कहानी : एक सवाल की उम्र
अरुणाकर पाण्डेय
एक छोटी सी जगह थी | एक दिन उस जगह से एक मामूली सा सवाल पैदा हो गया |वह सवाल इतना छोटा था कि लोग उसकी कोई कीमत नहीं समझते थे और उसे नजरअंदाज करने का स्वभाव बना लिया | उन दिनों राजतंत्र था और वहाँ जो राजा होता था, वह चालीस-चालीस बरस तक तो यूं ही राज किया करता था | इस तरह लोग राजा को देखते थे और राजा कहाँ देखता था यह कोई नहीं जानता था | दिन पर दिन बीतते गए, बरस पर बरस बीतते गए और लोगों तथा राजा की पीढ़ियाँ भी बदलती गईं, लेकिन एक दिन लोगों ने ध्यान दिया कि कहीं से बहुत बदबू आ रही है और कहीं-कहीं रंग उड़ा हुआ है !! पता चला कि वह सवाल बीते समय में अपना खाद-पानी लेकर इतना तगड़ा हो गया था कि उसने उस जगह की पहचान बदलनी शुरू कर दी थी | यह प्रक्रिया इतनी सघन हो चली थी कि राजा भले ही कहीं देखता हो, लेकिन लोगों ने उसकी तरफ देखने छोड़ दिया था |वे सवाल की तरफ ज्यादा देखने लग गए थे | उधर वक्त बदलने लगा और आगे बढ़ने लगा और एक ऐसा दिन आया कि आखिरी राजा भी जाने को हो गया | उन दिनों भी यह पता नहीं लगाया जा सका कि वह कहाँ देखता है !! व्यवस्था बदली, राजा गया और नेता आ गया | अब लोगों को भरोसा था कि वे जानने लगे हैं कि नेता कहाँ देखता है !! लेकिन समस्या यह थी कि उस जगह की गंध और बेरंगापन इतने व्यापक और इतने गहरे हो चले थे कि अब वे इस जगह से बड़े हो गए थे | लोग यह जान गए थे कि यह उसी सवाल के पसीने की दुर्गंध है और उसी का फीकापन है |अब यह सवाल ऐसा था कि नेता की आँखों में चुभने लग गया था जैसे कि वह कोई विपक्ष हो !! नेता को अब हर समय उस सवाल की चिंता रहती थी और वह उसके कद से भी ऊपर जाने लग गया था | चर्चाओं के दौरान नेता और उसके सहयोगियों को समझ आया कि वे उस सवाल के मूल का पता लागायें जिससे उसका कोई स्थायी हल मिल सके | इसलिए उन्होंने उस जगह को खोजना शुरू किया जो उसकी जन्मभूमि थी | गद्य के आरंभ की वह छोटी सी जगह इतनी बुरी तरह गायब हो चुकी थी कि न तो उसके बारे में इतिहासकार बता सके और न ही भू-वैज्ञानिक !! लेकिन उन सबको यह भी लगता था कि उन्हें सिर्फ पाँच बरस मिले, यदि राजा जितना समय मिलता तो वे उसका हल निकाल लेते | इसके बाद तो पता लगा कि उस सवाल के आगे कई अन्य देशों के नेता भी आकर चले गए लेकिन सवाल लगातार बढ़ता रहा और उसने सारी दुनिया को तंग कर दिया |
कहीं उस आरंभिक जगह का आभास होता भी था तो एक क्षण के लिए किसी कविता-कहानी में !! यह कहना जरुरी है कि इस छोटे से गद्य का अंत आवश्यक नहीं लगता क्योंकि एक तो यह अंत वही बता सकता है जिसने उसे देखा हो और दूसरा यह कि कभी-कभी यह उप-रूढ़ी जैसा लगता है जिसने पढ़ने वालों की आदत खराब कर दी हो |
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं