डा. संदीप कुमार
दीपावली का अर्थ है दीपों की पंक्ति। दीपावली शब्द ‘दीप’ एवं ‘आवली’ की संधि से बना है। आवली अर्थात पंक्ति, इस प्रकार दीपावली शब्द का अर्थ है, दीपों की पंक्ति। भारतवर्ष में मनाए जानेवाले सभी त्यौहारों में दीपावली का सामाजिक और धार्मिक दोनों दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। इसे दीपोत्सव भी कहते हैं। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात् ‘अंधेरे से ज्योति अर्थात प्रकाश की ओर जाइए’ यह उपनिषदों की आज्ञा है। इसे सिख, बौद्ध तथा जैन धर्म के लोग भी मनाते हैं।
दीपावली कैसे शुरु हुई, अलग-अलग मान्यताएं
पौराणिक
- भगवान राम का चौदह वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या वापस लौटना- त्रेतायुग में भगवान राम रावण को हराकर और चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात अयोध्या वापस लौटे तब अयोध्यावासियों का ह्रदय अपने परम प्रिय राजा के आगमन से उल्लसित था। श्री राम के स्वागत में अयोध्यावासियों ने घी के दीए जलाए, यह थी भारतवर्ष की पहली दीपावली।
- * जिस दिन श्री राम अयोध्या लौटे, उस रात्रि कार्तिक मास की अमावस्या थी अर्थात आकाश में चाँद बिल्कुल नहीं दिखाई देता था। ऐसे माहौल में अयोध्यावासियों ने भगवान राम के स्वागत में पूरी अयोध्या को दीपों के प्रकाश से जगमग करके मानो धरती पर ही सितारों को उतार दिया। तभी से दीपावली का त्यौहार मनाने की परम्परा चली आ रही है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार आज भी दीपावली के दिन भगवान राम, लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ अपनी वनवास स्थली चित्रकूट में विचरण कर श्रद्धालुओं की मनोकामनाओं की पूर्ति करते हैं। यही कारण है कि दीपावली के दिन लाखों श्रद्धालु चित्रकूट में मंदाकिनी नदी में डुबकी लगाकर कामद्गिरि की परिक्रमा करते हैं और दीप दान करते हैं।
कृष्ण ने अत्याचारी नरकासुर का वध दीपावली के एक दिन पहले चतुर्दशी को किया था। इसी खुशी में अगले दिन अमावस्या को गोकुलवासियों ने दीप जलाकर खुशियाँ मनाई थीं।
* दक्षिण में, दीपावली त्यौहार अक्सर नरकासुर, जो असम का एक शक्तिशाली राजा था, और जिसने हजारों निवासियों को कैद कर लिया था, पर विजय की स्मृति में मनाया जाता है। ये श्री कृष्ण ही थे, जिन्होंने अंत में नरकासुर का दमन किया व कैदियों को स्वतंत्रता दिलाई। इस घटना की स्मृति में प्रायद्वीपीय भारत के लोग सूर्योदय से पहले उठ जाते हैं, व कुमकुम अथवा हल्दी के तेल में मिलाकर नकली रक्त बनाते हैं। राक्षस के प्रतीक के रूप में एक कड़वे फल को अपने पैरों से कुचलकर वे विजयोल्लास के साथ रक्त को अपने मस्तक के अग्रभाग पर लगाते हैं। तब वे धर्म-विधि के साथ तैल स्नान करते हैं, स्वयं पर चन्दन का टीका लगाते हैं।
हिरण्यकश्यप वध- एक पौराणिक कथा के अनुसार विष्णु ने नरसिंह रुप धारणकर हिरण्यकश्यप का वध किया था।
* दैत्यराज हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रहलाद की विष्णु भक्ति से अप्रसन्न हो उसे जान से मारना चाहा। इसके लिए उसने अनेक उपाय किए पर उसे सफलता नहीं मिल पाई तब वह कुपित हो खड्ग उठा कर उसे स्वयं ही मारने चला। दैत्यराज को वरदान प्राप्त था कि उनकी मृत्यु ने दिन में होगी न रात में, न घर में होगी न बाहर, न अस्त्रा से होगी न शस्त्रा से। इसी वजह से वे स्वयं को अमर समझता था। कार्तिक अमावस्या के सायंकाल का समय था। विष्णु भक्त प्रहलाद खम्भे से बंधा हुआ था। जब दैत्यराज ने खड्ग से प्रहार किया। तो भयंकर गर्जना के साथ खम्भा टूट गया और भगवान नरसिंह का प्रादुर्भाव हुआ। शीश सिंह के समान और शेष शरीर मानव जैसा। न पूरा मानव, न पूरा पशु, न अस्त्र न शस्त्र। भगवान नरसिंह ने केवल अपने नख से दैत्यराज का वध कर डाला। दैत्यराज की मृत्यु पर प्रजा ने घी के दिए जलाकर दीवाली मनाई थी।
समुद्रमंथन से लक्ष्मी व कुबेर का प्रकट होना- इसी दिन समुद्रमंथन के पश्चात लक्ष्मी व धन्वंतरि प्रकट हुए। एक पौराणिक मान्यता है कि दीपावली के दिन ही माता लक्ष्मी दूध के सागर, जिसे केसर सागर के नाम से जाना जाता है, से उत्पन्न हुई थीं। माता ने सम्पूर्ण जगत के प्राणियों को सुख-समृद्धि का वरदान दिया और उनका उत्थान किया। इसलिए दीपावली के दिन माता लक्ष्मी की पूजा की जाती है। ऎसा माना जाता है कि श्रद्धा-भक्ति के साथ पूजन करने से माता लक्ष्मी अपने भक्तजनों पर प्रसन्न होती हैं और उन्हें धन-वैभव से परिपूर्ण कर मनवांछित फल प्रदान करती हैं।
* दीपावली के संबंध में एक प्रसिद्ध मान्यतानुसार मूलत: यह यक्षों का उत्सव है। दीपावली की रात्रि को यक्ष अपने राजा कुबेर के साथ हास-विलास में बिताते व अपनी यक्षिणियों के साथ आमोद-प्रमोद करते। दीपावली पर रंग- बिरंगी आतिशबाजी, लज़ीज़ पकवान एवं मनोरंजन के जो विविध कार्यक्रम होते हैं, वे यक्षों की ही देन हैं। सभ्यता के विकास के साथ यह त्यौहार मानवीय हो गया और धन के देवता कुबेर की बजाय धन की देवी लक्ष्मी की इस अवसर पर पूजा होने लगी, क्योंकि कुबेर जी की मान्यता सिर्फ़ यक्ष जातियों में थी पर लक्ष्मी जी की देव तथा मानव जातियों में। कई जगहों पर अभी भी दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजा के साथ-साथ कुबेर की भी पूजा होती है। गणेश जी को दीपावली पूजा में मंचासीन करने में भौव-सम्प्रदाय का काफी योगदान है। ऋद्धि-सिद्धि के दाता के रूप में उन्होंने गणेश जी को प्रतिष्ठित किया। यदि तार्किक आधार पर देखें तो कुबेर जी मात्र धन के अधिपति हैं जबकि गणेश जी संपूर्ण ऋद्धि-सिद्धि के दाता माने जाते हैं। इसी प्रकार लक्ष्मी जी मात्र धन की स्वामिनी नहीं वरन ऐश्वर्य एवं सुख-समृद्धि की भी स्वामिनी मानी जाती हैं। अत: कालांतर में लक्ष्मी-गणेश का संबध लक्ष्मी-कुबेर की बजाय अधिक निकट प्रतीत होने लगा। दीपावली के साथ लक्ष्मी पूजन के जुड़ने का कारण लक्ष्मी और विष्णु जी का इसी दिन विवाह सम्पन्न होना भी माना गया है।
महाकाली की पूजा- राक्षसों का वध करने के लिए माँ देवी ने महाकाली का रूप धारण किया। राक्षसों का वध करने के बाद भी जब महाकाली का क्रोध कम नहीं हुआ तब भगवान शिव स्वयं उनके चरणों में लेट गए। भगवान शिव के शरीर स्पर्श मात्र से ही देवी महाकाली का क्रोध समाप्त हो गया। इसी की याद में उनके शांत रूप लक्ष्मी की पूजा की शुरुआत हुई। इसी रात इनके रौद्ररूप काली की पूजा का भी विधान है।
राजा बलि और वामन अवतार- महाप्रतापी तथा दानवीर राजा बलि ने अपने बाहुबल से तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली, तब बलि से भयभीत देवताओं की प्रार्थना पर भगवान विष्णु ने वामन रूप धारण कर प्रतापी राजा बलि से तीन पग पृथ्वी दान के रूप में माँगी। महाप्रतापी राजा बलि ने भगवान विष्णु की चालाकी को समझते हुए भी याचक को निराश नहीं किया और तीन पग पृथ्वी दान में दे दी। विष्णु ने तीन पग में तीनों लोकों को नाप लिया। राजा बलि की दानशीलता से प्रभावित होकर भगवान विष्णु ने उन्हें पाताल लोक का राज्य दे दिया, साथ ही यह भी आश्वासन दिया कि उनकी याद में भू लोकवासी प्रत्येक वर्ष दीपावली मनाएँगे।
युद्धिधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ- महाराज धर्मराज युद्धिधिष्ठिर ने इसी दिन राजसूय यज्ञ किया था। अतएव दीप जलाकर खुशियां मनाई थीं।
सा-पूर्व (BC) की दीपावली
मोहनजोदड़ो सभ्यता की दीपावली
सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई में पकी हुई मिट्टी के दीपक प्राप्त हुए हैं और 500 ईसा वर्ष पूर्व की मोहनजोदड़ो सभ्यता की खुदाई में प्राप्त भवनों में दीपकों को रखने हेतु ताख बनाए गए थे व मुख्य द्वार को प्रकाशित करने हेतु आलों की शृंखला थी। मोहनजोदड़ो सभ्यता के प्राप्त अवशेषों में मिट्टी की एक मूर्ति के अनुसार उस समय भी दीपावली मनाई जाती थी। उस मूर्ति में मातृ-देवी के दोनों ओर दीप जलते दिखाई देते हैं।
बौद्ध धर्म की दीपावली
बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध जब 17 वर्ष बाद अनुयायियों के साथ अपने गृह नगर कपिल वस्तु लौटे तो उनके स्वागत में लाखों दीप जलाकर दीपावली मनाई थी। साथ ही महात्मा बुद्ध ने अपने प्रथम प्रवचन के दौरान `अप्पों दीपो भव´ का उपदेश देकर दीपावली को नया आयाम प्रदान किया था।
जैन धर्म की दीपावली
जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर ने भी दीपावली के दिन ही बिहार के पावापुरी में अपना शरीर त्याग दिया। महावीर-निर्वाण संवत् इसके दूसरे दिन से शुरू होता है। इसलिए अनेक प्रांतों में इसे वर्ष के आरंभ की शुरुआत मानते हैं। दीपोत्सव का वर्णन प्राचीन जैन ग्रंथों में मिलता है। कल्पसूत्र में कहा गया है कि महावीर-निर्वाण के साथ जो अन्तर्ज्योति सदा के लिए बुझ गई है, आओ हम उसकी क्षतिपूर्ति के लिए बहिर्ज्योति के प्रतीक दीप जलाएँ।
मौर्य साम्राज्य की की दीपावली
ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में रचित कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार आमजन कार्तिक अमावस्या के अवसर पर मंदिरों और घाटों पर बड़े पैमाने पर दीप जलाकर दीपदान महोत्सव मनाते थे। साथ ही मशालें लेकर नाचते थे और पशुओं खासकर भैंसों और सांडो की सवारी निकालते थे।
सम्राट अशोक की दीपावली
मौर्य राजवंश के सबसे चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने दिग्विजय का अभियान इसी दिन प्रारम्भ किया था। इसी खुशी में दीपदान किया गया था।
गुप्त वंश की दीपावली
मौर्य वंश के पतन के बाद गुप्त वंश की दीपावली- सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय ने ईसा से 269 वर्ष पूर्व दीपावली के ही दिन तीन लाख शकों व हूणों को युद्ध में खदेड़ कर परास्त किया था। जिसकी खुशी में उनके राज्य के लोगों ने असंख्य दीप जला कर जश्न मनाया था।
सम्राट समुद्र गुप्त, अशोकादित्य, प्रियदरर्शन ने अपनी दिग्विजय की घोषणा दीपावली के ही दिन की थी।
सम्राट विक्रमादित्य की दीपावली 57 ईपू
विक्रम संवत के प्रवर्तक चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य का राज्याभिषेक दीपावली के दिन हुआ था। इसलिए दीप जलाकर खुशियाँ मनाई गईं।
ईसा-बाद (AD) की दीपावली
सिखों की दीपावली
सिखों के लिए भी दीवाली महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसी दिन ही अमृतसर में 1577 में स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था। और इसके अलावा 1618 में दीवाली के दिन सिक्खों के छठे गुरु हरगोबिन्द सिंह जी को बादशाह जहाँगीर की कैद से जेल से रिहा किया गया था।
मुगलकाल में दीपावली
बाबर– प्रकाश की जगमग और उल्लास भरे दीपावली के पर्व ने मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर को भी आकर्षित किया। बाबर ने दीवाली के त्योहार को ‘एक खुशी का मौका’ के तौर पर मान्यता प्रदान की।
हुमायूं– बाबर ने अपने बेटे हुमायूं को भी दीवाली के जश्न में शामिल होने की प्रेरणा दी। बाबर के उत्तराधिकारी के रूप में हुमायूं ने इस परंपरा को न केवल अक्षुण्ण रखा, अपितु इसे व्यक्तिगत रुचि से और आगे बढ़ाया। हुमायूं के शासन-काल में दीवाली के मौके पर पूरे राजमहल को झिलमिलाते दीपों से सजाया जाता था और आतिशबाजी की जाती थी। हुमायूं खुद दीवाली उत्सव में शरीक होकर शहर में रोशनी देखने निकला करते थे। हुमायूं – ‘तुलादान’ की हिंदू परंपरा में भी रुचि रखते थे।
अकबर- मुगल-सल्तनत के तीसरे उत्तराधिकारी को इतिहास अकबर महान के नाम से जानता है। दीन-ए-इलाही के प्रवर्तक मुगल सम्राट अकबर द्वारा सभी हिन्दू त्योहारों को पूर्ण मनोयोग और उल्लास के साथ राजकीय तौर पर मनाया जाता था। दीवाली अकबर का खास पसंदीदा त्योहार था। अबुल फजल द्वारा लिखित आईने अकबरी में उल्लेख मिलता है कि दीवाली के दिन किले के महलों व शहर के चप्पे-चप्पे पर घी के दीपक जलाए जाते थे। अकबर के दौलतखाने के बाहर एक चालीस गज का दीपस्तंभ टांगा जाता था, जिस पर विशाल दीपज्योति प्रज्जवलित की जाती थी। इसे ‘आकाशदीप’ के नाम से पुकारा जाता था। दीवाली के अगले दिन सम्राट अकबर गोवर्धन पूजा में शिरकत करते थे। इस दिन वह हिन्दू वेशभूषा धारण करते तथा सुंदर रंगों और विभिन्न आभूषणों से सजी गायों का मुआयना कर ग्वालों को ईनाम देते थे।
जहाँगीर- अकबर के बाद मुगल सल्तनत की दीवाली परंपरा उतनी मजबूत न रही, मगर फिर भी अकबर के वारिस जहांगीर ने दीवाली को राजदरबार में मनाना जारी रखा। जहांगीर दीवाली के दिन को शुभ मानकर चौसर अवश्य खेला करते थे। राजमहल और निवास को विभिन्न प्रकार की रंग-बिरंगी रोशनियों से सजाया जाता था और जहांगीर रात्रि के समय अपनी बेगम के साथ आतिशबाजी का आनंद लेते थे।
शाहजहां- मुगल बादशाह शाहजहां जितनी शानोशौकत के साथ ईद को मनाते थे उसी तरह दीपावली का त्यौहार भी मनाते थे। बादशाह शाहजहां दीपावली पर्व पर यहां स्थित किले को रोशनी कर सजाते थे तथा किले के अंदर स्थित मंदिर में इस अवसर पर विशेष पूजा-अर्चना की जाती थी। शाहजहां अपने दरबारियों, सैनिकों और जनता में इस अवसर पर मिठाई बंटवाते थे। उनके बेटे दारा शिकोह ने भी दीवाली परंपरा को जीवित रखा। दारा शिकोह इस त्योहार को पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाते और अपने नौकरों को बख्शीश बांटते थे। उनकी शाही सवारी रात्रि के समय शहर की रोशनी देखने निकलती थी। पुस्तक ‘ तुजुके जहांगीरी ‘ में इस दीपावली पर्व की भव्यता और रौनक का विस्तृत वर्णन किया गया है।
बहादुर शाह जफर- मुगल वंश के अंतिम सम्राट बहादुर शाह जफर का दीवाली मनाने का निराला ही अंदाज था। जफर की दीवाली तीन दिन पहले ही शुरू हो जाती थी। दीवाली के दिन वे तराजू के एक पलड़े में बैठते और दूसरा पलड़ा सोने-चांदी से भर दिया जाता था। तुलादान के बाद यह सब गरीबों को दान कर दिया जाता था। तुलादान की रस्म-अदायगी के बाद किले पर रोशनी की जाती थी। कहार खील-बतीशे, खांड और मिट्टी के खिलौने घर-घर जाकर बांटते। गोवर्धन पूजा के दिन नागरिक अपने गाय-बैलों को मेंहदी लगाकर और उनके गले में शंख और घुंघरू बांधकर जफर के सामने पेश करते। जफर उन्हे इनाम देते व मिठाई खिलाते थे।
पंजाब में जन्मे स्वामी रामतीर्थ का जन्म व महाप्रयाण दोनों दीपावली के दिन ही हुआ। इन्होंने दीपावली के दिन गंगातट पर स्नान करते समय ‘ओम’ कहते हुए समाधि ले ली।
आर्य समाज की स्थापना के रूप में- इस दिन आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने भारतीय संस्कृति के महान जननायक बनकर दीपावली के दिन अजमेर के निकट अवसान लिया था। इसके अलावा मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल में दौलतखाने के सामने 40 गज ऊँचे बाँस पर एक बड़ा दीप जलाकर लटकाया जाता है। वहीं शाह आलम द्वितीय के समय में पूरे शाही महल को दीपों से सजाया जाता था इस मौके पर हिन्दू और मुसलमान दोनों मिलकर पूरे हर्ष और उल्लास के साथ त्योहार मनाते थे।
नेपालियों के लिए यह त्योहार इसलिए महान है क्योंकि इस दिन से नेपाल संवत में नया वर्ष शुरू होता है।
भारत के विभिन्न राज्यों में दीपावली को विभिन्न रूपों मे मनाया जाता है
गुजरात में नमक को साक्षात लक्ष्मी का प्रतीक मान दीपावली के दिन नमक खरीदना व बेचना शुभ माना जाता है
राजस्थान में दीपावली के दिन घर में एक कमरे को सजाकर व रेशम के गद्दे बिछाकर मेहमानों की तरह बिल्ली का स्वागत किया जाता है। बिल्ली के समक्ष खाने हेतु तमाम मिठाइयाँ व खीर इत्यादि रख दी जाती हैं। यदि इस दिन बिल्ली सारी खीर खा जाए तो इसे वर्ष भर के लिए शुभ व साक्षात लक्ष्मी का आगमन माना जाता है।
उत्तरांचल के थारू आदिवासी अपने मृत पूर्वजों के साथ दीपावली मनाते हैं
हिमाचल प्रदेश में कुछ आदिवासी जातियाँ इस दिन यक्ष पूजा करती हैं।
पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में दीपावली को काली पूजा के रूप में मनाया जाता है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस को आज ही के दिन माँ काली ने दर्शन दिए थे, अत: इस दिन बंगाली समाज में काली पूजा का विधान है। यहाँ पर यह तथ्य गौर करने लायक है कि दशहरा-दीपावली के दौरान पूर्वी भारत के क्षेत्रों में देवी के रौद्र रूपों को पूजा जाता है, वहीं उत्तरी व दक्षिण भारत में देवी के सौम्य रूपों अर्थात लक्ष्मी, सरस्वती व दुर्गा माँ की पूजा की जाती है।
मध्य प्रदेश- दीवाली को जश्न-ए-चिराग के रूप में मनाते है मालवा के मुस्लिम… मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में मुस्लिम समुदाय दीपावली को जश्न-ए-चिराग के रूप में मनाता है। इस अंचल में मुस्लिम समाज द्वारा दीपावली पर्व मनाए जाने की प्राचीन परम्परा आज भी कायम है। इस पर्व को उमंग और उल्लास के परम्परागत तरीके से मनाने वाले रूस्तम खान पठान ने कहा कि यहां दीपावली को अमन , भाईचारे एवं सद्भाव के साथ मनाने की पुरानी परम्परा रही है। उन्होंने बताया कि मुगल बादशाह शाहजहां , दीपावली पर्व पर यहां स्थित किले को रोशनी कर सजाते थे और किले के अंदर स्थित मंदिर में इस अवसर पर विशेष पूजा-अर्चना की जाती थी। उन्होंने कहा कि उदारवादी व समन्वयकारी मुगल शासक अकबर ने दीपावली पर्व मनाने की मुगलिया परम्परा का आगाज किया था। पवित्र त्योहार ईद और रमजान की तरह दीपों का यह पर्व भी मुस्लिम समुदाय द्वारा घरों की साफ-सफाई के साथ मनाया जाता है।
साईं बाबा ने दीपावली पर पानी से दिए जलाए
साईं बाबा संध्या समय गाँव में जा कर दुकानदारों से भिक्षा में तेल मांगते और मस्जिद में दिए जलाया करते थे | दिवाली के दिन साईं बाबा गाँव के दुकानदारों से तेल मांगने गए लेकिन वाणी (तेल देने वालों) ने तेल देने से मना कर दिया | सभी दुकानदारों ने आपस में यह निश्चित किया था की वह बाबा को भिक्षा में तेल न दे कर अपना महत्व दर्शाएंगे |
अहंकार से भरकर उन्होंने यह भी कहा की देखते है बाबा! आज किस प्रकार मस्जिद में दिए जलाते है? अत: बाबा को खाली हाथ ही मस्जिद में लौटना पड़ा |
साईं बाबा के मस्जिद खाली हाथ लौटने पर उनके शिष्यों को बड़ी निराशा हुई| गांव का प्रत्येक दुकानदार यही कहता है कि आज तो उसके पास अपने घर में जलाने के लिए भी तेल की एक बूंद भी नहीं है|
साईं बाबा ने मस्जिद के अंदर बने कुएं पर जाकर कुएं में से एक घड़ा पानी भरकर खींचा| भक्त चुपचाप खड़े उनको यह सब करते देखते रहे| साईं बाबा ने अपने डिब्बे, जिसमें वह तेल मांगकर लाया करते थे, उसमें से बचे हुए तेल की बूंदे उस घड़े के पानी में डालीं और घड़े के उस पानी को दीयों में भर दिया| फिर रूई की बत्तियां बनाकर उन दीयों में डाल दीं और फिर बत्तियां जला दीं| सारे दिये जगमग कर जल उठे| यह देखकर शिष्यों और भक्तों की हैरानी का ठिकाना न रहा|साईं बाबा के शिरडी में आने के बाद में शिरडी और आस-पास के मुसलमान हिन्दुओं के साथ दीपावली का त्यौहार बड़े हर्ष और उल्लास के साथ मनाने लगे थे|
इस चमत्कार को शिरडी वालों ने अपनी आंखों से देखा। इसके दीपक और दिवाली पर्व का त्यौहार साई बाबा ने मनाना शुरू किया। उसी के बाद से दिवाली मनाने का प्रचलन बढ़ा। साई भक्त दिवाली के दिन भगवान का पूजन कर उनकी आरती करते आ रहे है।
दिवाली पर 5 दिनों तक ऐसे करें पूजन
पहला दिन- धनतेरस
धनतेरस पूजन से मिलता है अकाल मृत्यु से छुटकारा
धन्वन्तरि- धन्वन्तरि हिन्दू धर्म में मान्य देवताओं में से एक हैं। भगवान धन्वन्तरि आयुर्वेद जगत् के प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र के देवता माने जाते हैं। वेदों में भगवान धन्वंतरि का कोई उल्लेख नहीं है, किंतु महाभारत, श्रीमदभागवत, अग्निपुराण, वायुपुराण, विष्णपुराण तथा ब्रह्मपुराण में उनका वर्णन दिया गया है। धन्वंतरि को भगवान विष्णु का अंशावतार माना गया है।
श्रीमदभागवत महापुराण में वर्णित विष्णु के 24 अवतारों में भगवान धन्वंतरि 12वें अवतार हैं। इनका पृथ्वी लोक में अवतरण समुद्र मंथन के समय हुआ था। शरद पूर्णिमा को चंद्रमा, कार्तिक द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशी को धन्वंतरी, चतुर्दशी को काली माता और अमावस्या को भगवती लक्ष्मी जी का सागर से प्रादुर्भाव हुआ था। इसीलिये दीपावली के दो दिन पूर्व धनतेरस को भगवान धन्वंतरी का जन्म धनतेरस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन इन्होंने आयुर्वेद का भी प्रादुर्भाव किया था।
भगवान विष्णु के रूप की तरह धन्वन्तरि की भी चार भुजायें हैं। उपर की दोंनों भुजाओं में शंख और चक्र धारण किये हुये हैं। जबकि दो अन्य भुजाओं मे से एक में जलूका और औषध तथा दूसरे मे अमृत कलश लिये हुये हैं। इनका प्रिय धातु पीतल माना जाता है। इसीलिये धनतेरस को पीतल आदि के बर्तन खरीदने की परंपरा भी है।
इन्हे आयुर्वेद की चिकित्सा करनें वाले वैद्य आरोग्य का देवता कहते हैं– आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद है। सुश्रुत संहिता के अनुसार
ब्रह्मा प्रोवाच ततः प्रजापतिरधिजगे,
तस्मादश्विनौ, अश्विभ्यामिन्द्रः इन्द्रादहमया
त्विह प्रदेपमर्थिभ्यः प्रजाहितहेतोः
अर्थात् – सुश्रुत संहिता के अनुसार ब्रह्माजी ने एक लाख श्लोक का आयुर्वेद रचा जिसमें एक हजारअध्याय थे। उनसे प्रजापति ने, प्रजापति से अश्विनी कुमारों ने, अश्विनी कुमारों से इन्द्र ने और इन्द्र सेघन्वन्तरि ने पढा। धन्वन्तरि से सुनकर सुश्रुत मुनि ने आयुर्वेद की रचना की।
नालन्दा विशाल शब्दसागर के अनुसार तो- ” धन्वन्तरि प्रणीत चिकित्सा शास्त्र,वैद्य विद्या ही आयुर्वेद है।”
वायु तथा ब्रह्माण पुराणों में धन्वन्तरि को आयुर्वेद का उद्धारक बताया गया है
पौराणिक काल में धन्वन्तरि भगवान के रुप में पूजनीय थे- ‘धन्वन्तरिभगवान् पात्वपथ्यात्’। चरक संहिता में भी धन्वन्तरि को आहुति देने का विधान है।
सुश्रुत संहिता- शल्य चिकित्सा के जनक- सुश्रुत संहिता के उपदेष्टा काशिराज धन्वन्तरि है। सुश्रुत ने शल्यशास्त्र के अध्ययन की इच्छा प्रकट की थी, इसलिए धन्वन्तरि ने इसी अंग का उपदेश दिया।
सुश्रुत के पांच स्थानों में (सूत्र, निदान, शरीर चिकित्सा और कल्प में) शल्य विषय ही प्रधान है इसीलिए कुछ लोगों ने धन्वन्तरि शब्द का अर्थ ही शल्य में पारंगत किया है। (धनुः शल्यं तस्य अन्तं पारमियर्ति गच्छतीति धन्वन्तरिः)
धन्वन्तरि एक सम्प्रदाय है, जिसका संबंध शल्य शास्त्र से है। जो भी शल्य शास्त्र में निपुण होते थे, उन सबको धन्वन्तरि कहा जाता था। इसी से चरक संहिता में धन्वन्तरीयाणां बहुवचन मिलता है। स्पष्ट है, आदि उपदेष्टा धन्वन्तरि थे। इन्हीं के नाम से यह अंग चल पड़ा।
वैदिक काल में जो महत्व और स्थान अश्विनी को प्राप्त था वही पौराणिक काल में धन्वंतरि को प्राप्त हुआ- जहाँ अश्विनी के हाथ में मधुकलश था वहाँ धन्वंतरि को अमृत कलश मिला। क्योंकि विष्णु संसार की रक्षा करते हैं अत: रोगों से रक्षा करने वाले धन्वंतरि को विष्णु का अंश माना गया। विषविद्या के संबंध में कश्यप और तक्षक का जो संवाद महाभारत में आया है, वैसा ही धन्वंतरि और नागदेवी मनसा का ब्रह्मवैवर्त पुराण (३.५१) में आया है। उन्हें गरुड़ का शिष्य कहा गया है –
‘सर्ववेदेषु निष्णातो मन्त्रतन्त्र विशारद:।
शिष्यो हि वैनतेयस्य शंकरोस्योपशिष्यक:।। (ब्र.वै.३.५१)
मंत्र- भगवाण धन्वन्तरि की साधना के लिये एक साधारण मंत्र है:
ॐ धन्वंतरये नमः॥
आरोग्य प्राप्ति हेतु धन्वंतरि देव का पौराणिक मंत्र
ॐ नमो भगवते महासुदर्शनाय वासुदेवाय धन्वंतराये:
अमृतकलश हस्ताय सर्व भयविनाशाय सर्व रोगनिवारणाय
त्रिलोकपथाय त्रिलोकनाथाय श्री महाविष्णुस्वरूप
श्री धनवंतरी स्वरूप श्री श्री श्री औषधचक्र नारायणाय नमः॥
अर्थात् परम भगवन को, जिन्हें सुदर्शन वासुदेव धन्वंतरि कहते हैं, जो अमृत कलश लिए हैं, सर्व भयनाशक हैं, सर्व रोग नाश करते हैं, तीनों लोकों के स्वामी हैं और उनका निर्वाह करने वाले हैं; उन विष्णु स्वरूप धन्वंतरि को सादर नमन है।
धन्वन्तरि स्तोत्रम- प्रचलि धन्वंतरी स्तोत्र इस प्रकार से है
ॐ शंखं चक्रं जलौकां दधदमृतघटं चारुदोर्भिश्चतुर्मिः।
सूक्ष्मस्वच्छातिहृद्यांशुक परिविलसन्मौलिमंभोजनेत्रम॥
कालाम्भोदोज्ज्वलांगं कटितटविलसच्चारूपीतांबराढ्यम।
वन्दे धन्वंतरिं तं निखिलगदवनप्रौढदावाग्निलीलम॥
धनतेरस का महत्व: ऐसा माना जाता है कि इस दिन नए उपहार, सिक्का, बर्तन व गहनों की खरीदारी करना शुभ रहता है. शुभ मुहूर्त समय में पूजन करने के साथ सात धान्यों की पूजा की जाती है. सात धान्य गेहूं, उडद, मूंग, चना, जौ, चावल और मसूर है. सात धान्यों के साथ ही पूजन सामग्री में विशेष रुप से स्वर्णपुष्पा के पुष्प से भगवती का पूजन करना लाभकारी रहता है. इस दिन पूजा में भोग लगाने के लिये नैवेद्य के रुप में श्वेत मिष्ठान्न का प्रयोग किया जाता है. साथ ही इस दिन स्थिर लक्ष्मी का पूजन करने का विशेष महत्व है.
धन्वंतरि के मंदिर- धन्वंतरि की पूजा सम्पूर्ण भारत में की जाती है, लेकिन उत्तर भारत में इनके बहुत कम मन्दिर देखने को मिलते हैं। वहीं दक्षिण भारत के तमिलनाडु एवं केरल में इनके कई मन्दिर हैं। केरल के नेल्लुवायि में धन्वंतरि भगवान का सर्वाधिक सुन्दर व विशाल मन्दिर है। केरल के अष्टवैद्यों के वंश में आज भी भगवान धन्वंतरि की पूजा का विशेष महत्व है। इनके अलावा अन्नकाल धन्वंतरि मंदिर( त्रिशूर) धन्वंतरि मंदिर, रामनाथपुरम (कोयम्बटूर), श्रीकृष्ण धन्वंतरि मंदिर(उडुपी) आदि भी प्रसिद्ध हैं। गुजरात के जामनगर व मध्य प्रदेश में भी इनके मंदिर हैं।
यमराज –मृत्यु के देवता की प्रार्थना की जाती है, जिन्हें मृत्यु का देवता कहा जाता है और असमय मौत से बचने के लिए उनकी प्रार्थना की जाती है। स्कंद पुराण के अनुसार कार्तिक कृष्ण त्रियोदशी पर घर के बाहर दक्षिण दिशा की ओर मुख करके दीपदान करना चाहिए। जिससे अकाल मृत्यु का भय दूर होता है।
यमराज के नागपाश से बदल डाली राजा हेम की मृत्यू–रेखा
राजा हेम की राशि में लिखी थी शादी की चौथी रात को मौत
नागराज आएगें डसने ले जाएगें यमराज
मौत के देव यमराज के कब्जे से छुड़ा लाई हेमारानी
धनतेरस पूजन से मिलता है अकाल मृत्यु से छुटकारा
एक बार यमराज ने अपने दूतों से प्रश्न पूछा कि क्या जीवों के प्राण लेते समय तुम्हें किसी पर दया आती है। इस प्रश्न पर यमदूतों ने कहा कि नहीं, हम तो केवल आपकी आज्ञा का पालन करते हैं। यमराज ने दुबार पूछा कि निर्भय होकर प्रश्न का उत्तर दो। तब यमदूतों ने बताया कि एक बार हमारा हृदय कांप उठा था। यमदूतों ने बताया कि एक बार राजा हेम की पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया। लेकिन ज्योतिषियों ने बताया कि बालक विवाह के चार दिन बाद मर जाएगा। यह सुनने के बाद राजा हेम ने स्त्रियों के सान्ध्यि से बालक को बचाने के लिए उसे एक गुफा में ब्रह्माचारी रूप में रखा।
कुछ समय पश्चात राजा हंस की बेटी यमुना के तट पर पहुंच गई और उस बालक ने उससे गंधर्व विवाह कर लिया। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है। विवाह के चौथे दिन वह राजकुमार मृत्यु को प्राप्त हुआ। उन दोनों की जोड़ी अत्यंत खूबसुरत थी और वे दोनों कामदेव और रति से किसी भी प्रकार कम नहीं थे। अत्यंत दुखी मन से यमदूतों ने यमराज से कहा कि उस राजकुमारी का करुण विलाप सुनकर हमारा हृदय कांप गया। यह कहानी सुनकर यमराज अत्यंत दुखी हुए। तभी एक यमदूत ने यमराज से अकाल मृत्यु से बचने का उपाय पूछा। यमराज ने कहा- धनतेरस के पूजन व दीपदान को विधिपूर्वक करने से अकाल मृत्यु से छुटकारा मिलता है। जिस घर में यह पूजन होता है, वहां अकाल मृत्यु का भय पास भी नहीं फटकता। इसी घटना से धनतेरस के दिन धन्वन्तरि पूजन सहित दीपदान की प्रथा का प्रचलन शुरू हआ।
यम दीपदान करके मृत्यु के भय से मुक्ति
यमराज को करो खुश
दक्षिण दिशा की प्रार्थना करके
चमत्कारी मंत्र का मनोरथ पाऐं
तेरस के सांयकाल किसी पात्र में तिल के तेल से युक्त दीपक प्रज्वलित करें।
पश्चात गंध, पुष्प, अक्षत से पूजन करें
दक्षिण दिशा की ओर मुंह करें
यम का चमत्कारी मंत्र पढें
मृत्युना दंडपाशाभ्याम कालेन श्यामाहा सहा।
त्रयोदश्यां दीपदानात सूर्यज: प्रयतां मम।
अब इन दीपकों को सार्वजनिक स्थलों को प्रकाशित करें
एक अखंड दीपक घर के प्रमुख द्वार की देहरी पर अन्न बिछाकर उस पर रखें।
यमराज पूजन
आटे का दीपक बनाकर घर के मुख्य द्वार पर रखें।
रात को घर की स्त्रियां दीपक में तेल डालकर चार बत्तियां जलाएं।
जल, रोली, चावल, फूल, नैवेद्य, गुड़ आदि सहित दीपक जलाकर यम पूजन करें।
शुभ संयोग : करें कुबेर को खुश
श्री योग का विलक्षण संयोग
कार्तिक कृष्ण पक्ष त्रयोदशी गुरुवार को धनतेरस पर एक साथ होने वाली विशेष तिथियों के कारण श्री योग का संयोग भी बन रहा है जो धनलक्ष्मी के साथ ही सुख-समृद्धि लाने वाला है। धनतेरस के दिन बर्तन,आभूषण सहित अन्य स्थाई वस्तुओं की खरीदी शुभ मानी जाती है। ज्योतिषाचार्य पं.प्रहलाद कुमार पण्ड्या के अनुसार धनतेरस के दिन सोने और चांदी के आभूषणों के अलावा बर्तन, भूमि, भवन आदि के साथ ही सभी वस्तुओं की खरीदी शुभ मानी जाती है। ये वस्तुएँ वर्षभर लाभकारी होती हैं। सायंकाल में यम पूजा के साथ ही दीपदान तथा स्थाई संपत्ति, तिजोरी आदि की पूजा का विधान है। इस दिन समृद्धि की देवी लक्ष्मी, धनदेव कुबेर और वैदिक देवनारायण इन्द्र की पूजा-अर्चना होती है।
ऐसे करें कुबेर को खुश
– शुद्ध होवें। पूर्व दिशा में मुख रखकर आसन बिछाएँ।
– लकड़ी के पटा में पीला या लाल कपड़ा बिछाएँ।
– कलश जलाएँ। घी का दीपक जलाएँ।
– पृथ्वी और कलश का पूजन करें।
– पूजन में हो सके तो चार कौड़ियों को विशेष रूप से रखें।
– भगवान गणपति का ध्यान कर पंचामृत से अभिषेक करें।
– कुबेर यंत्र और भगवान धनवंतरी का चित्र पूजन में रखें।
– धना और गुड़ अर्पण करें।
– सोना-चांदी के सिक्के, आभूषण धोकर पवित्र जल से स्नान करें।
– काँसा या पीतल में आभूषण रखकर कुमकुम, सिंदूर, अक्षत से पूजन करें।
– ॐ गं गणपतयै नमः का जाप करें। (5 बार)
– ॐ श्री कुबेराय नमः और ॐ श्री महालक्ष्मयै नमः का जाप 108 बार कमलगट्टा या तुलसी की माला से करें। घर में स्वास्तिक चिन्ह बनाएं।
दूसरा दिन- 3 त्यौहार के संग आती है छोटी दीपावली
नरक चौदस :- नरक से मुक्ति के लिए दीप-दान
रूप चतुर्दशी :- सौंदर्य सिद्धी दिवस
काली चतुर्दशी :- गुजरात में कालि चौदस पर बलिप्रथा
इस दिन का पौराणिक महत्व
वामन अवतार लेकर राजा बलि से पृथ्वी-आकाश-पाताल को तीन पगों में नाप लिया
श्रीकृष्ण-सत्यभामा ने नरकासुर को मारकर पृथ्वी का कल्याण किया
हनुमानजी का जन्म लेकर कार्तिक मास पावन किया
Advertisement
नरक चौदस: नरकासुर वध कथा
विष्णु पुराण में नरकासुर वध की कथा का उल्लेख मिलता है। विष्णु ने वराह अवतार धारण कर भूमि देवी को सागर से निकाला था। द्वापर युग में भूमि देवी ने एक पुत्र को जन्म दिया। अत्यंत क्रूर असुर होने के कारण उसका नाम नरका सुर पड़ा।
प्रागज्योतिषपुर का राजा बना और उसने देवताओं और मनुष्यों को बहुत तंग कर रखा था। उसने गंधर्वों और देवों की सोलह हजार अप्सराओं को नरकासुर ने अपने अंत:पुर में कैद किया। नरकासुर एक बार अदिति के कर्णाभूषण उठाकर भाग गया। इन्द्र की प्रार्थना पर भगवान कृष्ण ने अत्याचारी नरकासुर की नगरी पर अपनी पत्नी सत्यभामा और साथी सैनिकों के साथ भयंकर आक्रमण किया।
इस युद्ध में उन्होंने मुर, हयग्रीव और पंचजन आदि राक्षसों का संहार करने के बाद कृष्ण ने लड़ते-लड़ते थक कर क्षण भर को अपनी आँखें बन्द कर ली तो नरकासुर ने हाथी का रूप धारण कर लिया।सत्यभामा ने उस असुर से लोहा लिया और नरकासुर का वध किया।
श्रीकृष्ण ने वध के बाद किया था, और सोलह हजार एक सौ कन्याओं को राक्षसों के चंगुल से छुड़ाया था। इसलिए भी यह त्योहार मनाया जाता है। इसलिए इस त्योहार का नाम नरक चौदस पड़ा।
यमराज की प्रार्थना का दिन
कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी कहकर अकाल मृत्यु के निवारण और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए यमराज की प्रार्थना का दिन माना गया है। चौमासे की बीमारियों से बचकर शरीर और त्वचा के स्वास्थ्य के लिए “स्नेहक” यानी चिकने पदार्थो का प्रयोग शुरू करते समय आप मृत्यु के देवता यमराज से प्रार्थना करें कि हम रोग और अकाल मृत्यु के ग्रास न हों यह स्वाभाविक ही है।इस चौदस के दिन यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैनस्वत, काल, सर्वभूतक्षय, औदुम्बर, दग्ध, नील, परमेष्ठी, वृकोदर, चित्र और चित्रगुप्त- इन चौदह नामों से प्रत्येक बार एक अंजलि जल छोड़ते हुए जो यमराज का तर्पण करते हैं, उन्हें कभी अकाल मृत्यु प्राप्त नहीं होती, ऎसा मंत्रशास्त्रीय प्रयोग भी मिलता है।
नरक से मुक्ति के लिए दीप-दान
पुराणों में नरककुंडों की संख्या 86 मानी गई है
नरक चतुर्दशी इन्हीं नरक कुंडों से ही तो सावधान करती है।
नरकासुर आसुरी नरक कुंडों का प्रतीक है।
जहां दुष्टों को कई तरह की यातनाएं दी जाती हैं उसे नरक कुंड कहते हैं।
धर्म से विमुख होना,अनाचार,वासनाएं ही नरक कुंड हैं।
देवी तत्व दर्शन में कई किस्म के नरक कुंड बताए गए हैं।
अहं पालने वाला अग्नि कुंड में जाता है।
इसलिए छोटी दीवाली अर्थात नरक चौदस को घर को साफ-सुथरा रखा जाता है।
नरक मुक्ति का जादूई टोटका
इस दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर अपने सिर के ऊपर से एक लंबा घीया (कद्दू) को वार कर नरक से बचाने की भगवान सूर्य से प्रार्थना करते हैं।
वामन अवतार और राजा बलि की कथा
राजा बलि अत्यंत पराक्रमी और महादानी था। देवराज इंद्र उससे डरते थे। उन्हें भय था कि कहीं वह उनका राज्य न ले ले। इसीलिए उन्होंने उससे रक्षा की भगवान विष्णु से गुहार लगाई। तब भगवान विष्णु ने वामन रूप धर कर राजा बलि से तीन पग भूमि मांग ली और उसे पाताल लोक का राजा बना कर पाताल भेज दिया।दक्षिण भारत में मान्यता है कि ओणम के दिन हर वर्ष राजा बलि आकर अपने पुराने राज्य को देखता है। विष्णु भगवान की पूजा के साथ-साथ राजा बलि की पूजा भी की जाती है। नरक चौदस के दिन दीपक जलाने से वामन भगवान खुश होते हैं तथा मनचाहा वरदान देते हैं।
रूप चतुर्दशी
काली चतुर्दशी :– गुजरात में कालि चौदस पर बलिप्रथा
कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि के उपलक्ष्य में काली चौदस और भूत चतुर्दशी का पर्व मनाया जाता है। दिवाली के पंच दिवस उत्सव का यह दूसरा दिन है। मान्यता अनुसार समुद्र मंथन में शरद पूर्णिमा को चंद्रमा, कार्तिक द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशी को धन्वंतरि, चतुर्दशी को काली माता और अमावस्या को भगवती लक्ष्मी जी का सागर से अवतरण हुआ था।
पूर्वी भारत में काली चौदस का पर्व मूल प्रकृति देवी पार्वती के काली स्वरूप अर्थात आद्या काली के प्रकटोत्सव के रूप में मनाया जाता है। कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी पर आद्या काली के पूजन का विशेष महत्व है। काली शब्द काल का प्रतीक है। काल का अर्थ होता है समय या मृत्यु और इसी कारण से उन्हें काली कहा जाता है। तंत्र शास्त्र के साधक महाकाली की साधना को सर्वाधिक प्रभावशाली मानते हैं तथा यह साधना हर कार्य का तुरंत परिणाम देती है। निपुण साधकों को इस शक्तिशाली साधना से अष्ट सिद्धियों की प्राप्ति होती है। काली चौदस पर्व पर महाकाली के विशेष पूजन और उपाय करने से लंबे समय से चल रही बीमारियां दूर होती है। काले जादू के बुरे प्रभाव से छुटकारा मिलता है, बुरी आत्माओं के छाया से मुक्ति मिलती है। कर्ज से मुक्ति मिलती है। बिजनैस की परेशानियां दूर होती हैं। दांपत्य जीवन से तनाव दूर होता हैं। यही नहीं काली चौदस के विशेष पूजन और उपाय करने से शनि ग्रह के दोष व प्रकोप से भी मुक्ति मिलती है।
कालिका पुराण में महामाया को ही काली बताया गया है। तंत्रशास्त्र के अनुसार महाकाली दस महाविद्याओं में प्रथम व समस्त देवताओं द्वारा पूजनीय व अनंत सिद्धियों को प्रदान करने वाली हैं। पापियों के नाश करने हेतु इनके एक हाथ में खडग, दूसरे में वर, तीसरे में अभय मुद्रा तथा चौथे हाथ में कटा हुआ मस्तक है। इनके गले में मुण्डमाला है तथा जिह्वा बाहर निकली है।
काली पूजा का महत्व- दुष्टों और पापियों का संहार करने के लिए माता दुर्गा ने ही मां काली के रूप में अवतार लिया था। माना जाता है कि मां काली के पूजन से जीवन के सभी दुखों का अंत हो जाता है। शत्रुओं का नाश हो जाता है। कहा जाता है कि मां काली का पूजन करने से जन्मकुंडली में बैठे राहू और केतु भी शांत हो जाते हैं। अधिकतर जगह पर तंत्र साधना के लिए मां काली की उपासना की जाती है।
काली पूजा की विधि- दो तरीके से मां काली की पूजा की जाती है, एक सामान्य और दूसरी तंत्र पूजा। सामान्य पूजा कोई भी कर सकता है। माता काली की सामान्य पूजा में विशेष रूप से 108 गुड़हल के फूल, 108 बेलपत्र एवं माला, 108 मिट्टी के दीपक और 108 दुर्वा चढ़ाने की परंपरा है। साथ ही मौसमी फल, मिठाई, खिचड़ी, खीर, तली हुई सब्जी तथा अन्य व्यंजनों का भी भोग माता को चढ़ाया जाता है। पूजा की इस विधि में सुबह से उपवास रखकर रात्रि में भोग, होम-हवन व पुष्पांजलि आदि का समावेश होता है।
‘काली‘ का अर्थ है समय और काल- काल, जो सभी को अपने में निगल जाता है। भयानक अंधकार और श्मशान की देवी। वेद अनुसार ‘समय ही आत्मा है, आत्मा ही समय है’। मां कालिका की उत्पत्ति धर्म की रक्षा और पापियों-राक्षसों का विनाश करने के लिए हुई है। काली को माता जगदम्बा की महामाया कहा गया है। मां ने सती और पार्वती के रूप में जन्म लिया था। सती रूप में ही उन्होंने 10 महाविद्याओं के माध्यम से अपने 10 जन्मों की शिव को झांकी दिखा दी थी।
शस्त्र : त्रिशूल और तलवार
वार : शुक्रवार
दिन : अमावस्या
ग्रंथ : कालिका पुराण
मंत्र : ॐ ह्रीं श्रीं क्रीं परमेश्वरि कालिके स्वाहा
दुर्गा का एक रूप : माता कालिका 10 महाविद्याओं में से एक
मां काली के 4 रूप हैं- दक्षिणा काली, शमशान काली, मातृ काली और महाकाली।
राक्षस वध : माता ने महिषासुर, चंड, मुंड, धूम्राक्ष, रक्तबीज, शुम्भ, निशुम्भ आदि राक्षसों के वध किए थे।
कलियुग में 3 देवता जाग्रत कहे गए हैं- हनुमान, कालिका और भैरव। कालिका की उपासना जीवन में सुख, शांति, शक्ति, विद्या देने वाली बताई गई है। मां कालिका की भक्ति का प्रभाव व्यावहारिक जीवन में मानसिक, शारीरिक और सांसारिक बुराइयों के अंत के रूप में दिखाई देता है जिससे किसी भी इंसान के तनाव, भय और कलह का नाश हो जाता है।
हिन्दू धर्म में सबसे जागृत देवी हैं मां कालिका- मां कालिका को खासतौर पर बंगाल और असम में पूजा जाता है। ‘काली’ शब्द का अर्थ काल और काले रंग से है। ‘काल’ का अर्थ समय। मां काली को देवी दुर्गा की 10 महाविद्याओं में से एक माना जाता है।
माता कालिका के 5 मंदिर
दक्षिणेश्वर काली मंदिर, (पश्चिम बंगाल)- हिन्दू धर्म में सबसे जागृत देवी है मां कालिका। मां कालिका को खासतौर पर बंगाल और असम में पूजा जाता है। मां काली को देवी दुर्गा की दस महाविद्याओं में से एक माना जाता है। मां काली के चार रूप है- दक्षिणा काली, शमशान काली, मातृ काली और महाकाली। मां कालिका के यूं तो हजारों मंदिर है, लेकिन 5 मंदिर ऐसे हैं जिनका कालिका पुराण में उल्लेख मिलता है। कालिका के दरबार में जो एक बार चला जाता है उसका नाम-पता दर्ज हो जाता है। यहां यदि दान मिलता है तो दंड भी। माता के नाम से एक अलग ही पुराण है, जिसमें उनकी महिमा का वर्णन है। रामकृष्ण परमहंस की आराध्या देवी मां कालिका का कोलकाता में विश्व प्रसिद्ध मंदिर है। इस स्थान पर सती देह की दाहिने पैर की चार अंगुलियां गिरी थी। इसलिए यह सती के 52 शक्तिपीठों में शामिल है। इस स्थान पर 1847 में जान बाजार की महारानी रासमणि ने मंदिर का निर्माण करवाया था। 25 एकड़ क्षेत्र में फैले इस मंदिर का निर्माण कार्य सन् 1855 पूरा हुआ। कोलकाता के उत्तर में विवेकानंद पुल के पास स्थित इस पूरे क्षेत्र को कालीघाट कहते हैं।
मां गढ़ कालिका, उज्जैन (मध्यप्रदेश)- उज्जैन के कालीघाट स्थित कालिका माता का प्राचीन मंदिर हैं, जिसे गढ़ कालिका के नाम से जाना जाता है। उज्जैन क्षेत्र में मां हरसिद्धि शक्तिपीठ होने के कारण इस क्षेत्र का महत्व बढ़ जाता है। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि उज्जैन में शिप्रा नदी के तट के पास स्थित भैरव पर्वत पर मां भगवती सती के ओष्ठ गिरे थे। तांत्रिकों की देवी कालिका के इस चमत्कारिक मंदिर की प्राचीनता के विषय में कोई नहीं जानता, फिर भी माना जाता है कि इसकी स्थापना महाभारत काल में हुई थी, लेकिन मूर्ति सतयुग के काल की है। बाद में इस प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्धार सम्राट हर्षवर्धन द्वारा किए जाने का उल्लेख मिलता है। स्टेटकाल में ग्वालियर के महाराजा ने इसका पुनर्निर्माण कराया। कालजयी कवि कालिदास गढ़ कालिका देवी के उपासक थे।
महाकाली शक्तिपीठ, पावागढ़ (गुजरात)- गुजरात की ऊंची पहाड़ी पावागढ़ पर बसा मां कालिका का शक्तिपीठ सबसे जाग्रत माना जाता है। यहां स्थित काली मां को महाकाली कहा जाता है। कालिका माता का यह प्रसिद्ध मंदिर मां के शक्तिपीठों में से एक है। ऐसा माना जाता है कि मां पार्वती के दाहिने पैर की अंगुलियां पावागढ़ पर्वत पर गिरी थी। यह मंदिर गुजरात की प्राचीन राजधानी चंपारण्य के पास स्थित है, जो वडोदरा शहर से लगभग 50 किलोमीटर दूर है। पावागढ़ मंदिर ऊंची पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। रोप-वे से उतरने के बाद आपको लगभग 250 सीढ़ियां चढ़ना होंगी, तब जाकर आप मंदिर के मुख्य द्वार तक पहुंचेंगे।
कालिका मंदिर, कांडा मार्केट-कांडा जिला बागेश्वर (उत्तराखंड)- इस कालिका मंदिर की स्थापना दसवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने की थी। कैलाश यात्रा पर यहां पहुंचे जगद्गुरु शंकराचार्य ने लोगों की रक्षा के लिए मां काली के विग्रह की स्थापना पेड़ की एक जड़ पर की थी। इस स्थान पर 1947 में एक मंदिर बना दिया गया। लोक मान्यता के अनुसार इस क्षेत्र में काल का आतंक था। वह हर साल एक नरबलि लेता था। वह अदृश्य काल जिसका भी नाम लेता, उसकी तत्काल मृत्यु हो जाती थी। लोग परेशान थे। परेशान लोगों ने शंकराचार्य से अपनी आपबीती सुनाई। जगद्गुरु ने स्थानीय लोहारों के हाथों लोहे के नौ कड़ाहे बनवाए। लोक मान्यताओं के अनुसार उन्होंने अदृश्य काल को सात कड़ाहों के नीचे दबा दिया। इसके ऊपर एक विशाल शिला रख दी। उन्होंने यहां एक पेड़ की जड़ पर मां काली की स्थापना की। तब से काल का खौफ खत्म हो गया।
भीमाकाली मंदिर, शिमला (हिमाचल)- शिमला से करीब 180 किलोमीटर की दूरी पर सराहन में व्यास नदी के तट पर भीमाकाली मंदिर स्थित है। माना जाता है कि यहां पर देवी सती के कान गिरे थे। इसलिए यह शक्तिपीठ के रुप में जाना जाता है। यहां पर देवी ने भीम रुप धारण करके असुरों का वध किया था इसलिए देवी भीमा कहलाती हैं। यहां देवी काली की पूजा होती है। कहते हैं भगवान श्री कृष्ण ने यहां वाणासुर का वध किया था। इसके आलावा कालिका के प्राचीन मंदिर, गोवा के नार्थ गोवा में महामाया, कर्नाटक के बेलगाम में, पंजाब के चंडीगढ़ में और कश्मीर में स्थित है।
दीपावली पर दीपों से कैसे सजाएँ घर
दीपावली पर रंगोली से सजाएँ घर-आंगन
सरा दिन- दीपावली पर पूजन
दीपावली पूजा पर राशि अनुसार किस रंग के कपड़े पहनें
इस दीपावली आप अपने कपड़ों से लक्ष्मी को खुश कर सकते हैं और अपने घर आने को मजबुर कर सकते हैं। ऐसा तभी हो सकता है जब आप लक्ष्मी पूजा में राशि अनुसार कपड़े पहनें। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार पूजा पाठ के साथ ही हमारे कपड़ों और सफलता में बहुत गहरा संबंध है। राशि अनुसार रंगों के कपड़े पहनने से हमें अपने कार्यों में सफलता मिलने की संभावना काफी हद तक बढ़ जाती है। अगर राशि अनुसार कपड़े पहनें तो आपको पूजा का पूरा फल मिलेगा।
जानें किस राशि के लोग कैसे कपड़ें पहनें-
मेष और वृश्चिक- मेष और वृश्चिक राशि का स्वामी मंगल है और इस राशि के स्वामी का प्रिय रंग लाल है। इसलिए इन राशि के लोग धन पाने के लिए लक्ष्मी पूजा करते वक्त लाल रंग या लाल रंग से संबंधित शेड वाले कपड़े पहनें।
वृष और तुला- वृष और तुला का ग्रह स्वामी शुक्र है इसका प्रिय रंग सफेद है इसलिए इन राशि वाले लोगों को अधिक से अधिक सफेद रंग की ड्रेस पहनना चाहिए और लक्ष्मी पूजा के लिए तो इस रंग को न भूलें। इसके साथ ही इस राशि वालों को हल्के शेड्स के कपड़े पहनना चाहिए।
मिथुन और कन्या- यह दोनों राशियां बुध ग्रह की हैं। बुध का प्रिय रंग हरा है। अगर इस राशि के लोग लक्ष्मी पूजा के समय हरे रंग के कपड़े या इससे संबंधित शेड पहने तो लक्ष्मी आपके घर से कहीं नहीं जाएगी।
कर्क- कर्क राशि के स्वामी चंद्र का प्रिय रंग सफेद होता है और ज्योतिष में बनने वाले धन योग में चंद्रमा का बहुुत बड़ा रोल है। इसलिए कर्क राशि के लोग अपने घर लक्ष्मी बुलाने के लिए इस रंग का उपयोग करें।
सिंह- अगर इस दीपावली पर सिंह राशि के लोग पीले और सुनहरे रंगों के कपडा़े पर ज्यादा ध्यान दे तो पैसा ही पैसा आएगा।
धनु और मीन- धनु और मीन राशि का ग्रह स्वामी गुरु है और इसका प्रिय रंग पीला है। अत: इस राशि के लोगों को पूजा में पीले रंग के परिधान पहनना चाहिए। इससे सफलता की काफी संभावना बढ़ जाती है।
मकर और कुम्भ- मकर और कुंभ राशि का स्वामी शनि है और शनि का प्रिय रंग नीला और गहरे रंग हैं। अत: इन राशि के लोगों को लक्ष्मी पूजा करते समय बैंगनी या नीले रंग के कपड़े पहनना चाहिए।
दीपावली पर राशि अनुसार कैसे आसन पर बैठना चाहिए…
दीपावली पर मां लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए विशेष पूजन अर्चन किया जाता है। ऐसा माना जाता है इस दिन मां लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होने पर सालभर घर में पैसों से जुड़ी कोई समस्या नहीं रहती है। इसके साथ ही घर में सुख-समृद्धि बनी रहती है और सभी देवी-देवताओं की कृपा प्राप्त होती है। दीपावली पर लक्ष्मी पूजन के लिए कई नियम बताए गए हैं। इन्हीं नियमों में से एक हैं कि आपका आसन पवित्र और पूजन के लिए श्रेष्ठ होना चाहिए। ज्योतिष में सभी राशियों के अनुसार कैसे आसन का प्रयोग करना चाहिए, जानिए…
लक्ष्मीजी के पूजन में आसन का प्रयोग भी महत्वपूर्ण होता हैं। राशिनुसार आप कैसे रंग के आसन का प्रयोग करें जानिए
– मेष एवं मंगल राशि वालों को केसरी या लाल ऊनी आसन श्रेष्ठ रहता है।
– वृषभ एवं शुक्र वालों को सफेद ऊनी आसन का उपयोग करना चाहिए।
– मिथुन एवं कन्या राशि के लोगों को हरा ऊनी आसन पूजन में उपयोग करना चाहिए।
– कर्क राशि के लोगों को सफेद रंग का आसन पूजा के समय प्रयोग किया जाना चाहिए।
– सिंह राशि वालों को लाल रंग के आसन का उपयोग करना चाहिए।
– मकर एवं कुंभ राशि के लोगों को काले अथवा नीले आसन का प्रयोग करना उचित होगा।
– धनु एवं मीन को पीले रंग के आसन का प्रयोग करना चाहिए।
अगर किसी व्यक्ति को राशि अनुसार बताए गए आसन न मिले तो वे कुश के आसन का प्रयोग ही करें।
दिवाली के दिन क्यों की जाती है गणेश-लक्ष्मी की पूजा एक साथ…
लक्ष्मी जी के साथ भगवान विष्णु नहीं बल्कि श्री गणेश का पूजन किया जाता है, लेकिन ऐसा क्यों? यह तो सभी जानते हैं कि लक्ष्मी जी, विष्णु जी की प्राण वल्लभा व प्रियतमा मानी गई हैं. यदि धन की देवी को प्रसन्न करना है तो उनके पति विष्णु जी का उनके साथ पूजन करना आवश्यक माना गया है. शास्त्रों में यह मान्यता है कि लक्ष्मी जी विष्णु जी को कभी नहीं छोड़तीं. वेदों के अनुसार भी विष्णु जी के प्रत्येक अवतार में लक्ष्मी जी को ही उनकी पत्नी का स्थान मिला है. जहां विष्णु जी हैं वहीं उनकी पत्नी लक्ष्मी जी भी हैं. लेकिन फिर भी आज भगवान विष्णु के साथ नहीं बल्कि गणेश के साथ लक्ष्मी का पूजन किया जाता है.
एक पौराणिक कहानी के अनुसार गणेश जी को लक्ष्मी जी का मानस-पुत्र माना गया है
श्री गणेश कैसे बने माता लक्ष्मी के दत्तक पुत्र, पढ़ें यह पौराणिक कथा- गणपति बप्पा माता पार्वती और भोलनाथ के पुत्र हैं ये तो हम सभी जानते हैं। लेकिन यह बहुत कम लोग जानते होंगे कि गणेश जी मां लक्ष्मी के दत्तक पुत्र हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक बार ऐसा हुआ था कि लक्ष्मी जी को स्वयं पर बहुत ज्यादा अभिमान हो गया था। यह अभिमान उन्हें इसलिए हुआ था क्योंकि हर कोई उन्हें पाने के लिए लालायित था और सारा जगत उनकी पूजा करता था। इससे उन्हें स्वयं पर अभिमान हो गया था। उनके अभिमान को विष्णु जी ने भांप लिया था। ऐसे में श्री हरि ने मां लक्ष्मी का घमण्ड व अहंकार ध्वस्त करने का विचार किया। इस उद्देश्य से उन्होंने कहा कि भले ही सारा संसार मां लक्ष्मी की पूजा करता है और सभी उन्हें पाने के लिए व्याकुल रहता है। लेकिन उन्हें फिर भी एक बहुत बड़ी कमी है। वो अभी तक अपूर्ण हैं। यह सुन मां लक्ष्मी ने अपनी यह कमी जाननी चाही। तब विष्णु जी ने उनसे कहा कि जब तक कोई स्त्री मां नहीं बनती है तब तब वह पूर्ण नहीं होती है। ऐसे में वो अपूर्ण हैं।
यह जानकर मां लक्ष्मी अत्यंत व्याकुल हो गईं और उन्हें बेहद दुख हुआ। ऐसे में उन्होंने अपनी सखी माता पार्वती से बात की। उन्होंने कहा कि नि:संतान होना बेहद परेशान कर रहा है। उन्होंने माता पार्वती से कहा कि उनके दो पुत्रों में से गणेश को उन्हें गोद दे दें। माता पार्वती ने उनका दुख दूर करने के लिए यह बात मान ली। बस तभी से गणेश जी माता लक्ष्मी के दत्तक-पुत्र माने जाने लगे। जब मां लक्ष्मी को गणेश जी पुत्र के रूप में प्राप्त हुए तो वे अतिप्रसन्न हो गईं। मां लक्ष्मी ने गणेश जी को यह वरदान दिया कि जो भी उनकी पूजा करेगा लेकिन गणेश की पूजा नहीं करेगा तो मैं उसके पास नहीं रहूंगी। यही कारण है कि मां लक्ष्मी के साथ हमेशा ही उनके दत्तक पुत्र गणेश जी की पूजा की जाती है।
दीपावली पर लक्ष्मी जी के साथ गणेश जी का पूजन करने में संभवत: एक भावना यह भी कही गई है कि मां लक्ष्मी अपने प्रिय पुत्र की भांति हमारी भी सदैव रक्षा करें। हमें भी उनका स्नेह और आशीर्वाद मिलता रहे। लक्ष्मी जी के साथ गणेश पूजन में इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि गणेश जी को सदा लक्ष्मी जी की बाईं ओर रखें। आदिकाल से ही पत्नी को ‘वामांगी’ कहा गया है। सदैव बायां स्थान पत्नी को ही दिया जाता है। अत: पूजा करते समय लक्ष्मी-गणेश को इस प्रकार स्थापित करें कि लक्ष्मी जी सदा गणेश जी के दाहिने हो ओर ही रहें, तभी पूजा का पूर्ण फल प्राप्त होगा।
ऋग्वेद में ब्रह्मणस्पति सूक्त में भी गणेश का उल्लेख है-
गणनां त्वां गणपति हवामहे कविं कवीनामुपं श्रवस्तम्।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत्आनशृण्वं नूतिभि: सीडू नादनम्।। (1/23/1)
अर्थात्- हे गणपति, तू विद्वानों का विद्वान है, ब्रह्म से भी ज्येष्ठ है। इस नई रचना को सुन।
याज्ञवल्क्य स्मृति की मिताक्षरा टीका के लक्ष्मी भाष्य में वालम भट्ट ने इसे गणेश पूजन कहकर उल्लेख किया है। इस भाष्य का नाम “बालम भट्टी’ अथवा “लक्ष्मी व्याख्यान’है यह एक विस्तृत भाष्य है। कहा गया है कि इसकी रचना लक्ष्मी देवी ने की है।
लक्ष्मी विनायक मन्त्र-
ॐ श्री गं सौम्याय गणपतये वरवरद सर्वजनं में वशमानय स्वाहा।। (श्रीतत्त्वचिन्तामणि, अष्टम: प्रकाश:)
इस लक्ष्मी विनायक मंत्र का जाप रोजगार प्राप्ति और आर्थिक वृद्धि के लिए किया जाता है। इस मंत्र के ऋषि अंतर्यामी, छंद गायत्री, लक्ष्मी विनायक देवता हैं, श्रीं बीज और स्वाहा शक्ति है। भगवान श्री गणेश व मां लक्ष्मी के इस मंत्र में ॐ, श्रीं, गं बीजमंत्र हैं जो परमपिता परमात्मा, मां लक्ष्मी, और भगवान श्री गणेश के बीज मंत्र हैं। इस मंत्र का अर्थ है मां लक्ष्मी व विघ्नहर्ता भगवान श्री गणेश की कृपा और आशीर्वाद हमें हर जन्म में मिलता रहे। इनके आशीर्वाद से हम एक स्वस्थ एवं खुशहाल जीवन व्यतीत करें। यें हमें सौभाग्य प्रदान कर हमारी हर बाधा को दूर करें।
देवीभागवत पुराण के अनुसार लक्ष्मी पूजन तभी सफल होता है जब गणेश वंदना के बाद लक्ष्मी-नारायण की आराधना की जाती है.
दीपावली के शुभ अवसर पर ही इस दोनों का पूजन किया जाता है. तांत्रिक दृष्टि से दीपावली को तंत्र-मंत्र को सिद्ध करने तथा महाशक्तियों को जागृत करने की सर्वश्रेष्ठ रात्रि माना गया है. यह तो सभी जानते हैं कि किसी भी कार्य को करने से पहले गणेश जी का पूजन किया जाता है लेकिन इसके साथ ही गणेश जी के विविध नामों का स्मरण सभी सिद्धियों को प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन एवं नियामक भी है. अतः दीपावली की रात्रि को लक्ष्मी जी के साथ निम्न गणेश मंत्र का जाप सर्व सिद्धि प्रदायक माना गया है.
‘‘प्रणम्य शिरसा देवं गौरी पुत्रं विनायकम्॥
भक्तावासं स्मरेन्नित्यं आयुष्य कामार्थ सिद्धये॥ (गणेश स्तोत्र, नारद पुराण)
इसलिए भी पूजा जाता है गणेश जी को- गणेश जी का स्मरण वक्रतुंड, एकदन्त, गजवक्त्र, लंबोदर, विघ्न राजेंद्र, धूम्रवर्ण, भालचंद्र, विनायक, गणपति, एवं गजानन इत्यादि विभिन्न नामों द्वारा किया जाता है. इन सभी रूपों में गणेश जी ने देवताओं को दानवों के प्रकोप से मुक्त किया था. दानवों के अत्याचार के कारण उस समय जो अधर्म और दुराचार का राज्य स्थापित हो गया था, उसे पूर्णतया समाप्त कर न केवल देवताओं को बल्कि दैत्यों को भी अभय दान देकर उन्हें अपनी भक्ति का प्रसाद दिया और उनका भी कल्याण ही किया.
लक्ष्मी गणेश पूजन के पीछे एक किवदंती है :
एक कथा अनुसार लक्ष्मी जी की पूजा गणेश जी के साथ क्यों होती है। एक बार एक वैरागी साधु को राजसुख भोगने की लालसा हुई उसने लक्ष्मी जी की आराधना की। उसकी आराधना से लक्ष्मी जी प्रसन्न हुईं तथा उसे साक्षात् दर्शन देकर वरदान दिया कि उसे उच्च पद और सम्मान प्राप्त होगा। दूसरे दिन वह वैरागी साधु राज दरबार में पहुंचा। वरदान मिलने के बाद उसे अभिमान हो गया। उसने राजा को धक्का मारा जिससे राजा का मुकुट नीचे गिर गया। राजा व उसके दरबारीगण उसे मारने के लिए दौड़े। परन्तु इसी बीच राजा के गिरे हुए मुकुट से एक कालानाग निकल कर भागने लगा।
सभी चौंक गए और सधु को चमत्कारी समझकर उस की जय जयकार करने लगे। राजा ने प्रसन्न होकर साधु को मंत्री बना दिया, क्योंकि उसी के कारण राजा की जान बची थी। साधु को रहने के लिए अलग से महल दिया गया वह शान से रहने लगा। राजा को एक दिन वह साधु भरे दरबार से हाथ खींचकर बाहर ले गया। यह देख दरबारी जन भी पीछे भागे। सभी के बाहर जाते ही भूकंप आया और भवन खण्डहर में तब्दील हो गया। उसी साधु ने सबकी जान बचाई। अतः साधु का मान-सम्मान बढ़ गया। जिससे उसमें अहंकार की भावना विकसित हो गई।
राजा के महल में एक गणेश जी की प्रतिमा थी। एक दिन साधु ने वह प्रतिमा यह कह कर वहां से हटवा दी कि यह प्रतिमा देखने में बिल्कुल अच्छी नहीं है। साधु के इस कार्य से गणेश जी रुष्ठ हो गए। उसी दिन से उस मंत्री बने साधु की बुद्धि बिगड़ गई वह उल्टा पुल्टा करने लगा। तभी राजा ने उस साधू से नाराज होकर उसे कारागार में डाल दिया। साधू जेल में पुनः लक्ष्मीजी की आराधना करने लगा। लक्ष्मी जी ने दर्शन दे कर उससे कहा कि तुमने गणेश जी का अपमान किया है। अतः गणेश जी की आराधना करके उन्हें प्रसन्न करो।
लक्ष्मीजी का आदेश पाकर वह गणेश जी की आराधना करने लगा। इससे गणेश जी का क्रोध शान्त हो गया। गणेश जी ने राजा के स्वप्न में आ कर कहा कि साधु को पुनः मंत्री बनाया जाए। राजा ने गणेश जी के आदेश का पालन किया और साधु को मंत्री पद देकर सुशोभित किया। इस प्रकार लक्ष्मीजी और गणेश जी की पूजा साथ-साथ होने लगी। बुद्धि के देवता गणेश जी की भी उपासना लक्ष्मीजी के साथ अवश्य करनी चाहिए क्योंकि यदि लक्ष्मीजी आ भी जाये तो बुद्धि के उपयोग के बिना उन्हें रोक पाना मुश्किल है। इस प्रकार दीपावली की रात्रि में लक्ष्मीजी के साथ गणेशजी की भी आराधना की जाती है।
दीपावली पर पूजन कैसे करें
दीपावली पर पूजन के लिए सामग्री
महालक्ष्मी पूजन में केसर, रोली, चावल, पान का पत्ता, सुपारी, फल, फूल, दूध, खील, बतासे, सिन्दूर, सूखे मेवे, मिठाई, दही गंगाजल धूप, अगरबत्ती दीपक रुई, कलावा, नारियल और कलश के लिए एक ताम्बे का पात्र चाहिए.
कैसे करें दीपावली पर पूजन की तैयारी
1.एक थाल में या भूमि को शुद्ध करके नवग्रह बनाएं या नवग्रह का यंत्र स्थापित करें. इसके साथ ही एक ताम्बे का कलश रखें, जिसमें गंगाजल, दूध, दही, शहद, सुपारी, सिक्के और लौंग आदि डालकर उसे लाल कपड़े से ढक कर उसपर एक कच्चा नारियल कलावे से बांध कर रख दें.
जहां पर नवग्रह यंत्र बनाया है, वहां पर रुपया, सोना या चांदी का सिक्का, लक्ष्मी जी की मूर्ति या मिट्टी के बने हुए लक्ष्मी-गणेश सरस्वती या ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवी देवताओं की मूर्तियां या चित्र सजायें.
कोई धातु की मूर्ति हो तो उसे साक्षात रूप मानकर दूध, दही और गंगाजल से स्नान कराकर अक्षत, चंदन का श्रृंगार करके फल-फूल आदि से सजाएं. इसके ही दाहिने ओर एक पंचमुखी दीपक अवश्य जलायें जिसमें घी या तिल का तेल प्रयोग किया जाता है.
दीवाली के दिन की विशेषता लक्ष्मी जी के पूजन से संबन्धित है. इस दिन हर घर, परिवार, कार्यालय में लक्ष्मी जी के पूजन के रूप में उनका स्वागत किया जाता है. दीवाली के दिन जहां गृहस्थ और कारोबारी धन की देवी लक्ष्मी से समृद्धि और धन की कामना करते हैं, वहीं साधु-संत और तांत्रिक कुछ विशेष सिद्धियां अर्जित करने के लिए रात्रिकाल में अपने तांत्रिक कर्म करते हैं.
दीपावली पर पूजा का विधान
घर के बड़े-बुजुर्गों को या नित्य पूजा-पाठ करने वालों को महालक्ष्मी पूजन के लिए व्रत रखना चाहिए. घर के सभी सदस्यों को महालक्ष्मी पूजन के समय घर से बाहर नहीं जाना चाहिए. सदस्य स्नान करके पवित्र आसन पर बैठकर आचमन, प्राणायाम करके स्वस्ति वाचन करें. फिर गणेशजी का स्मरण कर अपने दाहिने हाथ में गन्ध, अक्षत, पुष्प, दूर्वा, द्रव्य और जल आदि लेकर दीपावली महोत्सव के निमित्त गणेश, अम्बिका, महालक्ष्मी, महासरस्वती, महाकाली, कुबेर आदि देवी-देवताओं के पूजनार्थ संकल्प करें.
कुबेर पूजन करना लाभकारी होता है. कुबेर पूजन करने के लिये सबसे पहले तिजोरी अथवा धन रखने के संदूक पर स्वास्तिक का चिन्ह बनायें, और कुबेर का आह्वान करें.
सबसे पहले गणेश और अम्बिका का पूजन करें. फिर कलश स्थापन, षोडशमातृका पूजन और नवग्रह पूजन करके महालक्ष्मी आदि देवी-देवताओं का पूजन करें. पूजन के बाद सभी सदस्य प्रसन्न मुद्रा में घर में सजावट और आतिशबाजी का आयोजन करें.
आप हाथ में अक्षत, पुष्प, जल और धन राशि ले लें. यह सब हाथ में लेकर यह संकल्प मंत्र को बोलते हुए संकल्प कीजिए कि ‘मैं अमुक व्यक्ति अमुक स्थान और समय पर अमुक देवी-देवता की पूजा करने जा रहा हूं जिससे मुझे शास्त्रोक्त फल प्राप्त हो’. सबसे पहले गणेश जी और गौरी का पूजन कीजिए.
हाथ में थोड़ा-सा जल ले लें और भगवान का ध्यान करते हुए पूजा सामग्री चढ़ाएं. हाथ में अक्षत और पुष्प ले लें. अंत में महालक्ष्मी जी की आरती के साथ पूजा का समापन करें. घर पूरा धन-धान्य और सुख-समृद्धि हो जाएगा.
दीपावली का विधिवत-पूजन करने के बाद घी का दीपक जलाकर महालक्ष्मी जी की आरती की जाती है. आरती के लिए एक थाली में रोली से स्वास्तिक बनाएं. उस में कुछ अक्षत और पुष्प डालें, गाय के घी का चार मुखी दीपक चलायें. और मां लक्ष्मी की शंख, घंटी, डमरू आदि से आरती उतारें.
आरती करते समय परिवार के सभी सदस्य एक साथ होने चाहिए. परिवार के प्रत्येक सदस्य को माता लक्ष्मी के सामने सात बार आरती घूमानी चाहिए. सात बात होने के बाद आरती की थाली को लाइन में खड़े परिवार के अगले सदस्य को दे देना चाहिए. यही क्रिया सभी सदस्यों को करना चाहिए.
दीपावली पर सरस्वती पूजन करने का भी विधान है. इसके लिए लक्ष्मी पूजन करने के पश्चात मां सरस्वती का भी पूजन करना चाहिए. 9.
दीपावली एवं धनत्रयोदशी पर महालक्ष्मी के पूजन के साथ-साथ धनाध्यक्ष कुबेर का पूजन भी किया जाता है. कुबेर पूजन करने से घर में स्थायी सम्पत्ति में वृद्धि होती है और धन का अभाव दूर होता है. इनका पूजन इस प्रकार करें.
कैसे करें बही-खाता पूजन
बही खातों का पूजन करने के लिए पूजा मुहुर्त समय अवधि में नवीन खाता पुस्तकों पर केसर युक्त चंदन से या फिर लाल कुमकुम से स्वास्तिक का चिन्ह बनाना चाहिए. इसके बाद इनके ऊपर ‘श्री गणेशाय नम:’ लिखना चाहिए. इसके साथ ही एक नई थैली लेकर उसमें हल्दी की पांच गांठे, कमलगट्ठा, अक्षत, दुर्गा, धनिया व दक्षिणा रखकर, थैली में भी स्वास्तिक का चिन्ह लगाकर सरस्वती मां का स्मरण करना चाहिए.
मां सरस्वती का ध्यान करें. ध्यान करें कि जो मां अपने कर कमलों में घटा, शूल, हल, शंख, मूसल, चक्र, धनुष और बाण धारण करती हैं, चन्द्र के समान जिनकी मनोहर कांति है. जो शुंभ आदि दैत्यों का नाश करने वाली है. ‘वाणी’ जिनका स्वरुप है, तथा जो सच्चिदानन्दमय से संपन्न हैं, उन भगवती महासरस्वती का मैं ध्यान करता हूं. ध्यान करने के बाद बही खातों का गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्ध से पूजन करना चाहिए.
जहां पर नवग्रह यंत्र बनाया गया है. वहां पर रुपया, सोना या चांदी का सिक्का, लक्ष्मी जी की मूर्ति या मिट्टी के बने हुए लक्ष्मी-गणेश-सरस्वती जी की मूर्तियां सजायें. कोई धातु की मूर्ति हो तो उसे साक्षात रुप मानकर दूध, दही ओर गंगाजल से स्नान कराकर अक्षत, चंदन का श्रृंगार करके फूल आदि से सजाएं. इसके ही दाहिने और एक पंचमुखी दीपक अवश्य जलायें, जिसमें घी या तिल का तेल प्रयोग किया जाता है.
लक्ष्मी पूजा का स्थान ईशान कोण
मत्स्य पुराण के अनुसार अनेक दीपकों से लक्ष्मीजी की आरती करने को दीपावली कहते हैं। धन-वैभव और सौभाग्य प्राप्ति के लिए दीपावली की रात्रि को लक्ष्मीपूजन के लिए श्रेष्ठ माना गया है। श्रीमहालक्ष्मी पूजन, मंत्रजाप, पाठ तंत्रादि साधन के लिए प्रदोष, निशीथ, महानिशीथ काल व साधनाकाल अनुष्ठानानुसार अलग-अलग महत्व रखते हैं। पूजा के लिए पूजास्थल तैयार करते समय दिशाओं का भी उचित समन्वय रखना जरूरी है।
दिशा: पूजा का स्थान ईशान कोण (उत्तर-पूर्व दिशा) की ओर बनाना शुभ है। इस दिशा के स्वामी भगवान शिव हैं, जो ज्ञान एवं विद्या के अधिष्ठाता हैं। पूजास्थल पूर्व या उत्तर दिशा की ओर भी बनाया जा सकता है।
रंग: पूजास्थल को सफेद या हल्के पीले रंग से रंगें। ये रंग शांति, पवित्रता और आध्यात्मिक प्रगति के प्रतीक हैं।
मूर्तियां: देवी-देवताओं की मूर्तियां तथा चित्र पूर्व-उत्तर दीवार पर इस प्रकार रखें कि उनका मुख दक्षिण या पश्चिम दिशा की तरफ रहे।
कलश; पूजा कलश पूर्व दिशा में उत्तरी छोर के समीप रखा जाए
हवनकुंड या यज्ञवेदी का स्थान पूजास्थल के आग्नेय कोण (दक्षिण-पूर्व दिशा) की ओर रहना चाहिए।
दीप: लक्ष्मीजी की पूजा के दीपक उत्तर दिशा की ओर रखे जाते हैं।
बैठना: पूजा, साधना आदि के लिए उत्तर या पूर्व या पूर्व-उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठना उत्तम है।
तंत्रसाधना के लिए पश्चिम दिशा की तरफ मुख रखा जाता है।
श्रीयंत्र दीपावली में दक्षिणवर्ती शंख का विशेष महत्व है। इस शंख को विजय, सुख-समृद्धि व लक्ष्मीजी का साक्षात प्रतीक माना गया है। दक्षिणवर्ती शंख को पूजा में इस प्रकार रखें कि इसकी पूंछ उत्तर-पूर्व दिशा की ओर रहे। श्रीयंत्र लक्ष्मीजी का प्रिय है। इसकी स्थापना उत्तर-पूर्व दिशा में करनी चाहिए।
मंत्र: लक्ष्मीजी के मंत्रों का जाप स्फटिक व कमलगट्टे की माला से किया जाता है। इसका स्थान पूजास्थल के उत्तर की ओर होना चाहिए। श्री आद्यशंकराचार्य द्वारा विरचित ‘श्री कनकधारा स्रोत’ का पाठ वास्तुदोषों को दूर करता है। दीपावली के दिन श्रीलक्ष्मी पूजन के पश्चात श्रीकनकधारा स्रोत का पाठ किया जाए तो घर की नकारात्मक ऊर्जा का नाश हो जाने से सुख-समृद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है।
दीपावली और कुछ प्रभावशाली टिप्स…….घर में कैसे करें लक्ष्मी को खुश
दीपावली की रात सिद्धियों की रात होती है। ये सिद्धियां प्राप्त करना आम जन के लिए अत्यधिक कठिन होता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए यहां कुछ सरल उपाय दिए जा रहे हैं, जिन्हें दीपावली के अवसर पर अपना कर आम लोग भी अपने जीवन को सुखमय बना सकते हैं।
टिप्स
दीपावली के पूजन के दौरान संपूर्ण परिसर में दक्षिणावर्ती शंख से गंगाजल का छिड़काव करें, नारायण का वास बना रहेगा। जहां नारायण का वास हो, वहां लक्ष्मी स्वतः विराजमान हो जाती हैं।
दीपावली पूजन के पश्चात् संपूर्ण परिसर में गुग्गुल का धुआं दें। यह बुरी आत्माओं और आसुरी शक्तिओं से रक्षा करता है।
पूजन के दौरान माता लक्ष्मी को बेलपत्र व कमल का फूल अवश्य चढ़ाएं। कुछ लोग कमल के फूल व बेलपत्र को केवल भगवान शिव हेतु उपयुक्त मानते हैं, जबकि बेलपत्र व कमल के फूल की माला लक्ष्मी को अर्पित करने से वैभव की प्राप्ति होती है।
पूजन के पश्चात् मध्य रात्रि में परिवारजनों के साथ बैठकर श्रद्धापूर्वक श्री विष्णुसहस्रनाम अथवा श्री गोपाल सहस्रनाम तथा श्री लक्ष्मी सहस्रनाम का 11 या कम से कम एक बार पाठ अवश्य करें।
साधक जिस मंत्र का जप नित्य करते हों, या जो उनका प्रिय मंत्र हो अथवा जिस मंत्र का जप वह भविष्य में करना चाहते हों, उसे दीपावली की रात सिद्ध कर सकते हैं। मध्य रात्रि में इस मंत्र का 108 या 11 या फिर कम से कम एक माला जप संबंधित देवी देवता का ध्यान करके करें। इससे मंत्र सिद्ध हो जाएगा तथा उसका प्रभाव कई गुना बढ़ जाएगा।
घर में भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी के स्थायी वास के लिए दीपावली पूजन के समय श्री नारायण सूक्त व श्री सूक्त का पाठ अवश्य करें।
दीपावली पूजन में सोने के आभूषण या सिक्के का अधिक महत्व है। इसे पूजा स्थल पर रखकर कनकधारा स्तोत्र का पाठ करें, माता लक्ष्मी के आशीर्वाद से घर धन-धान्य और स्वर्णाभूषणां से भरा रहेगा। सोने के अभाव में चांदी का उपयोग भी कर सकते हैं।
दीपावली पूजन में भगवान कुबेर का पूजन अवश्य करें, घर अन्न-धन से भरा रहेगा।
बहुत से विद्वान दीपावली की मध्य रात्रि में बगलामुखी मंत्र सिद्धि का परामर्श देते हैं। किंतु ध्यान रहे कि यह एक परम शक्तिशाली मंत्र है, इसलिए केवल गंभीर परिस्थितियों में और किसी योग्य गुरु की देखरेख में ही इसे सिद्ध करना चाहिए।
दीपावली के दिन वस्तुओं को लांघना अशुभ होता है। अतः इस अत्यधिक सावधानी बरतें। चौक-चौराहों को देखकर ही पार करें।
ऊपर वर्णित टिप्स आम जन को ध्यान में रखकर बताए गए हैं। लोग पंडित, पुजारी या तांत्रिक से मार्गदर्शन लेकर अन्य साधनाएं भी कर सकते हैं। दीपावली का मुहूर्त एक दुर्लभ और प्रभावशाली मुहूर्त होता है। अतः हर व्यक्ति को इसका लाभ उठाना चाहिए।
लक्ष्मी किस घर में करती हैं निवास
लक्ष्मी कहां रहती हैं
मधुर बोलने वाला, कर्तव्यनिष्ठ, ईश्वर भक्त, कृतज्ञ, इन्द्रियों को वश में रखने वाले, उदार, सदाचारी, धर्मज्ञ, माता-पिता की भक्ति भावना से सेवा करने वाले, पुण्यात्मा, क्षमाशील, दानशील, बुद्धिमान, दयावान और गुरु की सेवा करने वाले लोगों के घर में लक्ष्मी का स्थिर वास होता है।
जिसके घर में पशु-पक्षी निवास करते हों, जिसकी पत्नी सुंदर हो, जिसके घर में कलह नहीं होता हो, उसके घर में लक्ष्मी स्थायी रूप से रहती हैं।
जो अनाज का सम्मान करते हैं और घर आए अतिथि का स्वागत सत्कार करते हैं, उनके घर लक्ष्मी निश्चत रूप से रहती हैं।
जो व्यक्ति असत्य भाषण नहीं करता, अपने विचारों में डूबा हुआ नहीं रहता, जो घमंडी नहीं होता, जो दूसरों के प्रति प्रेम रखता है, जो दूसरों के दुख से दुखी होकर उसकी सहायता करता है और जो दूसरों के कष्ट को दूर करने में आनंद अनुभव करता है, लक्ष्मी उसके घर में स्थायी रूप से वास करती हैं।
जो नित्य स्नान करता है, स्वच्छ वस्त्र धारण करता है, जो दूसरी स्त्रियों पर कुदृष्टि नहीं रखता, उसके जीवन तथा घर में लक्ष्मी सदा बनी रहती हैं।
आंवले के फल में, गोबर में, शंख में, कमल में और श्वेत वस्त्र में लक्ष्मी का वास होता है।
जिसके घर में नित्य उत्सव होता है, जो भगवान शिव की पूजा करता है, जो घर में देवताओं के सामने अगरबत्ती व दीपक जलाता है, उसके घर में लक्ष्मी वास करती है।
जो स्त्री पति का सम्मान करती है, उसकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करती, घर में सबको भोजन कराकर फिर भोजन करती है, उस स्त्री के घर में सदैव लक्ष्मी का वास रहता है।
जो स्त्री सुंदर, हरिणी के समान नेत्र वाली, पतली कटि वाली, सुंदर केश श्रृंगार करने वाली, धीरे चलने वाली और सुशील हो, उसके शरीर में लक्ष्मी वास करती हैं।
जिसकी स्त्री सुंदर व रूपवती होती है, जो अल्प भोजन करता है, जो पर्व के दिनों में मैथुन का परित्याग करता है, लक्ष्मी उसके घर में निश्चित रूप से वास करती हैं।
जो सूर्योदय से पहले (ब्रह्म मुहूर्त में) उठकर स्नान कर लेता है, उस पर लक्ष्मी की कृपा सदा बनी रहती है।
जो गया धाम में, कुरुक्षेत्र में, काशी में, हरिद्वार में अथवा संगम में स्नान करता है, वह लक्ष्मीवान होता है।
जो एकादशी तिथि को भगवान विष्णु को आंवला फल भेंट करता है, वह सदा लक्ष्मीवान बना रहता है।
जिन लोगों की देवता, साधु और ब्राह्मण में आस्था रहती है, उनके घर में लक्ष्मी का स्थायी वास होता है।
जो घर में कमल गट्टे की माला, लघु नारियल, दक्षिणावर्त शंख, पारद शिवलिंग, श्वेतार्क गणपति, मंत्रसिद्ध श्री यंत्र, कनकधारा यंत्र, कुबेर यंत्र आदि स्थापित कर नित्य उनकी पूजा करता है, उसके घर से लक्ष्मी पीढ़ियों तक वास करती हैं।
धर्म और नीति पर चलने वाले तथा कन्याओं का सम्मान करने लोगों के जीवन और घर में लक्ष्मी स्थायी रूप से वास करती हैं।
दीपावली लक्ष्मी पूजा श्रीयंत्र की स्थापना कैसे करें
लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए दीपावली के शुभ अवसर पर उनके विभिन्न यंत्रों की पूजा साधना की जाती है। श्रीयंत्र का सीधा अर्थ है- लक्ष्मी प्राप्ति का यंत्र।
श्री यंत्र कुबेर यंत्र और लक्ष्मी गणेश यंत्र की स्थापना
और सिद्धि महालक्ष्मी की रात्रि
आठों सिद्धियां प्रदान करने वाली अष्टलक्ष्मी इस प्रकार हैं- धन लक्ष्मी, ऐश्वर्यलक्ष्मी, धान्य लक्ष्मी, संतान लक्ष्मी, गजलक्ष्मी, वीर लक्ष्मी, विजय लक्ष्मी और अधि लक्ष्मी।
लक्ष्मी जी देवलोक में स्वर्गलक्ष्मी के नाम से
पाताललोक में नागलक्ष्मी
राजाओं के यहां राजलक्ष्मी तथा
गृहस्थों के यहां गृहलक्ष्मी के रूप में जानी जाती हैं
श्री यंत्र
The Shri Yantra is a Yantra formed by Nine interlocking triangles That surround and radiate out from the bindu point, the junction point between the physical universe and its unmanifest source. It represents Sri Lakshmi, the goddess of abundance on all levels, in abstract geometric form.
Four of the triangles point upwards, representing Shiva or the Masculine.
Five of these triangles point downwards, representing Shakti or the Feminine. Thus the Sri Yantra also represents the union of Masculine and Feminine Divine. Because it is composed of Nine triangles, it is known as the Navayoni Chakra.
Together the nine triangles are interlaced in such a way as to form 43 smaller triangles in a web symbolic of the entire cosmos or a womb symbolic of creation.
This is surrounded by a lotus of eight petals, a lotus of sixteen petals, and an earth square resembling a temple with four doors.
The Shri Yantra is based on the Hindu philosophy of Kashmir Shaivism.
श्रीयंत्र साधना : श्रीयंत्र का अर्थ है- लक्ष्मी प्राप्ति का यंत्र
श्रीयंत्र साधना तंत्र-विज्ञान की सर्वोत्कृष्ट देन है। श्री यंत्र के अर्चन से श्री, धन, लक्ष्मी, यश, समृद्धि में परिपुष्टता प्राप्त होती है। हमने यहाँ श्रीयंत्र साधना से जुड़े विभिन्न पहलुओं की जानकारी उपलब्ध कराई है। दीपावली की रात्रि में: को पूजा स्थल पर दीपावली पर स्थापित करें और वर्ष भर प्रतिदिन किसी भी लक्ष्मी मंत्र का एक माला जप करते रहें। इससे धन आगमन बना रहता है।
श्री यंत्र की स्थापना और पूजन का विधान
श्री यंत्र की घर में स्थापना करनी हो तो साथ में इन चार तांत्रिक प्रभाव वाली वस्तुओं की स्थापना भी करनी चाहिए-
1- श्वेतार्क गणपति 2- पारद शिवलिंग 3-दक्षिणावर्ती शंख और 4- एकाक्षी श्रीफल
श्री यंत्र की स्थापना और पूजा विधिवत की जाए और दक्षिणावर्ती शंख से इसका अभिषेक किया जाए तो कोई भी मनोकामना अधूरी नहीं रह सकती। श्रीयंत्र की अधिष्ठात्री देवी त्रिपुर सुंदरी का विधिवत श्रीयंत्र पर आवाहन पूजन करके मंत्र जप करना चाहिए।
मंत्र : ॥ ह्रीं दक्षिणावर्ती शंखाय मम सर्व क्लेश हराय संकट मोचनाय हीं नम:॥
सब काम सिद्ध करता है श्रीयंत्र
श्रीयंत्र विद्या के अधिपति साक्षात ब्रह्माजी हैं।
भगवान ब्रह्मा ने मानव कल्याण के लिए कई सार्थक यंत्रों की खोज की।
इनकी पूजा एवं प्रतिष्ठा आज भी पुष्करराज में होती है।
श्रीयंत्र की अधिष्ठात्री देवी श्री त्रिपुर सुंदरी
इसका नियमित पूजन करने से रोग और कष्ट दूर हो जाते हैं और सभी इच्छाएं भी पूर्ण हो जाती हैं।
इसकी रचना आदि शंकराचार्य द्वारा आदि देव महादेव की सहायता से की गई थी।
आदि गुरु शंकराचार्य ने विश्व की शांति और प्राकृतिक आपदाओं से मुक्त रखने के उद्देश्य से इस स्फटिक श्रीयंत्र की स्थापना की थी।
यक्ष, किन्नर, दानव, मानव आदि सभी लोग यंत्र और तंत्र का प्रयोग करते थे।
भगवान दत्तात्रेय द्वारा रचित इंद्रजाल ग्रंथ में
कई लोकोपयोगी यंत्रों की महिमा का बखान है। इन यंत्रों की सिद्धि और सफलता सार्थक श्रम पर निर्भर करती है। यंत्रों की स्थापना दीपावली की महारात्रि पर करना विशेष फलदायक माना जाता है।
श्रीयंत्र की महिमा
जिस तरह सभी कवचों में जिस तरह चंडी कवच श्रेष्ठ है,
उसी तरह यंत्रों में श्रीयंत्र को सर्वश्रेष्ठ माना गया है
इसे यंत्रराज व यंत्र शिरोमणि नाम से भी माना गया है
यह यंत्र बेहद शक्तिशाली है और ललित-देवी का पूजा चक्र है। इसको त्रैलौक्य मोहन अर्थात तीनों लोकों का सम्मोहन करने वाला भी माना गया है। श्रीयंत्र को रोग और कष्ट दूर करने वाला यानी सर्वव्याधि निवारक माना गया है। इसका नियमित पूजन करने वाले के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। इसके पूजन से सभी तरह की इच्छाएं पूरी होती हैं।
श्रीयंत्र का आकार
इसके मध्य भाग में बिंदु व छोटे-बड़े मुख्य नौ त्रिकोण होते हैं। बिंदु, त्रिकोण, अष्टकोण, अंतर्दशा कोण, बहिर्दश कोण, चतुर्दश कोण, अष्टदल, षोडशदल एवं भूपुर यह सब मिलकर श्रीयंत्र के नौ चक्र बनाते हैं। इन नौ त्रिकोणों से बने 43 त्रिकोण, दो कमल दल भूपुर, एक चतुर्रस 43 त्रिकोणों से र्निर्मित उन्नत श्रंग के समान मेरुपृष्ठीय श्रीयंत्र अलौकिक शक्ति एवं चमत्कारों से भरपूर होता है।
श्रीयंत्र की स्थापना
श्रीयंत्र को गंगाजल, दूध से स्वच्छ करके पूजा स्थान में स्थापित करना चाहिए। व्यापारिक स्थान या अन्य शुद्ध स्थानों पर भी पूर्व दिशा में इसकी स्थापना कर नियमित रूप से पूजा-अर्चना करें। इसकी पूजा पूर्व दिशा की ओर मुख करके ही की जाती है। अतः इस बात का ध्यान रखें कि इसकी स्थापना घर, मकान, व्यापारिक प्रतिष्ठान आदि जगहों पर पूर्व दिशा की ओर ही होनी चाहिए।
स्थापना के लिए शुभ मुहूर्त
दीपावली, धनतेरस, बसंत पंचमी, या पौष मास की संक्राति के दिन अगर रविवार हो, तो इस यंत्र का निर्माण एवं पूजन विशेष महत्वपूर्ण माना गया है.
समृद्धि के लिए घर में हो श्रीयंत्र
दीपावली पर स्थापित करें स्फटिक का ‘श्रीयंत्र’। इससे समृद्धि आती है।
स्फटिक का श्रीयंत्र अध्यात्म जगत में रत्नगर्भा लक्ष्मी यंत्र के नाम से विख्यात है। श्रीयंत्र को अष्ठ लक्ष्मी श्रीयंत्र के रूप में भी जाना जाता है।
16 शक्तियों, 64 योगिनियों और नव दुर्गा की शक्ति स्फटिक श्रीयंत्र में निहित है। अभिमंत्रित किया हुआ श्रीयंत्र ही शुभ फलदायी माना जाता है। इसे लक्ष्मी पूजन पंचामृत से स्नान कराकर स्थापित करके मां लक्ष्मी की अराधना करनी चाहिए। इसे पूर्ण प्रतिष्ठा से स्थापित करें।
3. इस यंत्र को स्थापित करने से मां लक्ष्मी की कृपा से जीवन में उन्नति,धन, रोजगार, व्यापार में वृद्धि, सुख, सौभाग्य, निरोगिता, कर्ज से मुक्ति, सुपुत्र प्राप्ति आदि की
इच्छाएं पूरी होती हैं। ये कामधेनु की तरह फल देने वाला और कल्पवृक्ष की तरह मनोकामना पूर्ण करने वाला माना गया है।
अन्य यंत्र
कनकधारा यंत्र
आज के युग में हर व्यक्ति शीघ्रातिशीघ्र धनवान बनना चाहता है। धन प्राप्ति हेतु कनकधारा यंत्र के सामने बैठकर कनकधारा स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। इस यंत्र की उपासना से ऋण और दरिद्रता से शीघ्र मुक्ति मिलती है। साथ ही बेरोजगारों को रोजी मिलती है और व्यापारियों के व्यापार में उन्नति होती है। कनकधारा स्तोत्र की रचना ही कुछ इस प्रकार से गुच्छित है कि एक विशेष अलौकिक दिव्य प्रभाव उत्पन्न होता है। यह यंत्र अत्यंत दुर्लभ परंतु लक्ष्मी प्राप्ति के लिए रामबाण और यह स्तोत्र अपने आप में अचूक, स्वयंसिद्ध तथा ऐश्वर्य प्रदान करने में समर्थ है। इस यंत्र की उपासना से रंक भी धनवान हो जाता है। परंतु इसकी प्राण प्रतिष्ठा की विधि जटिल है। इस जटिल विधि के कारण इसे कम ही लोग सिद्ध कर पाते हैं। कथा है कि जगद्गुरु शंकराचार्य ने एक दरिद्र ब्राह्मण के घर इस स्तोत्र का पाठकर स्वर्ण वर्षा कराई थी। प्रसिद्ध गं्रथ शंकर दिग्विजय के चौथे सर्ग में इस घटना का उल्लेख है। मंत्र- ÷ ओम वं श्रीं वं ऐं ह्रीं-श्रीं क्लीं कनक धारयै स्वाहा’
हम सभी जीवन में आर्थिक तंगी को लेकर बेहद परेशान रहते हैं। धन प्राप्ति के लिए हरसंभव श्रेष्ठ उपाय करना चाहते हैं। धन प्राप्ति और धन संचय के लिए पुराणों में वर्णित कनकधारा यंत्र एवं स्तोत्र चमत्कारिक रूप से लाभ प्रदान करते हैं। इस यंत्र की विशेषता भी यही है कि यह किसी भी प्रकार की विशेष माला, जाप, पूजन, विधि-विधान की माँग नहीं करता बल्कि सिर्फ दिन में एक बार इसको पढ़ना पर्याप्त है।
साथ ही प्रतिदिन इसके सामने दीपक और अगरबत्ती लगाना आवश्यक है। अगर किसी दिन यह भी भूल जाएँ तो बाधा नहीं आती क्योंकि यह सिद्ध मंत्र होने के कारण चैतन्य माना जाता है। वेबदुनिया के यूजर्स के लिए हम दे रहे हैं कनकधारा स्तोत्र का संस्कृत पाठ एवं हिन्दी अनुवाद। आपको सिर्फ कनकधारा यंत्र कहीं से लाकर पूजाघर में रखना है।
यह किसी भी तंत्र-मंत्र संबंधी सामग्री की दुकान पर आसानी से उपलब्ध है। माँ लक्ष्मी की प्रसन्नता के लिए जितने भी यंत्र हैं, उनमें कनकधारा यंत्र तथा स्तोत्र सबसे ज्यादा प्रभावशाली एवं अतिशीघ्र फलदायी है।
बीसा यंत्र
व्यापार में वृद्धि और उन्नति के लिए इस यंत्र को दीपावली के दिन लक्ष्मी गणेश के पूजन स्थान के समीप या दुकान अथवा फैक्ट्री में स्थापित कर इसका धूप, दीप आदि से पूजन अर्चन करना चाहिए।
तंत्र शास्त्र में चमत्कारी बीसा यंत्र का उल्लेख मिलता है। इस यंत्र के कई स्वरूप हैं, जो धन, समृद्धि, वैभव प्राप्ति के लिए, तनाव, कष्ट, विपदाओं से बचने के लिए और रोग-व्याधियों से मुक्ति के लिए लाभदायक रहते हैं। इन यंत्रों को शुभ मुहूर्त में शास्त्रोक्त विधि से तैयार करके और अभिमंत्रित द्वारा सिद्ध करके यदि पूजा-अर्चना की जाए तो मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं।
बीसा यंत्र को रवि-पुष्य, रवि-हस्त, गुरु-पुष्य, नवरात्रि, धनतेरस, दीपावली या सूर्य-चंद्रग्रहण में लाभ के चौघड़िए में शास्त्रोक्त विधि से तैयार किया जाना चाहिए। शुभ मुहूर्त में अनार की डाली तोड़कर पत्थर पर घिसकर कलम तैयार करनी चाहिए। इस यंत्र को भोजपत्र पर, भोजपत्र की अनुपलब्धि में कोरे कागज पर अष्टगंध स्याही (अर्थात- केसर, कस्तूरी, गोरोचन, लाल चंदन, सफेद चंदन, कपूर, अगर-तगर और कुमकुम मिलाकर बनाई स्याही), यदि यह उपलब्ध न हो तो केसर की स्याही से अंकित करना चाहिए।
इस यंत्र का विधिवत पूजन कर मंत्रोच्चारण के साथ ध्यान करने पर कार्य सिद्धि तथा विपत्ति निवारण होता है। बीसा यंत्रों की आकृतियाँ निम्नानुसार दी जा रही हैं- 1. धन संपत्ति, व्यापार में सफलता एवं निरंतर उन्नति करने के लिए बीसा यंत्र :
बीसा यंत्र को रवि-पुष्य, रवि-हस्त, गुरु-पुष्य, नवरात्रि, धनतेरस, दीपावली या सूर्य-चंद्रग्रहण में लाभ के चौघड़िए में शास्त्रोक्त विधि से तैयार किया जाना चाहिए। शुभ मुहूर्त में अनार की डाली तोड़कर पत्थर पर घिसकर कलम तैयार करनी चाहिए।
दीपावली के पूर्व आने वाले पुष्य नक्षत्र में, धनतेरस या दीपावली के दिन लाभ के चौघड़िए में घर में, पूजागृह में, मंदिर, दुकान या व्यापार के स्थान पर ईशान कोण की पश्चिम मुखी दीवार पर शुद्ध घी-सिंदूर से इन्हें अंकित करना चाहिए। इससे सुख-समृद्धि एवं वैभव बना रहता है। शुभ मुहूर्त में ‘ओम् हीं हीं श्रीं श्रीं क्रीं क्रीं स्थिरां ओम्’ का 11 बार जाप करें, साथ में लक्ष्मीजी एवं गणेशजी के अष्टकम् स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। इसके साथ लक्ष्मीजी-गणेशजी की पूजा करें तो उत्तम रहेगा। समस्या, तनाव, विपत्ति दूर करने के लिए तथा शत्रुनाश हेतु निम्नांकित बीसा यंत्रों को विधिवत तैयार करके पूजा-आराधना करनी चाहिए। साथ ही दुर्गा देवी के दुर्गा स्तोत्र का वाचन शीघ्र लाभ करता है।
चौथा दिन- गोवर्धन पूजा
दीपावली के अगले दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को अन्नकूट उत्सव मनाया जाता है। अन्नकूट या गोवर्धन पूजा भगवान श्रीकृष्ण के अवतार के बाद द्वापर युग से प्रारंभ हुई। यह ब्रजवासियों का मुख्य त्योहार है। इस दिन मंदिरों में विविध प्रकार की खाद्य सामग्रियों से भगवान को भोग लगाया जाता है। इस दिन गाय-बैल आदि पशुओं को स्नान कराके धूप-चंदन तथा फूल माला पहनाकर उनका पूजन किया जाता है। इस दिन गौमाता को मिठाई खिलाकर उसकी आरती उतारते हैं तथा प्रदक्षिणा भी की जाती है।
कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा एवं अन्नकूट उत्सव मनाना जाता है। इस दिन प्रातः जल्दी उठकर घर के द्वार पर गोबर से गोवर्धन बनाकर उसे पेड़ की शाखों एवं फूलों से सजाकर उसका एवं गायों का पूजन करना चाहिए। इस दिन मंदिरों में भगवान को छप्पन प्रकार का भोग लगाकर उसे प्रसाद रूप में वितरित करना चाहिए।
मान्यता- जब कृष्ण ने ब्रजवासियों को मूसलधार वर्षा से बचाने के लिए 7 दिन तक गोवर्धन पर्वत को अपनी सबसे छोटी उंगली पर उठाकर इन्द्र का मान-मर्दन किया तथा उनके सुदर्शन चक्र के प्रभाव से ब्रजवासियों पर जल की एक बूंद भी नहीं पड़ी, सभी गोप-गोपिकाएं उसकी छाया में सुखपूर्वक रहे, तब ब्रह्माजी ने इन्द्र को बताया कि पृथ्वी पर श्रीकृष्ण ने जन्म ले लिया है, उनसे बैर लेना उचित नहीं है। तब श्रीकृष्ण अवतार की बात जानकर इन्द्रदेव अपने इस कार्य पर बहुत लज्जित हुए और भगवान श्रीकृष्ण से क्षमा-याचना की।
अन्न कूट- एक प्रकार से सामूहिक भोज का आयोजन है जिसमें पूरा परिवार और वंश एक जगह बनाई गई रसोई से भोजन करता है। इस दिन चावल, बाजरा, कढ़ी, साबुत मूंग, चौड़ा तथा सभी सब्जियां एक जगह मिलाकर बनाई जाती हैं। मंदिरों में भी अन्नकूट बनाकर प्रसाद के रूप में बांटा जाता है।
पूजन विधि
इस दिन प्रात: गाय के गोबर से गोवर्धन बनाया जाता है। अनेक स्थानों पर इसके मनुष्याकार बनाकर पुष्पों, लताओं आदि से सजाया जाता है। शाम को गोवर्धन की पूजा की जाती है। पूजा में धूप, दीप, नैवेद्य, जल, फल, फूल, खील, बताशे आदि का प्रयोग किया जाता है।
पूजा के बाद गोवर्धनजी के सात परिक्रमाएं उनकी जय बोलते हुए लगाई जाती हैं। परिक्रमा के समय एक व्यक्ति हाथ में जल का लोटा व अन्य खील (जौ) लेकर चलते हैं। जल के लोटे वाला व्यक्ति पानी की धारा गिराता हुआ तथा अन्य जौ बोते हुए परिक्रमा पूरी करते हैं।
गोवर्धनजी गोबर से लेटे हुए पुरुष के रूप में बनाए जाते हैं। इनकी नाभि के स्थान पर एक कटोरी या मिट्टी का दीपक रख दिया जाता है। फिर इसमें दूध, दही, गंगाजल, शहद, बताशे आदि पूजा करते समय डाल दिए जाते हैं और बाद में इसे प्रसाद के रूप में बांट देते हैं।
इस दिन प्रात:तेल मलकर स्नान करना चाहिए। इस दिन पूजा का समय कहीं प्रात:काल है तो कहीं दोपहर और कहीं पर सन्ध्या समय गोवर्धन पूजा की जाती है। इस दिन सन्ध्या के समय दैत्यराज बलि का पूजन भी किया जाता है।
अन्नकूट में चंद्र-दर्शन अशुभ माना जाता है। यदि प्रतिपदा में द्वितीया हो तो अन्नकूट अमावस्या को मनाया जाता है।
गोवर्धन गिरि भगवान के रूप में माने जाते हैं और इस दिन उनकी पूजा अपने घर में करने से धन, धान्य, संतान और गोरस की वृद्धि होती है। आज का दिन तीन उत्सवों का संगम होता है।
विश्वकर्मा पूजा- इस दिन दस्तकार और कल-कारखानों में कार्य करने वाले कारीगर भगवान विश्वकर्मा की पूजा भी करते हैं। इस दिन सभी कल-कारखाने तो पूर्णत: बंद रहते ही हैं, घर पर कुटीर उद्योग चलाने वाले कारीगर भी काम नहीं करते। भगवान विश्वकर्मा और मशीनों एवं उपकरणों का दोपहर के समय पूजन किया जाता है।
पांचवां दिन- यम द्वितीया या भाईदूज
कार्तिक शुक्ल पक्ष की द्वितीया को भाईदूज या यम द्वितीया का पर्व मनाया जाता है। इस दिन यमराज की पूजा की जाती है। भाईदूज के दिन बहनों को अपने भाइयों को आसन पर बैठाकर तिलक लगाकर आरती उतारनी चाहिए एवं उसे विभिन्न प्रकार के व्यंजन अपने हाथ से बनाकर खिलाना चाहिए।
महत्व- रक्षाबंधन के बाद भैया दूज दूसरा ऐसा त्योहार है जिसे भाई-बहन बेहद उत्साह के साथ मनाते हैं. जहां, रक्षाबंधन में भाई अपनी बहन को सदैव उसकी रक्षा करने का वचन देते हैं वहीं भाई दूज के मौके पर बहन अपने भाई की लंबी आयु के लिए प्रार्थना करती है. कई जगहों पर इस दिन बहनें अपने भाइयों को तेल लगाकर उन्हें स्नान भी कराती हैं. यमुना नदी में स्नान कराना अत्यंत शुभ माना जाता है. अगर यमुना में स्नान संभव न हो तो भैया दूज के दिन भाई को अपनी बहन के घर नहाना चाहिए. अगर बहन विवाहित है तो उसे अपने भाई को आमंत्रित कर उसे घर पर बुलाकर यथा सामर्थ्य भोजन कराना चाहिए. इस दिन भाइयों को चावल खिलाना अच्छा माना जाता है. अगर सगी बहन नहीं है तो ममेरी या चचेरी बहन के साथ भी इस त्योहार को मनाया जा सकता है. इस त्योहार का संदेश यही है कि भाई-बहन के बीच प्यार हमेशा बना रहना चाहिए. चाहे दोनों अपनी-अपनी जिंदगी में कितने ही व्यस्त क्यों न हों लेकिन एक-दूसरे के साथ कुछ पल तसल्ली के जरूर गुजारने चाहिए.
– भैया दूज के दिन नहा-धोकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें. वैसे इस दिन बहनें नए कपड़े पहनती हैं.
– इसके बाद अक्षत (ध्यान रहे कि चावल खंडित न हों), कुमकुम और रोली से आठ दल वाला कमल का फूल बनाएं.
– अब भाई की लंबी उम्र और कल्याण की कामना के साथ व्रत का संल्प लें.
– अब विधि-विधान के साथ यम की पूजा करें.
– यम की पूजा के बाद यमुना, चित्रगुप्त और यमदूतों की पूजा करें.
– अब भाई को तिलक लगाकर उनकी आरती उतारें.
– इस मौके पर भाई को यथाशक्ति अपनी बहन को उपहारा या भेंट देनी चाहिए.
– पूजा होने तक भाई-बहन दोनों को ही व्रत करना होता है.
– पूजा संपन्न होने के बाद भाई-बहन साथ में मिलकर भोजन करें.
पूजा विधि- इस पूजा में भाई की हथेली पर बहनें चावल का घोल लगाती हैं उसके ऊपर सिन्दूर लगाकर कद्दू के फूल, पान, सुपारी मुद्रा आदि हाथों पर रखकर धीरे धीरे पानी हाथों पर छोड़ते हुए कहती हैं जैसे “गंगा पूजे यमुना को यमी पूजे यमराज को, सुभद्रा पूजा कृष्ण को, गंगा यमुना नीर बहे मेरे भाई की आयु बढ़े”। मान्यता है कि इस दिन अगर बड़े से बड़ा पशु काट भी ले तो यमराज के दूत भाई के प्राण नहीं ले जाएंगे। इस दिन शाम के समय बहनें यमराज के नाम से चौमुख दीया जलाकर घर के बाहर रखती हैं। इस समय ऊपर आसमान में चील उड़ता दिखाई दे तो बहुत ही शुभ माना जाता है। माना जाता है कि बहनें भाई की आयु के लिए जो दुआ मांग रही हैं उसे यमराज ने कुबूल कर लिया है या चील जाकर यमराज को बहनों का संदेश सुनाएगा।
पौराणिक मान्यताएं- पौराणिक मान्यता है कि यदि संभव हो तो भैया दूज के दिन भाई बहन को अवश्य ही साथ यमुना स्नान करना चाहिए। इसके बाद भाई को बहन के यहां तिलक करवा कर ही भोजन करना चाहिए। यदि किसी कारणवश भाई बहन के यहां उपस्थित न हो सके, तो बहन स्वयं चलकर भाई के यहां पहुंचे। बहन पकवान−मिष्ठान का भोजन भाई को तिलक करने के बाद कराये। बहन को चाहिए कि वह भाई को तिलक लगाने के बाद ही भोजन करे। यदि बहन सच्चे मन और पूरी श्रद्धा के साथ भाई के लिए प्रार्थना करे तो वह जरूर फलीभूत होती है।
कथा- भगवान सूर्यदेव की पत्नी का नाम छाया है। उनकी कोख से यमराज तथा यमुना का जन्म हुआ। यमुना अपने भाई यमराज से बड़ा स्नेह करती हैं। वह उनसे बराबर निवेदन करतीं कि वह उनके घर आकर भोजन करें, लेकिन यमराज अपने काम में व्यस्त रहने के कारण यमुना की बात टाल जाते थे। कार्तिक शुक्ल द्वितीया को यमुना ने अपने भाई यमराज को भोजन करने के लिए बुलाया। बहन के घर जाते समय यमराज ने नरक में निवास करने वाले जीवों को मुक्त कर दिया।
भाई को देखते ही यमुना ने हर्ष−विभोर होकर भाई का स्वागत सत्कार किया तथा भोजन करवाया। इससे प्रसन्न होकर यमराज ने बहन से वर मांगने को कहा। बहन ने भाई से कहा कि आप प्रतिवर्ष इस दिन मेरे यहां भोजन करने आया करेंगे तथा इस दिन जो बहन अपने भाई को टीका करके भोजन खिलाये, उसे आपका भय न रहे। यमराज तथास्तु कहकर यमुना को अमूल्य वस्त्राभूषण देकर यमपुरी चले गये। ऐसी मान्यता है कि जो भाई आज के दिन यमुना में स्नान करके पूरी श्रद्धा से बहनों के आतिथ्य को स्वीकार करते हैं, उन्हें यम का भय नहीं रहता।
देवी लक्ष्मी का वाहन उल्लू क्यों है?
हिंदू देवताओं के वाहनों में पशु व पक्षियों के उपयोग को लेकर अक्सर जिज्ञासाएं उठती रही हैं। ये सभी देव शक्तियों के साथ प्रतिकात्मक है, लेकिन इनके स्थूल अर्थ ग्रहण किए जाने से प्रतीकों में जो अर्थ होता है उसे समझने में आम लोगों को मुश्किल होती है। लक्ष्मी के वाहन रूप में उल्लू की मान्यता इसी तरह की एक जिज्ञासा है। एक पौराणिक मान्यता है कि लक्ष्मीजी समुद्र से प्रकट हुई और भगवान विष्णु की सेवा में लग गईं। लक्ष्मीजी का स्वभाव चंचल माना गया।
इसलिए उनकी आराधना व उपयोग के मामले में भी सावधानी की आवश्यकता होती है। लक्ष्मी का वाहन उल्लू स्वभाव से रात में देखने में सक्षम होता है। उल्लू अज्ञान का प्रतीक है। वह अंधकार में ही जाग्रत होता है। लक्ष्मी उल्लू पर बैठी है, इसका अर्थ यह है कि वे अज्ञान की सवारी करती हैं और सही ज्ञान को जाग्रत करने में सहयोगी होती हैं।यदि लक्ष्मी का उपयोग अज्ञान के साथ होगा तो वह भोग और नाश तक ही सीमित रह जाएगा। यदि ज्ञान के साथ होगा तो दान व परोपकार की दिशा में लगेगा। संकेत यही है कि रीति से कमाया हुआ धन नीति से खर्च करें।
उल्लू की सवारी का धार्मिक तर्क: धार्मिक शास्त्रों में लक्ष्मी जी के वाहन के चार भेद बताएं गए हैं अर्थात चतुर्भुजी लक्ष्मी जी के चार प्रकार बताए गए हैं। पहला गरुड़-वाहिनी दूसरा गज-वाहिनी तीसरा सिंह-वाहिनी और चौथा उलूक-वाहिनी। लक्ष्मी जब गरुड़ पर सवार होती हैं, तब वो भगवान विष्णु के साथ विराजमान होती हैं। तब वह आकाश भ्रमण करती हैंं तथा गरुड़ वाहिनी कहलाती हैं।
लक्ष्मी जी जब श्वेत हाथी पर सवार होती है, तब वह धर्म लक्ष्मी कहलाती है। हाथी कर्मठ और बुद्धिमान प्राणी है। हाथी के समूह में हथनीयों को प्राथमिकता तथा सम्मान दिया जाता है। हाथी अपने परिवार के लिए कर्म करके भोजन अर्जित करता है। हाथी समूह में रहकर एकता बनाए रखता है तथा पारिवारिक धर्म का निर्वाह करता है।
लक्ष्मी जी जब सिंह पर सवार होती हैं तब वह कर्म लक्ष्मी कहलाती हैं। ये लक्ष्मी का अघोर स्वरुप हैं जब व्यक्ति साम दाम दंड भेद और नीति से पैसे कमाता है तब सिंह पर सवार लक्ष्मी का उद्गमन होता है।
चौथा जब लक्ष्मी जी घुग्घू अर्थात उल्लू की सवारी करती हैं। महालक्ष्मी मूलतः रात्रि की देवी हैं तथा रात के समय उल्लू सदा क्रियाशील रहता है। उल्लू पेट भरने हेतु दिन के समय में अंधा बनकर अर्थात कोलुह का बैल बनकर कार्य करता है तथा संपूर्ण दिमाग के साथ रात में जागकर और आंखें खोलकर कार्य करता है। उल्लू पर सवार लक्ष्मी को उल्लूक वाहिनी कहा गया है।
चमत्कारी उल्लू: तंत्र शास्त्र के अनुसार लक्ष्मी वाहन उल्लू रहस्यमयी शक्तियों का स्वामी है। प्राचीन ग्रीक में उल्लू को सौभाग्य और धन का सूचक माना जाता था। यूरोप में उल्लू को काले जादू का प्रतीक माना जाता है। भारत में उल्लूक तंत्र सर्वाधिक प्रचलित है। चीनी वास्तु शास्त्र फेंगशुई में उल्लू को सौभाग्य, स्वा स्य्उल और सुरक्षा का भी पर्याय माना जाता है। जापानी लोग उल्लू को कठिनाइयों से बचाव करने वाला मानते हैं। चूंकि उल्लू को निशाचर यानी रात का प्राणी माना जाता है और यह अंधेरी रात में भी न सिर्फ देख सकता है बल्कि अपने शिकार पर दूर दृष्टि बनाए रख सकता है।
उल्लू की सवारी का ज्योतिष तर्क: महालक्ष्मी जी मूलतः शुक्र ग्रह की अधिष्टात्री देवी हैं तथा लक्ष्मी जी की हर सवारी गरुड़, हाथी, सिंह और उल्लू सभी राहू घर को संबोधित करते हैं। कालपुरुष सिद्धांत के अनुसार शुक्र धन और वैभव के देवता हैं और व्यक्ति की कुण्डली में शुक्र धन और दाम्पत्य के स्वामी है तथा शुक्र का पक्का घर आकाश है अर्थात बारवां भाव। कापुरुष सिद्धांत के अनुसार राहू को पाताल का स्थान प्राप्त है तथा कुण्डली में राहू का पक्का घर छठा स्थान होता है और राहू को कुण्डली के भाव नंबर आठवें, तीसरे और छठे में श्रेष्ठ स्थान में माना गया है। कुण्डली में काला धन अथवा छुपा हुआ धन छठे और आठवें भाव से दिखता है।
पौराणिक कहानियों में उल्लू का जिर्क… लक्ष्मी का वाहन वैसे तो भारतीय परंपरा में उल्लू माना जाता है, लेकिन भारतीय ग्रंथों में ही इनके कुछ अन्य वाहनों का उल्लेख है। महालक्ष्मी सोत्र में गरूड़ को इनका वाहन बताया गया है, जबकि अथर्ववेद के वैवर्त में हाथी को लक्ष्मी का वाहन कहा गया है। प्राचीन यूनान की महालक्ष्मी एथेना का वाहन भी उल्लू है, लेकिन प्राचीन यूनान में धन संपदा की देवी के तौर पर पूजी जाने वाली हेरा का वाहन मयूर है। लक्ष्मी पूजन के बारे में मार्कंडेय पुराण के अनुसार लक्ष्मी का पूजन सर्वप्रथम नारायण ने किया। बाद में ब्रह्मा फिर शिव समुद्र मंथन के समय विष्णु उसके बाद मनु और नाग तथा अंत में मनुष्यों ने लक्ष्मी पूजन शुरू किया। उत्तर वैदिक काल से ही लक्ष्मी पूजन होता रहा है।
दीपावली पर धन वृद्घि के लिए उल्लू के टोटके किए जाते रहे हैं…
उल्लू देवी लक्ष्मी का वाहन है। माना जाता है कि दीपावली की रात इसके दर्शन हो जाएं तो पूरे साल धन का आगमन बना रहता है। लेकिन इसके दर्शन बड़े ही दुर्लभ हैं। इसलिए दीपावली की रात उल्लू से संबंधित टोटके भी प्रचलित हैं जिनसे लक्ष्मी की कृपा प्राप्त की जा सकती है।
उल्लू को लेकर मान्यताएं…
उल्लू की तस्वीर लगाएं- दीपावली की शाम दीप जालने के बाद तिजोरी अथवा जहां भी आप धन रखते हैं वहां उल्लू की एक तस्वीर लगाएं। पूरे साल आर्थिक लाभ के अवसर मिलते रहेंगे।
रोग भगाएं समृद्घि लाएं- दीपावली की रात में गणेश लक्ष्मी की पूजा से पहले उल्लू और मोर के पंख को लाल धागे में बांधकर घर के मुख्य द्वार पर लटकाएं। इससे नजर दोष एवं नकारात्मक उर्जा का घर में प्रवेश नहीं होता है। घर में रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य एवं धन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
व्यापार में उन्नति के टोटके- व्यापार में उन्नति की रफ्तार को बढ़ाने के लिए दीपावली की मध्य रात्रि में काले कपड़े में काली कौड़ी और उल्लू के पंख को बांधकर तिजोरी में रख दें। इस पोटली को दुकान या ऑफिस के मुख्य दरवाजे पर बांधने से भी कारोबार में उन्नति होती है। धन लाभ बढ़ता है।
दांपत्य जीवन में प्रेम और समृद्घि लाएं- पति-पत्नी अपने दांपत्य जीवन में प्रेम बढ़ाने के लिए दीपावली की रात उल्लू के नाखून को सिंदूर के साथ लाल कपड़े में लपेटकर बाजू में बांध लें या फिर श्रृंगार पेटिका में रखें तो पति-पत्नी के संबंध मजबूत होते हैं। आर्थिक तंगी के कारण परिवार में मनमुटाव नहीं होता है।
जेब रहेगी हरी भरी- अगर आपकी शिकायत रहती है कि जो भी कमाते हैं खर्च हो जाता है। पैसा जेब में टिकता ही नहीं तो दीपावली की रात एक आसान सा उपाय आजमा सकते हैं। तांबे के एक ताबीज में गोरोचन और उल्लू के पंख को भरकर अपनी जेब में रख लें। लक्ष्मी माता की कृपा से जेब हरी भरी रहेगी।
संकट में है धन की देवी की सवारी ‘उल्लू’
धन की देवी लक्ष्मी की सवारी उल्लू पर संकट गहराता जा रहा है। अधिक संपन्न होने के चक्कर मे लोग दुर्लभ प्रजाति के उल्लुओं की बलि चढ़ाने मे जुट गए हैं यह बलि सिर्फ दीपावली की रात को ही पूजा अर्चना के दौरान दी जाती है। माना ऐसा जाता है कि उल्लू की बलि देने वाले को बेहिसाब धन मिलता है इसी कारण उल्लुओं का कत्लेआम जारी है।
लोग उल्लू को अशुभ मानते हैं लेकिन देश में एक ऐसी भी जगह हैं जहां मां लक्ष्मी की सवारी उल्लू की पूजा होती है।
उल्लुओं के अंगों का दवा के तौर पर गलत उपयोग और तंत्र-मंत्र के लिए किये जा रहे अनियंत्रित अवैध व्यापार के कारण भारत में यह जीव गंभीर खतरे में है।
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की रिपोर्ट काला जादू और तंत्र-मंत्र में अंधविश्वास के कारण उल्लू विलुप्त होने के कगार पर है।
उल्लुओं के व्यापार को उजागर करने के लिए पूरे देश भर में वर्ष 1998 से लेकर 2008 तक के अध्ययन और जांच को शामिल किया गया है।
बीएनएचएस ने उल्लुओं के शिकार और उसके अंगों के अवैध व्यापार पर कठोरता पूर्वक रोक लगाने के लिए सरकार से आग्रह किया है।
कहा जाता है कि दीपावली की रात उल्लू के लिए काली रात होती है।
Out of 30 known species, 15 species are caught up in the trade: the spot-bellied eagle owl, spotted owlet, barn owl, Asian barred owlet, dusky eagle owl, collared owl, oriental scops owl, tawny fish owl, rock eagle owl, eastern grass owl, jungle owlet, brown fish owl, mottled wood owl, collared scops owl and the brown wood owl. Hunting and trading of Indian owl species is banned under the Wildlife (Protection) Act 1972 of India, still they are highly sought after by traders.
चंबल के उल्लू… चंबल सेंचुरी क्षेत्र में यूरेशियन आउल अथवा ग्रेट होंड आउल तथा ब्राउन फिश आउल संरक्षित घोषित हैं। इसके अलावा भी कुछ ऐसी प्रजातियाँ है जिन्हें पकड़ने पर प्रतिबंध है। संकट में उल्लूचंबल सेंचुरी क्षेत्र में यूरेशियन आउल अथवा ग्रेट होंड आउल तथा ब्राउन फिश आउल संरक्षित घोषित हैं। इसके अलावा भी कुछ ऐसी प्रजातियाँ है जिन्हें पकड़ने पर प्रतिबंध है। चंबल सेंचुरी क्षेत्र में इनकी खासी संख्या है क्योंकि इस प्रजाति के उल्लू चंबल किनारे स्थित करारों में घोंसला बनाकर रहते हैं। इस प्रकार की करारों की सेंचुरी क्षेत्र में कमी नहीं है। अभी तक इस बात का कोई अध्ययन भी नहीं किया गया कि आखिर चंबल में उल्लुओं की वास्तविक तादत क्या है, अब इन उल्लुओं की बरामदगी के बाद इनकी गणना का काम शुरू करने बात कही जा रही हैं। अभी तक चंबल से मछलियों एवं कछुओं की तस्करी के अलावा किसी और जीव की तस्करी की कोई खबर नहीं हुआ करती थी, लेकिन उल्लू की तस्करी ने वन्य जीव विभाग को अब सोचने पर मजबूर कर दिया है कि चंबल घाटी में किस तरह के तस्कर सक्रिय हो चले हैं यहां यह कहने में कोई संकोच नहीं हैं कि बिना स्थानीय मददगार के कोई बाहरी सक्रिय हो ही नहीं सकता, कहीं ना कहीं कोई स्थानीय मददगार है तभी तो चंबल से उल्लुओं की तस्करी शुरू की गई है।
उल्लू की प्रजातियाँ-
उल्लू छोटे और बड़े दोनों तरह के होते हैं और इनकी कई जातियाँ भारत वर्ष में पाई जाती हैं। बड़े उल्लुओं को दो मुख्य जातियाँ मुआ और घुग्घू है। मुआ पानी के पास और घुग्घू पुराने खंडहरों और पेड़ों पर रहते हैं।
मुवाँ या मुआँ उल्लू की ऊँचाई लगभग 22 इंच होती है। ये नर और मादा एक ही रंगरूप के, ऊपर के पर कत्थई, डैने भूरे जिनपर सफ़ेद और काले निशान, दुम गहरी भूरी जिसके सिरे पर सफेदीपन लिए भूरे रंग की धारी और गला सफेद होता है।
इसकी चोंच मुड़ी हुई और गहरी गंदली हरी तथा पैर धूमिल पीले रंग के होते हैं। यह भारत का बारहमासी पक्षी है जो नदी के किनारों के ऊँचे कगार, पानी का ओर झुकी हुई पेड़ की किसी डाल या किसी वीरान खंडहर में अक्सर दिखाई पड़ता है। इसका मुख्य भोजन चिड़िया, चूहे, मेढक और मछलियाँ हैं।
घुग्घू भी लगभग 22 इंच का पक्षी है जिसके नर मादा एक ही रंग रूप के होते हैं। इनका एक नाम मरचिरैया भी है। घूग्घु के सारे शरीर का रंग भूरा रहता है। इसकी आँख की पुतली पीली, चोंच सींग के रंग की, और पैर रोएँदार तथा काले होते हैं। यह चूहे, मेंढक और ज़्यादातर कौओं के अंडों पर हमला कर के खाता है। यह घने जंगल, बस्ती या वीरान के किसी बड़े पेड़ पर छिपा सोता है लेकिन रात में घुग्घूऊ ऊऊ की आवाज़ से इसकी उपस्थिति का पता चल जाता है।
धनतेरस से परेवा तक… होती है तंत्र साधना
दीपावली जैसे जैसे करीब आती जाती है, तथाकथित तांत्रिक अपनी साधना को फलीभूत करने के लिए तेजी से काम शुरू कर देते हैं. धनतेरस से लेकर परेवा तक वो अपनी साधना को सिद्ध करने के लिए तंत्र व मंत्र की साधना में लीन हो जाते हैं. इसमें भी वो दिवाली की रात को सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं. वहीं, कुछ लोग ऐसे तांत्रिकों के बहकावे में आकर वशीकरण, कोर्ट कचहरी से छुटकारा, दुश्मन पर विजय आदि जैसे काम कराने के लिए ऐसे तंत्र-मंत्र का सहारा लेने लगते हैं. इसके लिए उल्लू की बलि दी जाती है. इतना ही नहीं, उल्लू के सभी अंग इस कथित तंत्रविद्या में इस तरह काम आते हैं कि उनका डिस्क्रिपशन, इनकी वीभत्सता के चलते करना मुमकिन नहीं है. 10 हजार से 25 लाख तक हो सकती है कीमत
कथित तंत्र-मंत्र में उल्लू की उपयोगिता के चलते इसकी मार्केट इस टाइम आसमान छू रही है. उल्लुओं की प्रजाति भी इनके रेट्स का एक डिसाइडिंग फैक्टर बनी हुई है. वहीं, एक तांत्रिक के मुताबिक ग्राहकों की क्रयशक्ति के आधार पर उल्लू दस हजार से लेकर 1 लाख रुपए तक बिक रहे हैं. कुछ विशेष कस्टमर्स ने तो दो-दो लाख में भी उल्लू खरीदे हैं. तांत्रिक ने बताया कि इस टाइम अघोरपंथ से जुड़े लोग भैरव मंदिर से लेकर श्मशान घाट तक में अपनी-अपनी ‘तंत्र विद्या’ को जागृत करने में जुटने की तैयारी कर रहा है.
बार्न आऊल सबसे महंगे… 25 से 30 लाख रुपये तक हो सकती है कीमत… तंत्र क्रियाओं के लिए कुछ लोग दिवाली पर उल्लू की मुंहमांगी कीमत देने को तैयार रहते हैं… कहा जाता है कि 10 हजार से लेकर 1 लाख रुपए तक की कीमत आम उल्लू की होती है… अगर सूत्रों द्वारा किये दावे पर भरोसा करें तो इस समय एक बार्न आऊल की कीमत 25-30 लाख रुपये से भी अधिक है। सफेद रंग वाले हलके कत्थई दागों वाले ये उल्लू दिखने में बेहद सुंदर होते हैं और शायद सबसे महंगे बिकते हैं।
सामान्य तौर पर इस प्रजाति के उल्लू डेढ़ से दो किलो के होते हैं।
बार्न आऊल जैसे दुर्लभ उल्लुओं का वजन साढ़े चार किलो से भी अधिक होता है और यह बहुत महंगा बिकता है।
उल्लुओ की करीब 30 प्रजातियों में से 15 से 20 प्रजातियों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ने की आशंका पैदा हो गई है।
बार्न आऊल जैसे दुर्लभ किस्म के उल्लुओं की सर्वाधिक तस्करी भी किए जाने की खबर मिलती रहती है।
उल्लू और देश-विदेश की मान्यताएं
पूरी दुनिया में उल्लू की लगभग 225 प्रजातियाँ हैं। हालांकि कई संस्कृतियों के लोकाचार में उल्लू को अशुभ माना जाता है, लेकिन साथ ही संपन्नता और बुद्धि का प्रतीक भी। यूनानी मान्यताओं में उल्लू का संबंध कला और कौशल की देवी एथेना से माना गया है और जापान में भी इसे देवताओं का संदेशवाहक समझा जाता है। हिंदू मान्यताओं के अनुसार धन की देवी लक्ष्मी उल्लू पर विराजती हैं और भारत में यही मान्यता इस पक्षी की जान की दुश्मन बन गई है। यही वजह है कि दीपावली के ठीक पहले के कुछ महीनों में उल्लू की तस्करी काफी बढ़ जाती है। हर साल भारत के विभिन्न हिस्सों में दीपावली की पूर्व संध्या पर उल्लू की बलि चढ़ाने के सैकड़ों मामले सामने आते हैं।
उल्लू और देश-विदेश की मान्यताएं… जो प्रचलित रही हैं…
पुराने समय से लोगों का यह विश्वास है कि उल्लुओं को किसी भी आदमी की मृत्यु के समय का पहले से ही पता चल जाता है और तब यह आसपास के पेड़ पर आकर अक्सर बोलने लगते हैं। उल्लू अपनी आंख और गोल चेहरे के कारण बहुत प्रसिद्ध है। यह बहुत कम रोशनी में भी देख लेते हैं। इसलिए इन्हें रात्रि में शिकार करने में ज्यादा परेशानी नहीं होती है। यह एक रात्रिचारी पक्षी है। इसके बारे में बहुत सारी मान्यताएं प्रचलित है। विभिन्न देशों एवं संस्कृतियों में इस पक्षी से जुड़े शकुन-अपशकुन इस प्रकार हैं : –
ब्रिटेन में उल्लू के रुखे तथा करूण विलाप से निकट भविष्य में भय या दुर्भाग्य का संकेत समझा जाता है।
दक्षिण अफ्रीका में उल्लू की आवाज मृत्यु सूचक कहा जाता है।
कनाडा में उल्लू का तीन रात्रि लगातार किया गया शब्द परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु का सूचक समझा जाता है।
पोलीनेशिया में गंतव्य दिशा के अनुसार शुभ या अशुभ माना जाता है।
अमेरिका के दक्षिण-पश्चिमी भाग में उल्लू दिखाई दे तो अशुभ समझा जाता है।
चीन में उल्लू दिखाई देने पर पड़ोसी की मृत्यु का सूचक मानते है।
ईरान में स्वर के मधुर अथवा कर्णपटु होने के अनुसार शुभाशुभ माना जाता है।
तुर्की में भी उल्लू के शब्द को अशुभ किंतु श्वेत उल्लू को शुभ माना जाता है।
न्यूजीलैंड में सिवाय बुद्ध परिषद के अन्य मंत्रणाओं के समय उल्लू का शब्द अशुभ समझा जाता है।
भारत में प्रचलित लोक विश्वासों के अनुसार उल्लू का घर के ऊपर घत पर स्थित होना निकट संबंधी की अथवा परिवार के सदस्य की मृत्यु का सूचक समझा जाता है।
उल्लू की गर्दन 270 डिग्री तक मुड़ने का राज खुला… अंधेरे में देख सकने की विलक्षण क्षमता वाला उल्लू अपनी लचीली गर्दन के लिए मशहूर है और अब वैज्ञानिकों ने इसके कारण का भी पता लगा लिया है। उल्लू किसी भी दिशा में अपनी गर्दन को लगभग पूरा [270 डिग्री तक] घुमा सकता है और खास बात यह है कि ऐसा करने में उसकी गर्दन के रास्ते मस्तिष्क तक जाने वाली एक भी रक्त वाहिका को कोई नुकसान नहीं पहुंचता। उल्लू की शारीरिक संरचना के अध्ययन के लिए दर्जनों उल्लुओं के एक्स-रे और सीटी स्कैन्स किए गए। वरिष्ठ अनुसंधानकर्ता फिलिप्पे गैलौड ने कहा कि उल्लुओं का गर्दन घुमाना हमेशा से एक रहस्य रहा लेकिन अब यह सुलझ गया है। इस अध्ययन के लिए उल्लू की नसों में रंगीन तरल प्रवाहित कर कृत्रिम रक्त प्रवाह बढ़ाया गया। उल्लू के जबड़े की हड्डी से ठीक नीचे सिर के आधार में स्थित रक्त वाहिकाएं रंगीन तरल के पहुंचने के साथ-साथ लंबी होती गई। यह प्रक्रिया तब तक चली जब तक कि यह रंगीन तरल रक्त भंडार में जमा नहीं हो गया।उल्लू में पाया जाने वाला यह गुण बिल्कुल अनोखा है जबकि मनुष्य में ऐसा नहीं होता है। मनुष्य में ठीक इसके विपरीत क्रिया होती है। मनुष्य में गर्दन घुमाने से ये वाहिकाएं छोटी होती जाती हैं। शोधकर्ताओं के इस अध्ययन को एक फरवरी की साइंस पत्रिका में प्रकाशित किया गया है।
उल्लू की नज़र… उल्लुओं के बारे में उस समय कम ही जानती थी लेकिन उन्हें पहचानने में कभी दिक्कत नहीं होती थी। उनके चेहरे का नक्शा और उनकी आँखें अन्य पक्षियों से काफी अलग जो हैं। उल्लुओं की आँखें सचमुच बहुत बड़ी होती हैं – शरीर के आकार को ध्यान में रखते हुए शायद ही किसी और जन्तु की आँखें उल्लू जितनी बड़ी होंगी। 2-3 फुट के कुछ उल्लुओं की आँखें 5-6 फुट के मनुष्यों की आँखों जितनी होती हैं। इनकी आँखें ही नहीं, पुतलियाँ भी बड़ी होती हैं जो ज़्यादा-से-ज़्यादा प्रकाश आँख के अन्दर आ पाए यह सम्भव बनाती हैं।
दीपावली और दीए… दिवाली में मिट्टी के दीयों का महत्व… क्यों चाइनीज के आगे मिट्टी की महक हुई कम
दीपावली का अर्थ ही है दीपों की पंक्ति। दीप जलाने की प्रथा के पीछे अलग-अलग मान्यता है। मिथिलांचल में धनतेरस के दिन से ही दीये जलाए जाने की परंपरा है। दिवाली के एक दिन पूर्व छोटी दिवाली को लोग यम दिवाली भी कहा करते हैं। इस दिन यम पूजा हेतु घर के बाहर दीये जलाए जाते हैं।
दीयों का प्रामाणिक इतिहास… भारत में दिये का इतिहास प्रामाणिक रूप से 5000 वर्षों से भी ज्यादा पुराना है जब इसे मोहनजोदड़ों में ईंटों के घरों में जलाया जाता था। खुदाइयों में वहां मिट्टी के पके दीपक मिले है। कमरों में दियों के लिये आले या ताक बनाए गए हैं, लटकाए जाने वाले दीप मिले हैं और आवागमन की सुविधा के लिए सड़क के दोनों ओर के घरों तथा भवनों के बड़े द्वार पर दीप योजना भी मिली है। इन द्वारों में दीपों को रखने के लिए कमानदार नक्काशीवाले आलों का निर्माण किया गया था। आरंभिक दीप पात्र स्फटिक, पाषाण या सीप का था। मिट्टी को गढने और पकाने के आविष्कार के साथ यह मिट्टी का बना। आज जिस दिये को हम जलाते है वह अनादिकाल से वैसा ही चला आ रहा है। सदियों के बाद भी उसमें विशेष फेरबदल नहीं हुआ।
मिट्टी के दीयों को रोशनी करने के लिए पहले दीयों को पानी में भिगोना पड़ता है़ फिर दीयों में सरसों तेल डाल कर रूई से बने बत्ती से रोशनी की जाती है़
इसे विडंबना ही कहेंगे कि कि दुनिया को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने में अहम भूमिका अदा करने वाले कुम्हारों की खुद की हालत अंधेरे में है… महंगाई दिन पर दिन बढ़ती जा रही है लेकिन उनके उत्पाद की कीमत आज भी लोग मिट्टी के भाव में ही आंकते हैं। मिट्टी की व्यवस्था कर खरीदना, पूरी मेहनत व लगन से उसे बनाने के बाद भी बाजार में उसकी सही कीमत नहीं मिल पाती।
जबकि अब मिट्टी भी महंगे और पकाने के लिए जलावन भी महंगा। श्रम की तो कीमत भी नहीं जोड़ी जाती। हर तरफ महंगाई है लेकिन दीये के भाव में कोई खास बढ़ोतरी नहीं हुई है। बाजार में भी प्रभाव पड़ा है। लोगों का झुकाव बिजली की रोशनी की ओर अधिक हुआ है जिससे दीये की बिक्री कम पड़ने लगी है। लेकिन पारंपरिक रूप से आज भी और हमेशा मिट्टी के बने दीये का महत्व ही अधिक है।
कुम्हार की मेहनत… क्या सही फल मिल रहा है… कुम्हारों पर कबीर दास जी का कहा हुआ दोहा- “माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोय, एक दिन ऐसा आयेगा मैं रौदूंगी तोय”, चरितार्थ हो रही है। दिन रात हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी कुम्हारों को एक मजदूर की मेहनताना के बराबर भी आमदनी नहीं हो पा रही है। दिनभर की मेहनत के बाद मात्र 100-120 रुपए की ही कमाई हो पा रही है। इससे उनके परिवार का गुजारा भी नहीं हो पाता।
कुम्हार मिट्टी से सिर्फ दीये ही नहीं बल्कि गुड़्डा-गुड्डी, लकड़ी की गाड़ी, हाथी, घोड़ा, मिट्टी के खिलौने, मिट्टी का खरगोश, मिट्टी के बर्तनों, मिट्टी की लालटेन, विंड चिम, गणेश-लक्ष्मी सहित अन्य मूर्तियां या फिर सुराही, कुल्हड़, परई, बच्चों के गुल्लक आदि बनाता है।
दिल्ली के नजदीक एक कुम्हार की कहानी… दीपावली के समय करीब डेढ़ लाख दीये बिक जाते थे ने इस बार 20 हजार दीये भी नहीं बेचे हैं। 50 हजार के करीब दीये उनके घर पर बने हुए पड़े हैं लेकिन खरीददार नहीं आ रहे हैं। क्योंकि पहले जहां 101 से 501 तक दीये जलाना प्रतिष्ठा माना जाता था वहीं अब इनकी संख्या शगुन के तौर पर 5 से 21 तक रह गई है।
लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मेक इन इंडिया के नारे से इनको कुछ आश जगी लेकिन इस बार की दीपावली में भी लोगों को मिट्टी के दीयों का क्रेज देखने को नहीं मिल रहा है…कुम्हार बताता है इस समय एक ट्राली मिट्टी मंगवाने के लिए उन्हें दो हजार रुपये देने पड़ रहे हैं। आठ रुपये में एक किलो लकड़ी और चार रुपये एक किलो लकड़ी का बुरादा आता है। ऊपर से दिनभर की मेहनत लेकिन 400 रुपये में एक हजार दीये खरीदने वाले भी इस कला की मार्केटिंग नहीं कर पा रहे हैं। क्योंकि अब हाथ के काम की कीमत नहीं रही।
मिट्टी की जगह मोमबत्ती का बढ़ता महत्व… अब मोमबत्तियां कई डिजाइन में भी आने लगी हैं। केरोसिन तेल की अनुपलब्धता और अन्य चीजों की ऊंची कीमत के कारण मोमबत्ती की खरीदारी की ओर लोगों का रुझान बढ़ा है। इस्तेमाल में आसानी से भी लोग इसकी तरफ बढ़े हैं। इस साल भी तरह-तरह की आकृति की मोमबत्तियां लोगों का अपनी ओर आकर्षित कर रही हैं।
चाइनीज इलेक्ट्रॉनिक बत्तियों से पटा बाजार… रोशनी का त्योहार दीपावली के मात्र 10 दिन शेष बचे है़ं बाजार अभी से ही चाइनीज इलेक्ट्रोनिक बत्तियों से पट चुका है़ लोगों को लुभाने के लिए डिस्को, म्यूजिक एवं मिरचाई बम के आवाज वाले तरह-तरह के लाइटें काफी किफायती कीमत पर बाजार में उपलब्ध है़ं।
85740 हजार करोड़ से ज्यादा का है चाइनीज व्यापार फेडरेशन आफ इंडियन चैंबर्स आफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (फिक्की) के सर्वे के अनुसार चीन से करीब 22 प्रकार के ऐसे उत्पाद आयात हो रहे हैं जो भारतीय बाजार के उत्पादों की कीमत से 10 से 70 प्रतिशत तक सस्ते हैं। वर्ष 2009-10 में जहां इनका 9.45 बिलियन डॉलर (9.45 अरब डॉलर यानी कि 56 हजार, 700 करोड़ रुपये) का आयात होता था वहीं वर्ष 2011-12 में यह बढ़कर 14.29 बिलियन डॉलर (14.29 अरब डॉलर करीब 85 हजार, 740 करोड़ रुपये) हो गया था। अब तो इससे भी ज्यादा है।
चीनी पटाखों के कारण शिवकाशी का पटाखा उद्योग संकट में
· शिवकाशी में इस समय 728 पटाखा निर्माता इकाइयां हैं जिनमें से 200 बड़ी इकाइयां शामिल हैं
· इंडस्ट्री का कारोबार 3.5 हजार करोड़ रुपए का है और यहां 5 लाख लोगों को रोजगार मिला हुआ है
· इनमें से 1.75 लाख लोग सीधे तौर पर इंडस्ट्री से जुड़े हैं
· शिवकाशी और विरुदुनगर जिले के गांवों में देश के कुल 80 फीसदी पटाखे तैयार किए जाते रहे हैं
· लेकिन अब भारतीय पटाखा बाजार में पटाखों का हिस्सा अब सिर्फ 60 प्रतिशत रह गया है
· भारत में इनकी तस्करी की शुरूआत वर्ष 1999 से हुई उत्तर भारत में तो इन्होंने शिवकाशी के 25 प्रतिशत बाजार पर कब्जा कर लिया है
· चीन ने करीब 300 करोड़ रुपये से ज्यादा के बाजार पर कब्जा कर लिया है
According to The Hindu… Aug, 25 2014 ‘2,000 containers of Chinese crackers stocked in yards’… Stating that over 2,000 containers of Chinese crackers, worth Rs.600 crore, were illegally stocked in yards and private magazines in North India, he said, “The importers and dealers are waiting for Deepavali season to begin to flood the market with the imported items through licensed and illegal retail outlets.”
चीनी पटाखों की दिल्ली के बाजार में भरमार
चीन के पॉप-अप पटाखे बड़ी संख्या में खरीदे जा रहे हैं। इन पटाखों की कीमत महज 20 रुपये से शुरू होती है।
सस्ता होने के कारण लोग इन्हें खरीद रहे हैं। ये पटाखे गोली के आकार के हैं, जिन्हें जमीन पर पटकने से आवाज होती है।
चीन के पुलिंग पावर पटाखों की भी बाजार में काफी चर्चा है। ये पटाखे एक धागे से बंधे हैं। धागा खींचते ही ये पटाखे तेज आवाज के साथ फटते हैं। इन्हें धागा बम भी कहा जाता है।
इनकी कीमत भी महज 30 रुपये से शुरू होती है। चीन के सस्ते उत्पादों पर प्रतिबंध कड़ाई का पालन किया जाना चाहिए।
अवैध रूप से बाजार में बेचे जा रहे इन उत्पादों के कारण घरेलू कारीगरों एवं व्यापारियों को काफी नुकसान हो रहा है।
क्यों खतरे में है शिवकाशी का पटाखा उद्योग
भारत में तस्करी करके आने वाले चीनी पटाखों से शिवकाशी में पटाखा कारोबार खतरे में पड़ गया है
इस वर्ष दीवाली के लिए लगभग 500 कंटेनर भर कर चीनी पटाखे देश में तस्करी करके लाए गए हैं
चीनी पटाखों को गैर-कानूनी रूप से भारतीय बाजार में आने से रोका नहीं गया तो उन्हें बहुत ज्यादा नुक्सान होगा
चीनी पटाखों में क्लोराइड तथा पर-क्लोराइड होता है जिनका उपयोग देश में प्रतिबंधित है क्योंकि ये रसायन बेहद अस्थिर होते हैं एवं पर्यावरण को नुक्सान पहुंचाते हैं
इनके विपरीत भारतीय पटाखों में एल्युमिनियम पाऊडर तथा नाइट्रेट्स का प्रयोग होता है
जहां एक किलो एल्युमिनियम पाऊडर का मूल्य 300 रुपए है, वहीं 1 किलो पोटाशियम क्लोराइड केवल 40 से 60 रुपए किलो में मिलता है
इतना ही नहीं चीनी पटाखों में जहां केवल 5 से 10 ग्राम क्लोराइड से ही काम चल जाता है
वहीं शिवकाशी में बनने वाले पटाखों में समान असर पैदा करने के लिए 100 से 200 ग्राम एल्युमिनियम पाऊडर इस्तेमाल करना पड़ता है
ऐसे में भारतीय पटाखों से 40 प्रतिशत सस्ते होने के साथ-साथ चीनी पटाखे उनसे अधिक रंग-बिरंगी रोशनी भी पैदा करते हैं
– शिवकाशी के उघोग को 20 मार्च को तब तगड़ा झटका लगा, जब तमाम शुल्कों में भारी संशोधनों को अधिसूचित किया गया
– 200 टन तक पटाखों के भंडारण पर सालाना शुल्क 15,000 रुपये से 25 गुना बढ़ाकर 4 लाख रुपये कर दिया गया
– एक विनिर्माण इकाई के फोरमैन के लिए अनिवार्य 4 महीने के योग्यता प्रमाण पत्र का शुल्क 100 रुपये से बढ़ाकर 3,000 रुपये कर दिया गया
– इसके विरोध में तमिलनाडु के शिवकाशी शहर में 7 से 16 अप्रैल के बीच तमाम इकाइयां हड़ताल पर चली गई थीं
– उद्योग संगठन तमिलनाडु फायरवक्र्स ऐंड अमॉर्सेज मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन (टीएएनएफएएमए) ने औद्योगिक नीति एवं संवद्र्धन विभाग (डीआईपीपी) द्वारा जारी ‘यूजर फीस नोटिस (एक्सप्लोसिव्स)’ के विरोध को अस्थायी रूप से वापस ले लिया है
दीपावली पर द्यूत-क्रीड़ा (जुआ)… क्या है पौराणिक सच?
देश में द्यूत-क्रीड़ा (जुआ) खेलना सामाजिक बुराई मानी जाती है और सरकार ने भी इस पर पाबंदी लगा रखी है लेकिन ज्योति पर्व दीपावली पर जुआ खेलने की परम्परा सदियों से चली आ रही है… इस त्योहार पर लोग जुआ शगुन के रूप में खेलते हैं… कुछ लोगों का मान्यता है कि इसका मुख्य लक्ष्य वर्षभर के भाग्य की परीक्षा करना है… इस प्रथा के साथ भगवान शंकर तथा पार्वती के जुआ खेलने के प्रसंग को भी जोड़ा जाता है, जिसमें भगवान शंकर पराजित हो गए थे…
सबसे पहले दीपावली पर शिव-पार्वती ने खेला था जुआ– जुआ खेलने की परम्परा बहुत पुरानी रही है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार दीपावली की रात भगवान शिव और माता पार्वती ने द्यूत-क्रीड़ा (जुआ) खेला था।
पुराणों में द्यूत-क्रीड़ा (जुआ)– विवरणों में से एक को “स्कंद पुराण” के महेश्वर खंडा के केदार खंड में उल्लिखित किया गया है – भगवान शिव और उनकी पत्नी देवी पार्वती द्यूत-क्रीड़ा खेल रहे थे, खेल के दौरान देवी पार्वती भगवान शिव से उनकी सभी दैवीय संपत्तियां (वासुकी नाग, चंद्रमा, उनका डमरू और यहां तक कि उनका समाधी में बैठने वाला कपड़ा भी हार गए थे) जीत गई थीं। इसके बाद भगवान शिव क्रोधित होकर जंगल में चले गए थे।
स्कंद पुराण (२.४.१०)- के अनुसार पार्वती जी ने यह ऐलान किया कि जो भी दीपावली में रातभर जुआ खेलेगा, उसपर वर्ष भर लक्ष्मी की कृपा रहेगी।
द्यूत प्रतिपदा- दीपावली की अगली तिथि कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा का नामकरण ही ‘द्यूत प्रतिपदा’ के रूप में कर दिया गया। महाभारत काल में भी पांडव और कौरवों के बीच में इसी दिन जुए का खेल हुआ था और पांडव इसमें कौरवों के छल कपट के आगे हार गए थे।
भगवद्गीता के ‘विभूति-योग’ नामक अध्याय में कृष्ण ने कहा है-“द्यूतं छलयतामस्मि” अर्थात “हे अर्जुन! मैं छल संबंधी समस्त कृत्यों में जुआ हूँ।” क्या इसका तात्पर्य यह निकाला जाय कि जुआ भी कृष्णमय है, एक विभूति है और जिस प्रकार उन्होंने राक्षसों में स्वयं को प्रह्लाद बताया है (सतोगुणी होने के कारण), क्या उनकी वही भावना जुए के प्रति भी है?
राजा नल ने गंवाया था सब कुछ– महाभारत में राजा नल और दमयंती की कहानी आती है। दोनों में बहुत प्रेम था। नल चक्रवर्ती सम्राट थे। एक बार वे अपने रिश्तेदारों के साथ चौसर खेलने बैठे। सोने की मोहरों पर दांव लगने लगे। राजा नल के रिश्तेदार कपटी थे, सो उन्होंने सारे खजाने के साथ उनका राजपाट, महल, सेना आदि सब जीत लिए। राजा नल की हालत ऐसी हो गई कि उनके पास पूरा तन ढंकने के लिए भी कपड़े नहीं थे। जुए के कारण पूरी धरती पर पहचाना जाने वाला राजा एक ही दिन में रंक हो गया। बाद में अपना राज्य दोबारा पाने के लिए नल को बहुत संघर्ष करना पड़ा।
पांडव हार गए थे पत्नी को– महाभारत की कहानी का केंद्र जुएं का खेल ही है। दुर्योधन ने शकुनि के साथ मिलकर पांडवों से कपट किया और जुएं में पूरा इंद्रप्रस्थ जीत लिया। युधिष्ठिर दांव पर दांव लगाते रहे और हारते रहे। आखिरी में खुद को, चारों भाइयों को और पत्नी द्रौपदी को भी हार गए। द्रौपदी का चीरहरण हुआ। फिर पांडवों को 13 साल के लिए वनवास पर जाना पड़ा। एक जुएं के खेल ने उनकी सारी जिंदगी बदल दी। महाभारत में एक स्थान पर भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि अगर युधिष्ठिर में जुआ खेलने की आदत ना होती तो उन्हें भगवान का दर्जा मिल जाता, क्योंकि उनमें बाकी सारे गुण मौजूद थे, लेकिन जुएं की लत के कारण उनके सारे गुण दब गए।
जुए में बलराम भी हारे थे – श्रीमद्भागवत की एक कथा के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम ने भी जुआ खेला था। कथा के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण और रुक्मिणी के पुत्र का विवाह रुक्मिणी के भाई रुक्मी की लड़की से था। ये वही रुक्मी थे, जिनको भगवान श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी हरण के समय युद्ध में हराया था और कुरूप बनाकर छोड़ दिया था। रुक्मी को अपने उस अपमान का बदला लेना था। उसने विवाह के दौरान बलराम को जुआ खेलने के लिए आमंत्रित किया। बलराम स्वभाव से सीधे थे सो वे रुक्मी के आमंत्रण को ठुकरा ना सके और जुआ खेलने बैठ गए। रुक्मी ने छल से बलराम को हरा दिया और उनका भरी सभा में अपमान करने लगा। इससे गुस्सा होकर बलराम ने तत्काल रुक्मी का वध कर दिया था। रुक्मी के वध से विवाह मंडप में हाहाकार मच गया। जुएं ने शादी के रंग में भंग डाल दिया। विवाह का उत्सव मातम में बदल गया। इस प्रसंग से पता चलता है कि अगर विवाह जैसे मांगलिक कार्य में जुआ खेला जाए तो अमंगल होने की स्थिति बन सकती है।
इतिहास में उल्लेख
साभार: अभिव्यक्ति हिन्दी
ऋग्वेद में द्यूत क्रीडा- इन बेईमान इतिहासकारों ने संसार के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद के १०वें मण्डल में ‘जुआड़ी का प्रलाप’ के सूक्त ३४ से जानबूझ कर आँखें मूँद लीं जबकि ऋग्वेद का अनुवाद राल्फ टी.एच. ग्रिफ़िथ ने बहुत पहले कर दिया था। अब यह किसी से छिपा नहीं रह गया है कि ऋग्वेद की रचना सरस्वती नदी के लुप्त होने के कम-से-कम एक हज़ार वर्ष पहले से होती रही और जब उसमें जुआड़ी के पश्चात्ताप का ऐसा काव्यात्मक वर्णन है तो फिर भारत में यह क्रीड़ा ऋग्वेद की रचना के भी कई सौ वर्ष पूर्व प्रारंभ हो चुकी होगी। इससे सिद्ध है कि मानवजाति के मन को प्रफुल्लित, रोमांचित और व्यथित करने वाली इस द्यूत-क्रीड़ा की जन्मस्थली भारत की ही पवित्र भूमि है और इस खेल की शुरुआत ई.पू.४०००-४५०० में जरूर हो चुकी होगी।ऋग्वेद के इस प्रसिद्ध सूक्त के कुछ अंश इस प्रकार हैं- “मैं अनेक बार चाहता हूँ कि अब जुआ नहीं खेलूँगा। यह विचार करके मैं जुआरियों का साथ छोड़ देता हूँ परंतु चौसर पर फैले पाँसों को देखते ही मेरा मन ललच उठता है और मैं जुआरियों के स्थान की ओर खिंचा चला जाता हूँ।”
…”जुआ खेलने वाले व्यक्ति की सास उसे कोसती है और उसकी सुन्दर भार्या भी उसे त्याग देती है। जुआरी का पुत्र भी मारा-मारा फिरता है जिसके कारण जुआरी की पत्नी और भी चिन्तातुर रहती है। जुआरी को कोई फूटी कौड़ी भी उधार नहीं देता। जैसे बूढ़े घोड़े को कोई लेना नहीं चाहता, वैसे ही जुआरी को कोई पास बैठाना नहीं चाहता।”…”जो जुआरी प्रात:काल अश्वारूढ़ होकर आता है, सायंकाल उसके शरीर पर वस्त्र भी नहीं रहता।”…”जब अक्षों (पाँसों) की चाल ख़राब हो जाती है तो उस जुआरी की भार्या भी उत्तम कर्म वाली नहीं रहती।जुआरी के माता-पिता और भाई भी उसे न पहचानने का ढंग अपनाते हुए उसे पकड़वा देते हैं।”…”हे अक्षों (पाँसों)! हमको अपना मित्र मान कर हमारा कल्याण करो।हम पर अपना विपरीत प्रभाव मत डालो।तुम्हारा क्रोध हमारे शत्रुओं पर हो, वही तुम्हारे चंगुल में फँसे रहें!”
ऋग्वेद के ऋषि कहते हैं- “हे जुआरी! जुआ खेलना छोड़ कर खेती करो और उससे जो लाभ हो,उसी से संतुष्ट रहो!”
पूरे संसार के प्राचीन साहित्य को खंगाल डालिए, द्यूत-क्रीड़ा का ऐसा सुन्दर काव्यात्मक वर्णन नहीं मिलेगा। यद्यपि वैदिक ऋषि ने पहले ही सावधान कर दिया कि जुए का दुष्परिणाम भयंकर है, लेकिन इसका नशा ऐसा है कि इसके आगे मदिरा का नशा भी तुच्छ है।
महाभारत में द्यूत क्रीडा- जुए के खेल में जिस चालाकी और धोखेबाज़ी की जरूरत पड़ती है वैसी बुद्धि युधिष्ठिर जैसे सत्यव्रती और धर्मात्मा को प्राप्त नहीं थी, जबकि शकुनि इस कला में अत्यंत निपुण था। यह जानते हुए भी वे दुर्योधन के निमंत्रण पर जुआ खेलने को तैयार हो गए और राजपाट सहित अपने भाइयों समेत स्वयं को तथा द्रौपदी को भी हार गए। उनकी इसी मूर्खता की वजह से द्वापर का सबसे विनाशकारी युद्ध हुआ। क्या उन्होंने निषध देश (ग्वालियर के पार्श्ववर्त्ती प्रदेश) के राजा नल और उसकी परिणीता दमयंती की कथा नहीं सुनी थी और क्या उन्हें ज्ञात नहीं था कि राजा नल जुए में अपने राज्य सहित सर्वस्व गँवा बैठे और उन्हें दर-दर की ख़ाक छाननी पड़ी थी?
जुए के खेल में किसी खिलाड़ी की बेईमानी के कारण अथवा हारे हुए जुआड़ी द्वारा जीतने वाले को धन न देने के कारण या जीतने वालों द्वारा हारने वाले का मज़ाक़ उड़ाने के कारण मारपीट की नौबत आ जाती है। हारने वाले पर हँसने वाली घटना कृष्णजी के भाई बलराम जी और रुक्मी के बीच घट गई। यह कथा श्रीमद्भागवत विष्णु पुराण तथा हरिवंश पुराण में है। यह तो विदित ही है कि श्री कृष्ण ने रुक्मी की बहन रुक्मिणी का बलपूर्वक अपहरण किया था और अपहरण करते समय रुक्मी को युद्ध में हरा दिया था। तबसे रुक्मी इन लोगों से बदला लेना चाहता था। जाने इन लोगों को क्या सूझा कि श्रीकृष्ण और रुक्मिणी के पुत्र का विवाह रुक्मी की बेटी से तय हो गया। रुक्मी जानता था कि बलराम जी की बुद्धि कुछ मोटी है, इसलिए विवाह के उत्सव के बीच उसने बलराम जी को जुआ खेलने का न्यौता दिया। बलराम जी जुए में बहुत कुछ हार गए तो रुक्मी उन पर हँसने लगा। फिर क्या था?बलराम जी को क्रोध आ गया और उन्होंने रुक्मी को वहीं पर मार डाला जिससे विवाह मण्डप में हाहाकार मच गया। असल में बलराम जी थे तो सीधे, लेकिन क्रोधी भी थे। एक कथा के अनुसार बलराम जी कौशिक राजा दंतवक्र से जुए में हार गए। जब वह बलरामजी पर हँसा तो उन्होंने दंतवक्र का दाँत तोड़ दिया।
पाणिनि के साहित्य में द्यूतक्रीडा- पाणिनि (५०० ई.पू.) की ‘अष्टाध्यायी’ तथा ‘काशिका’ के अनुशीलन से भारत में जुए के खेल (अक्ष-क्रीड़ा) का पूरा परिचय मिलता है। पाणिनि ने जुए के पाँसों को अक्ष और शलाका कहा है। अक्ष वर्गाकार गोटी होती है और शलाका आयताकार। तैत्तरीय ब्राह्मण और अष्टाध्यायी से अनुमान होता है कि इनकी संख्या पाँच होती थी जिनके नाम थे-अक्षराज, कृत, त्रेता,द्वापर और कलि। अष्टाध्यायी में इसी कारण इसे ‘पंचिका द्यूत’ के नाम से पुकारा गया है। कोटियों के चित्त और पट गिरने के विविध तरीक़ों के आधार पर हार और जीत का निर्णय कैसे होगा, यह ‘काशिका’ में भली प्रकार वर्णित है। पतंजलि ने भी जुआड़ियों का ज़िक्र किया है और उनके लिए ‘अक्ष कितव’ या ‘अक्ष-धूर्त’ शब्द का प्रयोग किया है। अग्नि पुराण में द्यूतकर्म का पूरा विवेचन है तथा स्मृतियों में भी हार-जीत के नियम दिए गए हैं।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में द्यूत क्रीडा- कौटिल्य के अर्थशास्त्र से विदित होता है कि राजा द्वारा नियुक्त द्यूताध्यक्ष यह सुनिश्चित करता था कि जुआ खेलने वालों के पाँसे शुद्ध हों और किसी प्रकार की कोई बेईमानी न हो।जुए में जीत का ५ प्रतिशत राज्य को कर के रूप में चुकाना पड़ता था। कौटिल्य ने जुए की निन्दा की है और उन्होंने राजा को परामर्श दिया है कि वह चार व्यसनों शिकार,मद्यपान, स्त्री-व्यसन तथा द्यूत से दूर रहे। कौटिल्य ने लिखा है कि जुए की लत के कारण धन-नाश, कर्मों में मन न लगना, दुष्टों का कुसंग, हर समय क्रोध और संताप, स्नानादि के प्रति अनादर, व्यायाम में बाधा, मल-मूत्र को रोकने से उत्पन्न विकार, दुर्बलता आदि बुराइयाँ उत्पन्न होती हैं। बताया जाता है कि उनके समय का मगध- सम्राट महापद्म नंद भी बहुत जबरदस्त जुआड़ी था।
पुराणों में द्यूत क्रीडा- दूसरी ओर द्यूत-क्रीड़ा को महिमामंडित करते हुए पुराणों में भगवान् शिव और माता पार्वती की द्यूत-क्रीड़ा तथा श्री के गृह में भगवान् कृष्ण और श्री के बीच हुई द्यूत-क्रीड़ा की कथाएँ जोड़ दी गयीं। कथा के अनुसार पार्वती जी ने शिव जी को जुए में हरा दिया था। स्कंद पुराण (२.४.१०) के अनुसार पार्वती जी ने यह ऐलान किया कि जो भी दीपावली में रातभर जुआ खेलेगा, उसपर वर्ष भर लक्ष्मी की कृपा रहेगी। दीपावली की अगली तिथि कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा का नामकरण ही ‘द्यूत प्रतिपदा’ के रूप में कर दिया गया। भगवद्गीता के ‘विभूति-योग’ नामक अध्याय में कृष्ण ने कहा है-“द्यूतं छलयतामस्मि” अर्थात “हे अर्जुन! मैं छल संबंधी समस्त कृत्यों में जुआ हूँ।” क्या इसका तात्पर्य यह निकाला जाय कि जुआ भी कृष्णमय है, एक विभूति है और जिस प्रकार उन्होंने राक्षसों में स्वयं को प्रह्लाद बताया है (सतोगुणी होने के कारण), क्या उनकी वही भावना जुए के प्रति भी है?
वैदिक साहित्य में द्यूत क्रीडा- द्यूत-क्रीड़ा के प्रति प्राचीन भारतीय मनीषियों और आचार्यों में कभी मतैक्य स्थापित नहीं हो सका। कहीं देवताओं की द्यूत-क्रीड़ा का बखान, कहीं जुए के खेल के नियम क़ायदों का उल्लेख और कहीं इसके दुर्गुणों का वर्णन। ऋग्वेद में एक जगह इसे सुरापान के समान पापमय बता दिया गया (ऋ०७/८६/६)। कालांतर में जब सुरापान को ब्राह्मणों के लिए ‘महापातक’बताया गया तो जुए को भी किसी न किसी श्रेणी के पाप की कोटि में रखना ही था। मनु महाराज ने ‘मनुस्मृति’ में यह लिख दिया कि जुए और बाज़ी लगाने वाले खेलों पर प्रतिबंध होना चाहिए। आपस्तंब धर्मसूत्र में जुए को केवल ‘अशुचिकर’ पापों की श्रेणी में रखा गया। ये पाप ऐसे हैं जिनसे आदमी जाति से बहिष्कृत नहीं होता। मज़ेदार बात यह है कि फलित ज्योतिष द्वारा जीविका साधन भी इसी श्रेणी का पाप है यानी ज्योतिष का धंधेबाज़ और जुआड़ी दोनों बराबर!! धर्मसूत्रों पर किसी ने ध्यान नहीं दिया और यह राजाओं और धनाढ्य नागरिकों का सर्वप्रिय मनोविनोद बना रहा।सामान्य लोग भी इस खेल के रोमांच का आनन्द उठाने में पीछे नहीं रहे।मदिरा व्यापार की भाँति यह राज्य की आय का एक अच्छा-खासा स्रोत भी था।इसलिए जुआड़ियों की सद्गति-दुर्गति में कोई बाधा नहीं पड़ी।
मुग़ल काल में द्यूत क्रीडा- मुग़ल काल में शतरंज, गंजीफा और चौपड़ खेला जाता था। राजाओं के यहाँ खूब जुआ खेला जाता था। लोग सब कुछ लुटा कर दरिद्र हो जाते थे। जुए में हारने वाले चोरी जैसे अपराधों में लिप्त हो जाते थे। यही सब देख कर कबीरदास जी ने कहा-“कहत कबीर अंत की बारी।हाथ झारि कै चलैं जुआरी।” इस्लाम में जुआ खेलना हराम कहा गया है, लेकिन इसके बावजूद अधिकांश मुस्लिम देशों में जुए पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लग सका। इंग्लैण्ड में कभी जुए पर पूरा प्रतिबंध लगा रहा और अचानक १६६० ई. में चार्ल्स द्वितीय ने सभी को जुआ खेलने की अनुमति दे दी। चार साल बाद १६६४ ई. में क़ानून पास हुआ कि केवल धोखाधड़ी और बेईमानी से खेले जाने वाले जुए पर रोक रहेगी तथा कोई आदमी जुए का धन्धा नहीं कर सकेगा।बाद में तो ब्रिटिश सरकार ने लाटरी शुरू की जिसकी आय फ्रांस से हुए युद्ध में ख़र्च हुई। फ्रांस ने भी पेरिस में सीन नदी पर पत्थर के पुल-निर्माण का ख़र्च लाटरी से ही निकाला। भारत में अंग्रेज़ों के शासनकाल में “पब्लिक गैंब्लिंग एक्ट १८६७” लागू हुआ और कई राज्यों ने अपने क़ानून बना कर जुए पर रोक लगाई। स्वतंत्र भारत में भी जुआ खेलना दण्डनीय अपराध है लेकिन इसके क्रियान्वयन की स्थिति से सभी लोग परिचित हैं। भारत में सरकारी और निजी लाटरी का धंधा कई बार चला और बन्द हुआ। यह समझ के परे है कि सरकार प्रायोजित जुए में कोई बुराई नहीं और आम जनता खेले तो जेल की हवा खाए!
ताश और द्यूत क्रीडा- ताश के पत्तों के प्रचलन से जुए की दुनियाँ में क्रान्ति आ गई। चीन में जुए का इतिहास कम-से-कम २५०० ई.पू. पुराना है। वहाँ तांग राजवंश (६१८-९०७ ई.) के दौरान ताश के पत्ते पाए गए। चौदहवीं सदी के अंत में मिस्र से ताश के पत्तों ने यूरोपीय देशों में प्रवेश किया। हुकुम, पान, ईंट और चिड़ी के ५२ पत्तों वाले ताश का इस्तेमाल सर्वप्रथम सन् १४८० में हुआ तबसे इन पत्तों की सज-धज और आकार-प्रकार में अनेक परिवर्तन हुए। ताश के तरह-तरह के खेल जैसे पोकर, ब्रिज, रमी आदि बहुत लोकप्रिय हुए। ख़ूबी यह है कि कई खेलों में रुपए-पैसे की बाज़ी लगाने की जरूरत नहीं है, इसलिए उन्हें जुए की कोटि में नहीं रखा जाता। मा० सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी है कि रमी संयोग का खेल नहीं है वरन् यह दक्षता का खेल है इसलिए इसे जुए की संज्ञा नहीं दी जा सकती। इस फैसले से क्लबों में रमी के खेल में पैसे की हार-जीत का मजा लेने वालों को बड़ी राहत मिली है। लेकिन ताश में तीन पत्तों वाला खेल ‘फ्लश’ शुद्ध रूप से जुआ है।
पश्चिम में द्यूत क्रीडा
पश्चिमी देशों के इतिहासकारों का मानना है कि मेसोपोटामिया से छह फलक वाला पाँसा प्राप्त हुआ है जो लगभग ३००० ई.पू. का है और इसी काल का मिस्र के काहिरा से एक टैबलेट मिला है जिसपर यह कथा उत्कीर्ण है कि रात्रि के देवता थोथ ने चन्द्रमा के साथ जुआ खेल कर ५ दिन जीत लिया जिसके कारण ३६० दिनों के वर्ष में ५ दिन और जुड़ गए। इतिहासकारों के अनुसार चीनी सम्राट याओके काल में १०० कौड़ियों का एक खेल होता था जिसमें दर्शक बाज़ी लगा कर जीतते हारते थे। यूनानी कवि और नाटककार सोफोक्लीज़ का दावा है कि पाँसे की खोज ट्रॉय के युद्ध के समय हुई थी।यह कथन संदेहास्पद है, क्योंकि इस लेख में यह सप्रमाण दिखाया जा चुका है इस विद्या की जन्मस्थली भारतवर्ष है । यह अकेला देश है जहाँ द्यूत-क्रीड़ा को ६४ कलाओं में आदरणीय स्थान दिया गया और इसका पूरा शास्त्र विकसित किया गया।
कैसे बदला जुए का स्वरुप
चौसर: सबसे पहले पत्थर या लकड़ी की गोट से चौसर खेला जाता था। इसका नाम चौसर इसके आकार के कारण पड़ा। यह चार भाग वाला होता था और हर भाग में 16 खाने होते थे। इस तरह कुल 64 खाने पूरे चौसर में होते थे। प्रारंभिक काल में इसे सिर्फ मनोरंजन के लिए खेला जाता था। इसके लिए सफेद पत्थर के पासे बनाए जाते थे, जिन पर 1 से 6 तक अंक लिखे होते थे।
चौपड़: चौसर का ही अपभ्रंश चौपड़ था। इसमें कपड़े पर चौसठ खाने बनाकर खेला जाने लगा। लकड़ी की गोटियों और लकड़ी के ही पासे उपयोग में लाए जाने लगे। इसी में पहले गायों,अनाज और सोने की मुद्रा के दांव लगने का चलन शुरू हुआ था।
जुआ या द्यूत: कालांतर में चौपड़ का अस्तित्व लगभग लुप्त हो गया और 48 खानों वाला एक नया खेल शुरू हुआ, जिसमें सीधे हर दांव पर सम्पत्ति लगाई जाने लगी। तब तक ये खेल घरों की बंद दीवारों से निकलकर बाजार तक आ चुका था। बाजारों में विधिवत रुप से राजाज्ञा प्राप्त जुआघर चलते थे। जहां जुआघर का मालिक दो लोगों को कमीशन पर जुआ खेलने के लिए धन और स्थान उपलब्ध कराता था। इन्हें हम दुनिया के सबसे पहले कैसिनो कह सकते हैं।
ताश के पत्तों से जुआ: वर्तमान समय में ताश के पत्तों से जुआ खेला जाता है। कई प्रदेशों में दीपावली की रात घरों में जुआ खेला जाता है। इसे कई लोग शुभ और लक्ष्मी के आगमन का संकेत मानते हैं, लेकिन धर्मग्रंथों ने सीधी घोषणा की है कि जुआ एक व्यसन है, जहां व्यसन होते है वहां लक्ष्मी का वास नहीं होता।