एक दन्तImage source meta ai

अभ्यर्थना में महात्मा तुलसीदास जी लिखते हैं:-

ठाकुर प्रसाद मिश्र

Thakur Prasad Mishra

जेहि सुमिरत सिधि, गणनायक करिवर वदन

करहु अनुग्रह सोई, बुद्धि राशि शुभ गुण सदन

 मूक होई वाचाल, पंगु लहइ गिरिवर गहन । 

जासु कृपा सो दयाल द्रवहु सकल कलिमल दहन

“ए एक दन्त भगवान गणेश ही हैं, जिनका स्मरण करते थे रिद्धि-सिद्ध आप के हित साधन में आप की सहायता करने में तत्पर हो जाती हैं । भगवान गणेश सर्वदा पूज्य गणनायक रूप में पर ब्रह्म के अवतार हैं। शिव एवं पार्वती विवाह में भी इन्हीं की अग्र पूजा हुई थी। 

  पुत्र कामना  से जब माता पार्वती ने इनकी आराधना की थी तो इन्होने स्वयं उन्हें बिना उनके गर्भ में आए ही उनका पुत्र होने का वरदान दिया था, और उनके इक्षा करते ही शिशुरूप में उन्हें पालने में प्राप्त हुए थे। भगवान गणेश अखिल ब्रहमाण्ड  नायक का एक स्वरूप है,जो सदा ही जगत की विध्न वाधाओं का हरण कर भक्तों का कल्याण करने वाला है। इनकी अपरमित सत्ता का वर्णन हम सामान्य जनों के बस की बात नहीं है। और उनकी इक्षा के इतर संसार में कुछ हो भी नहीं सकता। अब प्रश्न उठता है कि शनि की दृष्टि के कारण कटे शीश के स्थान पर गज मस्तक लगाया गया, इस कहानी को बहुत से लोग जानते हैं. लेकिन प्रश्न उठता है कि आखिर ए एक दन्त क्यों हैं? 

इनके एक दन्त होने की कहानी ब्रह्मा पुत्र परम तेजस्वी, परम तपस्वी, भीषण कर्मा मुनिवरवर भृगु के वंश से जुड़ी है, जिन्होंने परीक्षा लेने के उद्‌देश्य से कोप पूर्वक भगवान विष्णु की छाती पर में लात मारा था. उन्हीं के कुल में दैत्यगुरू  शुक्राचार्य भी हुए जो तामसी प्रवृत्ति के राक्षसों के गुरू हैं। उसी कुल में  महर्षि जमदग्नि पुत्र भगवान परशुराम भी हुए जो भगवान विष्णु के एक अवतार माने जाते हैं। जिनकी पितृ भक्ति और जग में अटल रेख है । इन‌का भी नाम राम ही था, किन्तु फरसा ‌इनका दिव्यास्त्र होने के कारण इन्हें परशुराम कहा जाता है। इन्होंने अपने पराक्रम से इक्कीस बार अभिमानी राजाओं का पृथ्वी पर नाश किया था। अपने शस्त्र, शास्त्र के ज्ञान के कारण पृथ्वी पर प्रबल प्रतापी अजेय वीर माने जाते थे। उन्हें भी क्रोध बहुत  जल्दी आता था। भगवान राम ने वन जाकर पिता की आज्ञा का पालन किया था तो इन्होने पिता की आज्ञा से अपनी माता का ही सिर काट डाला था।

भगवान सदा शिव, भोले शंकर ही भगवान परसु के परम गुरु थे। ए शिव के अनन्य भक्त थे और भगवान भोलेनाथ भी इन्हें अपने पुत्त्र के समान ही मानते थे।

एक बार भगवान परशु धर  को गुरु दर्शन की इक्षा प्रबल हुई तो कैलाश की तरफ चल पड़े। वहाँ पहुंच कर जब शिव इन्हें अपने आसन पर दिखाई नहीं दिए तो नंदी ने बताया कि प्रभु इस समय पास की गुफा में माता जी के साथ एकान्त सेवन में हैं। परशुराम जी गुफा पर जा पहुंचे। उनका मानना था कि  माता- पिता कहीं भी बैठे हों पुत्र को सर्वत्र उनका दर्शन करने का अधिकार है। ऐसा विचार कर वे गुफा के द्वार में प्रवेश करना चाहे तो एक गज मुंडधारी किशोर ने आकर इन्हें रोक कर कहा कि प्रभु माता जी के, साथ इस समय गुफा के अन्दर एकान्त सेवन कर रहे हैं, अतः वहाँ किसी का जाना वर्जित है। परशुराम जी बोले किसी शिष्य को उसकी गुरु‌माता और गुरू से  मिलने से  कोई कैसे रोक सकता है। किन्तु उस बालक ने उनकी बात अनसुनी कर दी, और इन्हें रोकने पर अडिग रहा। बल, पौरुष मद में कुपित परशुराम जी उस बालक से विवाद करते हुए उसे युद्ध की चुनौती देने लगे, तब भी वह बालक अपनी बात पर अडिग रहा तो कुपित परशुराम राम ने उस बालक पर परसु प्रहार कर दिया।. प्रहार के प्रभाव से उस गजबदन किशोर का एक दाँत कट कर छिटक कर दूर जा गिरा। अपना दाँत कटने पर रुधिर की धारा बहती देख वह किशोर भी क्रोध में आ गया एवं अत्यन्त द्रुत गति से आगे बढ़‌‌कर परसुराम जी को अपनी सूंड़ में जकड़‌ कर घुमाने लगा। सुंड का चक्कर लोक -लोकान्तर में घूमने लगा। सू़ंड़ में बंधे परसुराम जी ने अपने लोक से इतर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में घूमते हुए अनेक लोकों को देखा। उनकी बुद्धि विकल होने लगी जिसे वे सामान्य किशोर मान रहे थे वे तो अखिल ब्रहमाण्ड नायक हैं। अतः वे प्रायश्चित के भाव से उनके शरणागत हो गए। गजवदन ने उन्हें अत्यन्त सहज भाव से पुनः गुफा द्वार पर खड़ा कर दिया। वे अत्यन्त खिन्न भाव से नीचे सिर किए खड़े रहे।

   उधर कटे दाँत की रक्त धार जब गुफा के अन्दर पहुंची तो क्रीडा रत युगल का ध्यान उस पर गया, और वे दोनों शीघ्रता से बाहर आ गए। माता पार्वती की दृष्टि जब किशोर पर पड़ी तो वे कुपित स्वर में चीखकर बोलीं  पुत्र गणेश तुम्हारी यह दशा किसने की? मैं उसे कठोर दंड दूँगी, फिर उनकी दृष्टि परसुराम के परशु पर पड़ी जिसके धार पर रक्त लिपटा था। उन्हें समझते देर नहीं लगी कि् यह अपराध परसुराम ने किया है।, और जब अत्यन्त क्रोध में भरकर माता जी ने उन्हें दण्डित करना चाहा तो,  अब तक मौन खड़े भोलेनाथ ने उन्हें समझाते हुए रोका बोले देवी दो पु‌त्रों की लड़ाई में आप एक पुत्र का पक्ष लेकर दूसरे को दंडित कैसे कर सकती हो? आखिर परसुराम  भी हमारा शिष्य है। आप उसकी गुरुमाता हैं, शिष्य तो पुत्र से भी बढ़कर माना जाता है। अतः आप क्रोध का त्याग कर दोनों के कल्याण के लिए उहें आशीर्वाद दें। भगवान भोलेनाथ के समझाने पर माता जी शांत हो गयीं । उन्होंने परसुराम से शोक त्यागने के लिए कहा और गणेश से बोलीं पुत्र आज से तुम्हारा एक नाम एक दन्त भी होगा, और आगे आने वाले समय में तुम इस नाम से भी जाने जाओगे।

तो ए है  एक दंत ,सिद्धि, गणनायक, गणाधिप गणेश जिनको श्रद्धा पूर्वक भजने से सारे कलि कलुष मिट जाते है, एवं नवाचार के शुभ्र प्रकाशित मार्ग दृष्टि गोचर होने लगते हैं। विघ्न हर्ता गणेश का कोटिशः नमन. 

रचनाकार — सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं, प्रकाशित हिंदी उपन्यास ” रद्दी के पन्ने”

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