सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविता सौन्दर्य-बोध

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प्रसिद्ध हिंदी कवि सर्वेश्वरदयाल सक्सेना जी की जयंती पर विशेष

अरुणाकर पाण्डेय

अरुणाकर पाण्डेय

हम किसे सुन्दर समझते हैं और किसे नहीं यह बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है कि हम कैसे चीजों को
देखने का अभ्यस्त होते हैं | लेकिन बहुधा ऐसा होता है कि हमारे सौन्दर्य बोध को हमारे आदर्श और
फिर दूसरे संस्थान जैसे कि परिवार,बाजार, हमारे स्कूल,विश्वविद्यालय यहाँ तक कि सड़कें,यात्राएँ और
मीडिया भी निर्मित करते हैं और नियंत्रित भी करते हैं | इसलिए यह कहा जा सकता है कि सौन्दर्य-बोध
का भी एक इतिहास हो सकता है | वह इतिहास समय के साथ बनता है इसलिए रचनाओं में भी उसके
अलग-अलग रूप दिखते हैं | लेकिन यहाँ जिस सौन्दर्य-बोध की बात की जा रही है वह सर्वेश्वर जी की
अपनी खोज है यानी एक कविता में वह बहते हुए मिलती है एक नदी की तरह, जीवन के अनुभव से
प्राप्त ! यह सौन्दर्य बोध बहुत कुछ उस बोध के समांतर खड़ा है जो हमें यहाँ ऊपर लिखे हुए संस्थानों
से मिलता है | बल्कि कहना यह चाहिए कि सर्वेश्वरजी की यह कविता सीधे इन संस्थानों से प्राप्त
सौन्दर्य-बोध की पोल खोल देती है |

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविता सौन्दर्य-बोध
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‘सौन्दर्य-बोध’ कविता के पहले छंद में वे कहते हैं कि यदि आप अपने छोटे बच्चे को लेकर सीधे भीख
मांगेंगे तो आपकी विवशता देखने कोई नहीं रुकेगा लेकिन यदि आप उस बच्चे के पैरों में शहतीर बाँध
कर उसे बीच चौराहे पर खड़ा कर देंगे तो और चुपचाप ढोल बजायेंगे तो कौतूहल वश लोग उसे देखने
जरुर रुक जायेंगे | अर्थात् विवशता से पेट नहीं पलता लेकिन कौतूहल से पलता है | क्या यह बात आज
की मार्केटिंग स्किल की तरह लागू नहीं होती ! लेकिन यहाँ यह समझना जरुरी है कि यह एक व्यंग्य है,
मात्र कोई नुस्खा नहीं | वे कहना चाह रहे हैं कि दुनिया के यानी हमारे सौन्दर्य-बोध में विवशता या
बेचारगी के लिए अब कोई जगह नहीं है बल्कि कौतूहल उसकी प्रिय वस्तु है | उन्होंने लिखा है
दुनिया विवशता नहीं
कुतूहल खरीदती है
इसके बाद वे कहते हैं कि एक भूखी बिल्ली को रोने से कुछ नहीं मिलता लेकिन जब उसी बिल्ली के गले
में हांडी फंस जाती है और वह अपने हाथ-पैर पटकती है ,दीवारों से टकराती है और अपनी छटपटाहट
दिखाती है तब उसे दया मिल सकती है | यदि सीधे विलाप करेंगे तो किसी का दिल नहीं पसीजेगा
लेकिन जैसे ही छटपटाहट दिखेगी लोग ध्यान देने लगेंगे |यहाँ दुनिया के सौन्दर्य-बोध का विस्तार करते
हुए वे लिखते हैं
“दुनिया आँसू पसंद करती है
मगर शोख चेहरों के”

यह गहरे अनुभव की बात है और देखा जाए तो एक खुला रहस्य भी है जिसे जीते तो सब हैं लेकिन
इसकी पहचान सब नहीं करते | इसका अर्थ यह है कि यदि दुःख भी चटकीलेपन के साथ परोसा जाएगा
तो अधिक बिकेगा या ज्यादा पसंद किया जाएगा |
इसी प्रकार वे आगे यह व्यंग्य करते हैं कि यदि मृत्यु का दृश्य भी ऐसा हो कि जैसे रंग-बिरंगी तितलियाँ
हरी-भरी क्यारी में मरी हों तो उसमें अधिक संवेदना मिलने के अवसर हैं | यानी दुनिया को मौत भी
तभी लुभाती है जब वह आकर्षक हो, नहीं तो अब उसे साधारण मौत से कोई अभिप्राय नहीं है | दरसल
यह कविता बता रही है कि हम जितना अधिक सौन्दर्य के उपभोक्ता होते जा रहे हैं हम उतने ही
संवेदनहीन होते चले जा रहे हैं | रोचक तो यह है कि सर्वेश्वरजी की इस कविता को अज्ञेयजी ने ‘तीसरा
सप्तक’ में संकलित किया है जिसका अर्थ यह होता है कि यह कविता 1959 ई. में प्रकाशित हुई थी |
यानी स्वतंत्रता के महज बारह वर्षों में ही समाज के सौन्दर्य-बोध के बदलने की मार्मिक सूचना सर्वेश्वरजी
दे रहे हैं | इसलिए यह स्थापित होता है कि कवितायें,अगर ध्यान से देखी जाएँ तो एक समांतर इतिहास
का निर्माण करती हैं | आगे सर्वेश्वरजी जो लिखते हैं वह बिना किसी काव्य साधन के सीधे शब्दों और
अर्थ में प्रकट होता है जिससे एक सूत्र मिल जाता है | वे लिखते हैं
“आज की दुनिया में
विवशता,
भूख,
मृत्यु,
सब सजाने के बाद ही
पहचानी जा सकती हैं |”
यहाँ सर्वेश्वरजी स्पष्ट कह रहे हैं कि विवशता,भूख और मृत्यु जैसे संकटों का भी एक मनोहर, सुन्दर
बाजार है | उसमें बिना काम किये हुए, यथार्थ संकटों के लिए कोई जगह नहीं है | यह बहुत ही क्रूर
स्थिति है और आज के संदर्भों में भी इसके उदाहरण बहुत देखे जा सकते हैं | दुनिया किसी प्रसिद्ध
अभिनेत्री के परिजनों की मृत्यु से संबंधित रील और विडियो को तो बहुत हिट करती है, मुख्यधारा
मीडिया और सोशल मीडिया भी उनका जमकर कवरेज करती है और यह दिखाती है कि सफ़ेद कपड़ों में
आए हुए सेलेब्रिटी कितने शालीन और प्रभावी तरीके से अपना शोक व्यक्त करते हैं| लेकिन जब यही
कोई साधारण व्यक्ति गुजरता है तब उसे गुमनाम ही रह जाना है, भले ही वह किसी बड़े अपराध का
शिकार हुआ हो या किसी लापरवाही के कारण क्यों न मर गया हो | इसका मनोविज्ञान है क्योंकि
साधारण लोग साधारण लोगों के प्रति ही कोई जिम्मेदारी महसूस नहीं करते |सर्वेश्वरजी आगे लिखते हैं
“शायद कल उनकी समाधियाँ नहीं बनेंगी

जो मरने के पूर्व
कफ़न और फूलों का
प्रबंध नहीं कर लेंगे |
ओछी नहीं है दुनिया :
मैं फिर कहता हूँ,
महज उस का

सौन्दर्य-बोध बढ़ गया है |”
सर्वेश्वरजी की समाज को पढने की क्षमता बहुत अद्भुत है क्योंकि यह कविता सिर्फ उनके समकालीन
समाज का ही दर्पण नहीं है बल्कि आज भी जैसे हमें अपने समय में हमारा ही चेहरा दिखा रही है | वह
इस भ्रम को तोड़ दे रही है कि हम जो शिक्षित लोग हैं वे बहुत मजबूत हैं | बाजार इत्यादि की आंधी में
जैसे सभी बह गए हैं और मनुष्य होने के सौन्दर्य-बोध से हम बहुत आगे निकल आए हैं | संभवतः इतनी
आगे कि अब पीछे की राह भी खो गई लगती है | लेकिन एक बात तो तय है कि जब भी हम अपने
पुराने कवियों या साहित्य की तरफ जायेंगे तो हमें एक गुप्त रास्ता जरुर मिलता है जो हमें हमारा ही
दर्शन करा देता है |हमें अपने इतिहास से मिला देता है और कहीं एक बारीक सी हूक उठा देता है यह
समझने के लिए कि देखो दुनिया की आँखों में सुन्दरता क्या थी या क्या हो सकती थी और अब क्या है
| इसलिए यहाँ लौट कर घूमते रहना जरुरी है | इस कविता से गुजरना एक अंतर यात्रा है |

लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं

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