुए मस्त रहना चाहिए और ऐसे किसी की परवाह नहीं करनी चाहिए जिसे आपके जीवन,चरित्र और कर्म की कोई समझ न हो । यदि ऐसा हो गया तो वह ईर्ष्या से झुलसता हुआ समाज एक श्रमिक के आगे स्वयं ही मानसिक रूप से कमजोर होता चला जाएगा ।
लेखक – दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली में हिंदी के प्राध्यापक हैं।