जिज्ञासा

जय देव भूमि भारत की , जय वीर प्रसवनी माते ।

ठाकुर प्रसाद मिश्र

जय देव भूमि भारत की , जय वीर प्रसवनी माते ।

अर्पित तुमको तन मन है,शुभ दिवस चाँदनी रातें।।

हिम धवल किरीटि भाल पर ,चरणों पर सागर जल है

उर पर सतरंगी माला,मणि हीरक मुक्ता हल है।।

शुभ वक्ष कलश का अमृत ,शिशु जन का जीवन दाता

कर कोमल पत्र सुमनमय, सुत भाल सदा सहलाता।।

कृत युग से चलकर अब तक ,महिमा मय तेरी कहानी,

कर कृपा उन्हें भी पाला ,जो शत्रु भाव का दानी।।

स्तन पय पी कर तेरा ,जिनने है जीवन पाया

मां फिर भी तुझे न माने , पर तूने अंक उठाया।

तेरी उदार य़श गाथा ,खग कुल बंदी बन गाता

नित भुवन भाष्कर तेरे ,चरणों में दीप जलाता ।।

चन्द्रमा सुधा किरणों से ,जब चंदन पुष्प विछाता,

अम्बर ले अंबुद अंबर ,श्रम का सीकर बिन्दु मिटाता।।

तेरा शुभ स्वास समीरण,ही वेद वाक्य कह जाता ।

तम पथ भ्रष्टा मानवता को, निश-दिन राह दिखाता।।

………………..

पर हुआ आज क्या तुमको, क्यूं करुणा मूर्ति तुम्हारी ..?

बोझिल क्यूं अश्रु कणों से, तेरी पलकें रत्नारी ?

गुंजार बंद अलि कुल का, खग कलरव आज मौन है।

तेरे सुख का हत्यारा ,बतला दे अंब कौन है ?

क्यों आज पंखिनी तरु पर ,एकता कहानी भूली।

मानवता हुई अपाहिज, पग कर से लंगडी लूली।।

विष धूम युक्त यह मारुत, विष भरता है तन-तन में।

बारूद दंभ की गरिमा ,नित घृणा बो रही मन में ।।

थी छटा जहां अंबुद की ,मन मुदित मयूर थिरकते ।

क्यूं गृद्ध कीक सुन पडती ,जो मांस पिंड पर उडते ।।

मधु मुकुलित नव कलिका से , आभूषण बनते तेरे।

कंकाल भाल की माला ,अब पहने शाम-सबेरे।

मृदु मलय पवन के झोंके, सुरभित करते जो माटी।।

निर्दोष निरीह जनों के , शव से जाती है पाटी।

कल की जो वर्ण व्यवस्था, पालकी देश की ढोती।।

वह प्रगति शील यानों का ,विध्वंस देखकर रोती ।

जल-चर जल मोह छोडकर ,अम्बर पर उडना चाहे।।

नभ चर सब कटे पंख से, अवनी पर गिरे कराहें।

विस्मृत शंकुल मर्यादा ,सद् धर्म देश का बीता ।।

अति भार बढा गल्पों का , सत कलश ज्ञान का रीता।

क्यों प्रकृति नटी का अंचल ,क्षिद्रों से अति जर्जर है।।

मधुधवल हास में कुंठा,पय हीन शुष्क निर्झर है।

सागर सरिता सरवर से ,मूल्याधिक बनी सुराही।।

एक घूंट नीर को तरसे,पथ श्रमित पिपासित राही।

खो गया भाव ममता का ,दृग लुप्त शर्म का पानी।।

पथ त्याग बनी मर्यादा , गढती नित-नयी कहानी।

दक्षिण दानव पंजे में , उत्तर उर जाति की ज्वाला।।

जल सूत्र क्षीणतर होता ,टूटने जा रही माला ।

पूरब की स्वर्णिम किरणें , कलुषित है द्वेष भाव से।

विपरीत पंथ है उनका ,तिरते जो एक नाव से ।।

पश्चिम का कलित कलेवर ,झुलसा विस्फोट धमक से।

कोमल कलियों के ब्रण की, होती है न दवा नमक से।।

जिस जगह शांति तरुणी बन,कटुता शिशु सतत सुलाती।

पथ बोधक स्वयं न जाने ,वह राह किधर से जाती ।।

जब क्षितिज लोनाई प्रतिपल, कण-कण से मिल -मिल गाती ।.

क्यों विवश स्वरों की चीखें, अंबर को नहीं सुनाती।।

छलना है हरित दूर्बा,विष युक्त हृदय पनघट है।।

गो नाशक भाव का काली, पर कहां सांवरा नट है।

है जमुन पुलिन क्यों निर्जन,वृन्दा वन सूना-साना।।

गोकुल उर आहत पीडा ,अब तक किसने पहचाना।

खो गयी राम की वाणी,पौरुष इतिहास की गाथा।।

है श्री हत पडी अयोध्या,अब लंका पुरी सनाथा।

क्यों रामेश्वर की वाणी, अब काशी से अलग-थलग है।।

अलगाव बाद की आंधी में, उडता सारा जग है।

अब देश भक्ति का नारा , रोमांच नहीं तन लाता ।।

दो डग आगे बढते ही मत, पंथ भिन्ऩ हो जाता ।

हंसता अतीत का गौरव,रोती है क्षीण जवानी ।।

इठलाती है प्रति हिंसा, गृह जला रही मन-मानी।

कुबलय़ की कुंठित पीडा ,अलि समझ नहीं क्यों पाता ?

जब दोष सलिल शोषक का ,वह क्यों इससे कतराता ।

कर से आहत कर दल को, ले अधर पराग पिपासा ।।

छक कल जिसकी मदिरा पी,क्यों ग्राह्य नहीं प्रत्याशा ।

क्यूं आज कुल बधू दीना, मर्यादा की शाखों से ।

प्रात: सुहाग की लाली,तकती सूनी आंखों से ।।

पतिता उद्दंड नदी सी , पंकिल करती हर कोना।

कोयला पूज्य जग- भर में , बंदी गृह शोपित सोना।।

क्यों पर्ण कुटी का योगी,महलों का स्वप्न संजोता

अति दीन मलीन गृही क्यों ,कर्तब्य मार्ग पर रोता ।

निष्काम कर्म का साधक , क्यों दूर हो गया तुझसे ।।

आकुल हूं व्यथित हृदय हूं , मां मर्म बता कुछ मुझसे

अतिवाद प्रभंजन प्रति पल, तोडता सुतरु शाखायें ।।

ग्रसता दहेज का दानव ,साध्वी सुघर ललनायें

है भेद वाह्य अंतर में ,विपरीत भाव का डेरा ।।

जग की जितनी छलनायें ,सबने उर किया बसेरा

क्यों तडप रहा नर शावक,शैया ममत्व रस हीना ।।

डिब्बे का बंद जहर पी ,क्या सुलभ है उसका जीना

कृत्रिम सौन्दर्य पिपासा ,आगत का गला घोंटती

क्रूरा जननी के पग में , सौतन की डाह लोटती

सुन्दर हैं मधुर बलय युत, कटि क्षीण कंकिनी हीना

उन्नत उरोज शशि रूपा ,पर तमस उरा तन क्षीणा

आती प्रति दिन गो धूली , गो शब्द किन्तु अंजाना

उजडे सुनीड डालों से , खग कलरव लुप्त सुहाना

हे राम कृषण की जननी , अब तुझको किसकी आशा

उर विकल भाव भरती है,प्रतिपल मेरी जिज्ञासा

बंधुत्व सशंकित स्व से, पर से करता प्रत्याशा

काटता मूल निज कर से ,फल पल्लव की अभिलाषा

क्यों सास पुत्र बधुंओं को , कन्या सम नहीं देखती

जीवन के मधुर पुष्प में, निज कर विष शूल भेदती

आकुल है खडी यशोदा ,बन पथ पर नयन गडाये

पर मदिरालय में कान्हा,चशकों से चश्क लडाये

क्यों कंस सभा अति जग -मग बल पौरुष पर इठलाती

वसुदेव उपेक्षित सुत से, सुन-सुन कर वह हर्षाती

क्यों आज सीय सावित्री, पर पति से नेह लगायें

इतिहास नाम का सुनकर, क्रोधित भंव नयन चलायें

क्यों आज राम की संसद,जन -जन में भेद बढाती

निर्दोष शांत प्रिय जन को ,हिंसा की भेंट चढाती

क्यों आज अवध शासन हित, औचित्य भरत बध का है,

सुत धर्म विलग हो रोता ,सम्मान राज पद का है

क्यों आज रजक की बांते ,सुनती न गुप्त चर शाखें

ऊंघता आलसी शासन ,गद्दी पर मूदे आंखें

जलती गरीब की कुटिया, महलों पर मेह बरसता

जो जग को भोजन देता ,वह टुकडों हेतु तरसता

मंथरा देव प्रतिमा सी ,पूजित होती घर-घर में

केकयी कलह की जननी , की जय अवनी अंबर

लव कुश बल विद्या वंचित ,अब राज मार्ग पर घूमें

सीता को ताने देते ,पत्नी पद पल-पल चूमें

लक्ष्मण राम को त्यागे, उर्मिला शक्ति में भूले

शत्रुघ्न मधु पुरी मे रम, सखियों संग झूला-झूले

हो प्रजा विमुख भूपति से ,अनुराग पाप में रखती

उत्कोच न्याय हित देकर , प्रति-दिन निज स्वार्थ परखती

रकक्ष ही भकक्ष बनकर, धन प्रजा जनों का खाते

बट मारी उत्साहित कर, निर्दोष को दंड दिलाते

क्यों आज पितृ वचनों का, आदर अति न्यून नहीं है,

क्या तन पोषक भावो से, कुल का कल्यान कहीं है

जो कर किरीटि सिर मढकर ,रंकों को भूप बनाते

हो राज शक्ति संयुत वे, उपकारी कर कटवाते

करनी कथनी शासक की ,सरिता के युगल- कूल हैं

मुख से हैं फुल बरसते , करनी विष बुझे शूल हैं

छल कपट द्वेष कटु भाषण, पग-पग पर दंभाचारी

नृप नीति , धर्म के ऩाशक, सत्ता के सतत् पुजारी

नित नया प्रलोभऩ देकर , क्यों सत्ता जीती-जाती

छूंछा घट पलट -पलट कर ,मरु भूमि है सींची जाती

क्यों स्वान नीति के द्वारा ,संघर्ष बढाया जाता

सुख शांत जन जीवन ,बलि भेंट चढाया जाता

जो राज द्रोह कर प्रति क्षण, कटुता विष बेलि बढाता

भय कातर प्रजा प्रशासन, क्यों उसको शीश झुकाता

दुर बुध्दि की जननी सत्ता, छल कारक इसके पाये

तत क्षण कृत्घन बन जाता , जो इसके अंक समाये

सागर की लहरे प्रति पल , उठ नभ को छूने जाती

पर तट वर्ती पौधों पर , दो बूंद नहीं बरसाती

क्या यही है राज व्यवस्था , क्या यही नीति अनुशासन

निश दिवस प्रजा को लूटे, क्या वही है, सफल प्रशासन

मर रहे सपूत देश के ले, आत्म घात का आश्रय

पर हठी सुयोधन हंसता ,पाकर दु:शासन प्रश्रय

सेवा का मान अर्थ को , दे बैद्य महल बनवाता

दीनता के उर का शोडित ,ले उच्च कलश रंगवाता

प्रति दान मांगता “शव” से , इसको न कृतांत की शंका

क्षण भँगुर जीवन आशा , यह निर्मित करता लंका

सूना गुरुकुल शालायें ,छवि गृह अपार जन सागर

भरती न क्षितिज सागर तक , मृदु जल से छूछी गागर

हैं शिष्य बाध्य दानी से ,गुरु रंक हस्त फैलाते

अधकचरी विद्या देकर ,गृह रजत स्वर्ण ले जाते

उत कोच योग्यता द्योतक, निशि वासर पूज्य प्रवर है,

निज राष्ट्र धर्म विक्रय में , हर राष्ट्र शक्ति तत्पर है,

रुचता न बेणु का बादन, न बीणा की झंकारें

ले क्षुधा कटोरा कर में, गूँजती हैं आर्त पुकारें

वातायन से भवनों के, कोई छाया दिख जाती

भाषण का भोजन पाकर ,भूखे को तृप्ति मिल जाती

पर यह आश्वासन कब तक , कब तक यह प्रबल प्रतीक्षा

कब तक सभांल पायेगी , भूखे को राष्ट्र की इक्षा

फड फड कर उडी पंखिनी , बैठी सूनी डालों पर

नि:सीम रात्रि कब बीते ,ढलके आंसू गालों पर

क्या अंत कभी आयेगा ,इन क्रूर काल रातों का

क्या सुखद सुदर्शन होगा , स्वप्नों की बारातों का

अनगिनत प्रश्न की लडियां, हिय धधक रही ज्वाला सी ।

क्यूं तन-मन भय उपजाती, उर टंगी मुंड माला सी ।।…………….

जो अन्न देश का खाकर यश शत्रु देश का गाते

जननी को आहत करते आतंक को गले लगाते

शिक्षा के शुचि मंदिर में क्यों अधम कीट हैं पलते

रोटी के लाले घर में, ये सजे यान से चलते

क्यों ऐसे ङू भारों को ,क्यों नेता अंक उठाता

जो तजें प्राण सरहद रण ,क्यों उनके द्वार न जाता

सुख देव भगत की मातृ भूमि, हे चंद्र शेखर की माता

विष बोल देश द्रोही का ,है कैसे तुझे सुहाता

है जन्म व्यर्थ उस नर का,जो देश के काम न आये,

खुद नग्न प्रदर्शन करके , औरों पर दोष लगाये

क्यों इन्हें न रोका जाता , क्या ? इनमं शक्ति प्रबल है

निज राष्र सुरक्षा हित में ,क्यों राष्ट्र शक्ति निर्बल है

अपहरण बाल नारी का ,बध ,दुष्कर्मों का तांता

क्या दानव वृत्ति नहीं है,क्यों इन्हें न दंड मिल पाता

क्यों कमल पुषप की आहुति ,की यज्ञ सराही जाती

क्यों नव कलिका के कर में बंदूक थमा दी जाती

क्या यही शक्ति उत्तोलन,क्या यही मार्ग शुचिवर है

पय से मदिरा निर्मित कर ,जो भरते अब सरवर हैं

जो इंद्र शक्ति की गुरुता ,कोमल तन सदा छिपाये

रचती भविष्य की काया ,क्यों उसको जान पाये

अनगिनत प्रश्न की लडियां ,उर धधक उठी ज्वाला सी

क्यों तन मन भय उपजाती, गल चमगी मंड माला सी

छायी थी काली रजनी ,अंबुद था प्रबल प्रभंजन

रोंगटे खडे कर देता ,अपने उर का स्पंदन

मैं शांत मौन लेटा था ,तब तक कुछ हृदय समाया

ज्यों तमसा छन्न कक्ष में ,कोई दीपक लेकर आया

नभ घोरगर्जना गूंजी, कूकी भयभीत मयूरी

शिशु चिपक गया ममता से ,नि:शेष न किंचित दूरी

चपला की चपल चमक में , उभरी छवि एक सलोनी

विषमय से देखा उसको ,जो थी शाश्वत अनहोनी

मानस में संभ्रम उपजा , यह स्वप्न कि या कि सच्चाई

शंका निजत्व पर होती ,वह कठिन परिस्थिति आयी

थी अबस विकलता पल-पल, सम्मोहन बढता जाता

मकडी के तने ताग में, ज्यों कीट उलझ अकुलाता

मन त्याग सकल तर्कों को , उस छवि पर दृष्टि गडाया

दिन का यायावर पक्षी , ज्यों लौट नीड पर आया

वातसल्य पूर्ण मुख मंडल , दृग में करुणांबु कनी थी

बिधु-सिंधु प्रस्फुटित नीरज, दल सीकर बिन्दु सनी थी

थी धवल चंद्र सी आभा, उस तन पर शुभ्र वसन की

जिसको दुगुणित करती थी , द्युति सस्मित हास दसन की

विम्बाफल मधुर अधऱ से, चू चले पुष्प सुर तरु के

पुलकित मयूर मन झूमा, सिंचित पौधे ज्यों मरु के

चातक की नवल तृषा सी ,फिर उमड पडी जिज्ञसा

उस समय हर्ष विस्मय की है ,सुलभ नहीं परिभाषा, 

हे वत्स प्रथम संबोधन , था मन: ताप का नाशक

ज्यों तप का फल पाया हो ,कोई लय लीन उपासक

बिधि निर्मित यह जग सारा ,अनुपम है परम अनोखा 

जो सहज सत्य सा लगता, है सचमुच वह ही धोखा

कर्त्व्य उपेक्षित प्रतिपल , बस भोग की शक्ति प्रबल है,

वह ही विनाश का पथ है, जहां क्लीव बना संबल है

प्थवी एक गंग मंच सी, दर्शक विधु,रवि ऩभ तारे

पात्रता निभाते प्रति दिन ,जग के हैं प्राणी सारे

आत्मा अमर सत्ता है, माया जीव बसन है

पंचाब्य के द्वारा ही, यह असत् सृष्टि दर्शन है

है अहम पुत्र माया का , जो कर्तृ भाव उपजाता

पाकर उपहार अविद्या ,जग जीव उलझ रह जाता

जो बुद्धिमान नर जग के , बिद्या से रखते नाता

पाकर विवेक का आश्रय,पथ दृश्य मान हो जाता

सुख शांति अशांति दुख सब,माया के निकर प्रबल हैं

मैं मेरा ,या तू तेरा ,ही संचालन संबल हैं,

मैं तू शब्दों के ऊपर यह सारा नाटक चलता

जो सत्य पंथ का साधक , बच इनसे सदा निकलता

तू भटक रहा है भ्रम में उर लिए विकलता भारी

लो वह भी बतलाती हूं,चाहती जो बुद्धि तुम्हारी

मैं शक्ति अनादि अरूपा,धारण करती जब काया

उस सगुण रूप सत्ता को,ज्ञानी जन कहते माया

नर नारि नपंसक विग्रह , यह तीन प्रकृति है मेरी

जग प्राणी बन मृग पीछे,घूमता है काल अहेरी,

मैं ही हूं पुरुष पुरातन ,मैं ही हूं जगत नियंता

मैं ही पालक सत गुण हूं,मैं ही तम जग का हंता

मैं भी भविष्य का चिन्तन .,मैं ही हूं विगत कहानी ,

मैं वर्तमान की पूजा , मैं सारी प्रकृति सुहानी

पर ये रहस्य की बातें,जग जीवन समझे झूठी

नट कृत प्रपंच ज्यों दिखता,बस मानें उसे अनूठी

इतिहास सुनाती हूं मैं, अब इस प्रपंच का सारा

जिसको निज इष्ट समझ कर , जग आये जीव दुबारा

इन्द्रियां तुम्हारी ,जितनी, सब भोग द्वार हैं तन के

जो जुडे अंग काया रथ , वे ही घोडे हैं मन के

मन सदा सारथी बनकर , रथ स्वार्थ पहाड चढाता

तोडने को नभ के तारे , कर बार बार फैलात

थकते हैं रथ के घोडे रथ जीर्ण शीर्ण अति होकर

फिर लुढक पार्श में आता , सब द्रब्य गांठ की खोककर

राजा या रंक सभी में , यह दुर्गुण पाया जाता

पालता है प्रथम दुराग्रह ,पीछे कर मल पछताता

मानवी कर्म काया यह यद्यपि माया निर्मित है,

पर सकल दिव्यता मेरी,इसके सुकर्म अर्पित है

सत्, रज , तम त्रिगुण ताग में गूंथती हूं जग की माला

है प्रथम सुशीतल चंदन तो युगल हलाहल ज्वाला

साधना कठिन है सत की, रज विन प्रयास उर आता

मादक आकर्षण लेकर ,तम सत्वर गले लगाता

ले पूर्ण नियंत्रण अपने, मन चाहे कृत्य कराता

फिर आत्म तत्व विस्मृत कर, जग जीव विवश हो जाता

चढती कामना की सरिता, बढती है भोग पिपासा

अत्यधिक प्रजा उपजाकर , लगती है हाथ दुराशा

यह मेरा कहती ममता , मैं ऊंचा दंभ सिखाता

सर्वस्व हो हम तक सीमित, यह पाठ ही लोभ पढाता

ईर्ष्या ले काष्ठ कलुष को ,क्रोधाग्नि सतत भडकाती

असिधार शिखा बन जिसकी , प्रति हिंसा लडने आती

तम पूर्ण जनेश्वर आगे, बडकर जो राह दिखाता

उस दोष मार्ग को चुन कर जन स्वत:नष्ट हो जाता

यह सकल प्रेणा मेरी, जिसको माया दर्शाती ,

सागर जल मेघ बरसते, सरिता सागर ले जाती

जब सृष्टि संतुलन का घट , जन पारा वार समाता

तब काल प्रंजन बनकर , अनचाहा अंबु सुखाता

फिर संयम की रजु लेकर , हो प्रगट दूर अंबर से

पनिहारिन प्रकृति पुन: तब , घट भंध संभाले कर से

शुचि नवल रश्मि शशि की , नव रंग नवीन सुमन का

करते स्वागत नव युग का , नव कलरव मधुर शकुन का

नव भ्रमरों की स्वर लहरी , कण कण गुंजारित करती

दे उपालंभ बीते का , आगत में सन्सति भरती

सर सर समझाता मारुत, मर मर कर मर्म बताता

जिस तरह सृजन हो नव का , नव चेतन शक्ति जगाता

ये उपादान सब अपने, मैंने जो दिया घनेरे

सत कर्म ही इसका रक्षख नहिं पंथ और बहु तेरे

द्वापर में कृष्ण कलेवर , में मैंने जो कुछ भाषा

केवल निष्काम कर्म ही , सब शांत करे जिज्ञासा

शुचि बुद्ध विवेक का दीपक , मैंने सौंपा है जग को

जिसके आलोक में ढूंढे , जन स्वयं ही अपने मग को

देती है थका जगत को , जलती सत कर्म की होली

पर इक्षा शक्ति प्रबल यदि, तो नहीं सहारा मेरा

जन स्वयं सवांरे जग को , रचे पौरुष सुखद बसेरा ,

हो त्याग राम के जैसा , कांहा सी नीति सहारा

श्री बुद्ध से शांति से पोषक , तो बने सुखी जग सारा

कवि प्रसिद्ध हिन्दी के ख्यातिलब्ध साहित्यकार हैं

प्रकशित हिंदी उपन्यास ” रद्दी के पन्ने”

image source AI

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