परम भक्त विदुर
ठाकुर प्रसाद मिश्र
महाज्ञानी विदुर महाभारत ग्रंथ के एक महाज्ञानी, नीतिवान एवं न्यायप्रिय पात्र हैं। इनका जन्म भगवान व्यास द्वारा अंबे एवं अम्बालिका की दासी के गर्भ से होने के बावजूद, तीनों राजकुमारों के पिता महर्षि व्यास ही थे। अतः धृतराष्ट्र पांडु एवं विदुर सौतेले भाई थे, और ये महाराज पांडु एवं बाद में धृतराष्ट्र के सचिव। पितामह भीष्म इनकी योग्यता से बहुत प्रभावित थे, और इन्हें हमेशा मर्यादित आचरण करने के कारण बहुत प्रेम करते थे। राज्य से लेकर युद्ध काल तक ए कौरव वंश के परम हितैषी थे। दुर्योधन तो उद्दंड होने के कारण कभी काल इनकी अवज्ञा कर देता था किंतु पांडव एवं सारा राजपरिवार इनका बड़ा सम्मान करता था।
श्रीमान विदुर के बारे में तो महाभारत युद्ध के समय आने को शांति प्रयास करने के कारण बहुत सारे लोग जानते हैं। लेकिन विदुर किसके अवतार थे आज उस बारे में अपनी कुछ जानकारी साझा कर रहा हूँ. जो शास्त्रों की कृपा से ही हमें मिली है।
आदिकाल की बात है एक तेजस्वी ऋषि मांडव्य जंगल में छोटी सी कुटी बनाकर रहते थे। अक्सर वे तप एवं ध्यान में लीन रहते थे। एक बार की बात है उस राज्य के राजा जिसके अधीन यह जंगल प्रांत था उसके राजमहल में चोरी हो गई। चोर राजा का धन चुरा कर जंगल प्रांत की तरफ भागे। किंतु इस चोरी की सूचना शीघ्र ही राजा के सैनिकों को मिल गई। और वे घोड़ों पर सवार होकर चोरों का पीछा किए चोरो ने जब देखा कि अश्वारोही सैनिक उनका पीछा कर रहे हैं, तो वे भयभीत होकर छिपने की जगह खोजने लगे। और जंगल प्रांत में रिषि की झोपड़ी देख उसमें जाकर छिप गए। मुनिवर उस समय झोपड़ी के बाहर बैठे तप में लीन थे। नेत्र बंद होने के कारण उनकी दृष्टि चोरों पर नहीं पड़ी। वे तप में लीन रहे उसी समय चोरों का पद चिन्हों का पीछा करते हुए, वे सैनिक वहाँ आ पहुंचे और झोपड़ी में छिपे चोंरों को चुराए गए धन सहित पकड़ लिया। जब सैनिक उन चोरों के साथ झोंपड़ी के बाहर निकले तो कुछ दूरी पर समाधि में लीन ऋषि को देखा तो उन्होंने सोचा यही व्यक्ति इन चोरों का अगुआ है। चोरों को झोपड़ी में छिपाकर खुद महात्मा बनने का नाटक करते हुए तपस्या का ढोंग रच रहा। अतः उनके पास जाकर उन्हें ठोकर मार कर जगाया। ध्यान भंग होने पर जब ऋषि के नेत्र खुले तो उन्होंने अपने सामने राजा के सैनिकों को देखा। रिषि कुछ कहते इसके पहले ही राज्य सैनिकों ने चोरों के गिरोह का सरदार कहते हुए उन्हें बंदी बना लिया। रिषि इसे भगवान की कोई लीला समझ, कोई प्रतिवाद न किए। और वे भी उन चोरों के साथ सैनिकों द्वारा राजा के राज़ बंदीगृह ले जाए गए। दूसरे दिन राजदरबार में चोरों के साथ इन्हें भी पेश किया गया। राजा ने चोरों पर लगे अभियोग को सुनकर रिषि से कहा संत वेश में दस्यु का कार्य करते हुए तुमने बहुत बड़ा अधर्म किया है, अतः तुम भी इन्हीं के साथ में दंड के भागी बनोगे। अपने बचाव में रिषिवर ने वहाँ भी कुछ नहीं कहा। अतः राजा ने इन छह लोगों को सूली पर चढ़ा देने का आदेश दे दिया।
पाँचों चोरों के साथ ऋषि को भी सूली पर चढ़ा दिया गया। सूली चोरों के गुदा भाग से होती हुई उनके कंठ तक पहुँच गय़ी और पांचों चोर मारे गए। लेकिन रिषि सूली का अंडि वाला भाग ऋषि के शरीर के बाहर ही रह गया, आगे नहीं बढ़ा। शरीर अंडि पर ही अटक गया। राजपुरुष इन्हें सूली पर चढ़ा कर चले गए। ऋषि के सूली पर चढ़ने का जब अंतर्संदेश ऋषि मुनियों को गया तो साधक जगत में खलबली मच गई। समर्थ ऋषि मुनि पक्षियों का रूप बनाकर आते और सूली पर बैठे मांडव्य रिषि से संवेदना प्रकट करते हुए उनका हाल समाचार पूछते। सूली पर चढ़ने के बाद ऋषि के शरीर में किसी तरह का परिवर्तन नहीं हुआ था जबकि उनके साथ सूली पर चढ़े चोरों का शरीर सड़ कर नीचे गिर रहा था। सूली स्थल के बाहर पहरेदारों ने जब यह दृश्य देखा तो वे सब सहम गए वे राजा के पास गए और रिषि के शरीर की दशा के बारे में बताया तथा यह भी बताया कि उनके पास विचित्र प्रकार के पक्षी आते हैं और उनसे मनुष्य भाषा में बात करते हैं। यह सुनकर राजा के आश्चर्य ठिकाना नहीं रहा। और वे किसी अनहोनी के भय से भयभीत हो गए। दूसरे दिन वे अपने मंत्री समूह के साथ सूली स्थल पर गए। और रिषिवर को नीचे उतरवाया। उन्होंने अत्यंत विनम्रतापूर्वक अपने द्वारा अनजाने में दिए गए दंड के लिए क्षमा मांगी। रिसीवर निर्विकार रहे। उन्होंने राजा पर कोई रोष प्रकट नहीं किया। अब राजा के कर्मकारों द्वारा ऋषि के शरीर से सूली निकालने का प्रयास शुरू किया गया। लेकिन असफल रहा, अलबत्ता रिषि वर को पीड़ा अधिक हो रही थी। अतः अंडी के निचले भाग के पास से लौह दंड काट दिया गया। तब से रिषिवर का नाम अँडीमांडव्य पड़ गया।
काफी समय तक रिषिवर अंडी के साथ ही धारा पर विचरण करते रहे और एक बार इसी बीच वे यमराज के पास गए और क्रोध में भरकर बोले, यमदेव मैंने जहाँ तक मुझे स्मरण है, पैदा होने से लेकर मृत्यु तक न कभी झूठ बोला और ना ही कोई पाप कर्म किया है। फिर तुमने हमें राजा से इतनी बड़ी सजा क्यों दिलवाई?
यमराज बोले रिषिवर पिछले जन्म में भी आप ब्राह्मण कुमार थे, अपने बाल शाखाओं के साथ खेलते हुए आपने एक चिड़ी (बरसाती फतिंगा) पकड़ा और उसकी पूंछ में कांटा चुभोकर मार डाला था। अतः इसी अपराध की सजा मिली थी। रिषिवर बोले उस समय बालकपन में मेरी अवस्था क्या थी? यमराज ने उत्तर दिया बारह साल की।
इस पर अत्यंत क्रोध में भरकर रिषिवर बोले यमराज तुमने विधाता के विधान का उल्लंघन किया है। विधाता ने चौदह साल की बालावस्था तक के बालक के द्वारा किए गए अपराध के लिए किसी भी गंभीर दंड का विधान नहीं किया। क्योंकि यह अवस्था अल्पज्ञता की होती है। अतः उसकी प्रवृत्ति अपराधी की नहीं मानी जाती है। फिर भी तुम ने विधि विधान के विरुद्ध जाकर मनुष्यों जैसा व्यवहार करते हुए मुझे कठोर दंड दिया है। अतः मैं तुम्हे सांप देता हूँ कि तुम 100 वर्षों तक मनुष्य योनि में जन्म लेकर सुख- दुख का भोग करो।
शाप की अवधि पूरी होने पर पुनः मृत्युलोक से अपने लोक में आकर न्याय पद संभालेंगे।
अतः मुनिवर के शाप को अंगीकार कर यमराज देव महाभारत काल में आकर विदुर रूप में जन्म लिए। जब तक यमराज विदुर रूप में पृथ्वी पर रहे तब तक उनका कार्यभार उनके पिता भगवान सूर्यदेव सँभालते रहे।
इस कथा का सार है कि पाप कर्म छोटा हो या बड़ा, अपने किए की सजा मनुष्य या अन्य जीवधारियों को भोगनी ही पड़ती है। यथा–
कोउ नहिं सुख- दुख कर दाता ।
निज कृत कर्म भोग कर भ्राता।
लेखक – सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं । प्रकाशित हिंदी उपन्यास रद्दी के पन्ने ।