आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी की जयंती  के अवसर पर अरुणाकर जी का आलेख विशेष रूप से 

द्वंद्व और आचार्य रामचंद्र शुक्ल

आचार्य शुक्ल की अनूदित कृति : आदर्श जीवन

अरुणाकर पाण्डेय

हिंदी की आधारशिला रखने में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का योगदान ऐतिहासिक माना जाता है। उन्हें हिंदी के आलोचक,निबन्धकार और इतिहासकार के रूप में हजारों -लाखों की संख्या में उद्धरित किया जाता है और उनके लिखे हुए को प्रामाणिक मानकर आज भी हिंदी की बहसें की जाती है । वे अपने ‘हिंदी साहित्य के इतिहास’, ‘गोस्वामी तुलसीदास’,’जायसी ग्रन्थावली’,’चिंतामणि’ आदि जैसी कृतियों के कारण हमेशा चर्चा में बने रहते हैं। लेकिन उनके व्यक्तित्व की कुछ विशेषताएँ ऐसी भी हैं जिन पर आज भी असंख्य शोधकार्य किये जा सकते हैं। उन्हीं में से उनका कवि,कहानीकार, अध्यापक और अनुवादक के रूप भी हैं। प्रस्तुत लेख का उद्देश्य उनके द्वारा किये गए एडम्स विलियम डेवेनपोर्ट  की किताब ‘प्लेन लिविंग एंड हाई थिंकिंग’ के अनुवाद ‘आदर्श जीवन’ के माध्यम से उनके अनुवादक व्यक्तित्व  को जानना-समझना है।

अनुवाद के महत्व को आचार्य शुक्ल बखूबी जानते थे और हिंदी साहित्य के इतिहास में उन्होनें कई स्थलों पर हिंदी साहित्य में अनुवाद की भूमिका का पर्याप्त मूल्यांकन भी किया है ।हिंदी के आधुनिक काल के आरंभिक दौर में गद्य की विधिवत पृष्ठभूमि को उन्होनें जब रेखांकित किया तो उसमें अनुवाद का भी विवेचन उन्होंने किया है।उनके अनुसार भारतेंदु काल के पूर्व  जब ईसाई मिशनरियों ने बाइबिल का अनुवाद किया तो उनके सामने सदासुखलाल और लल्लूलाल की भाषा ही आदर्श के रूप में थी जिसमें उर्दू का प्रभाव नहीं था और इससे यह भी निष्कर्ष निकाला कि साधारण जन   पर हिंदी का प्रभाव था और उसमें हिंदी के ठेठ ग्रामीण शब्द होते थे।इसके पश्चात वे अनुवाद की दृष्टि से राजा राममोहन रॉय को महत्वपूर्ण मानते हैं क्योंकि ब्रह्मसमाज की नींव डालने के बाद उन्होनें वेदांत के सूत्रों के भाष्य का अनुवाद हिंदी में करवाया था।इसके बाद शुक्ल जी हिंदी अनुवाद का महत्वपूर्ण उल्लेख तासी के समय का करते हैं जब न्यायालय की भाषा उर्दू हो जाने के बाद सरकारी आज्ञाओं और कानूनों के अनुवाद हिंदी में छपते थे ।यहां तक तो अनुवाद की भूमिका साहित्येतर रूप में दिखती है लेकिन इसके बाद शुक्लजी हिंदी साहित्य में अनुवाद को रेखांकित करते हैं। उनके अनुसार भारतेंदु काल में बंगला उपन्यासों के अनुवाद इस कारण किये  गए जिससे हिंदी में उपन्यास के अभाव की पूर्ति की जा सके।इसमें शुक्लजी ने राधाकृष्णदास,कार्तिकप्रसाद खत्री और रामकृष्ण वर्मा का योगदान विशेष बताया है और यह स्थापना दी है कि प्रथम उत्थान के समय समाप्त होते होते ‘अनूदित उपन्यासों का ताँता बंध गया।’ परन्तु शुक्लजी इन उपन्यासों के अनुवाद की भाषा से संतुष्ट नहीं थे और हिंदी की दृष्टि से उन्हें असमर्थ मानते थे।पर साथ ही वे मानते हैं कि इन प्रयासों से हिंदी में स्वतंत्र उपन्यास लिखने का वातावरण बना । आचार्य शुक्ल ने आधुनिक काल के आरम्भिक दौर में हिंदी में नाटक विधा के स्थापित होने में भी  अनुवाद को पर्याप्त प्रतिष्ठा अपने ग्रन्थ हिंदी साहित्य का इतिहास में दी है। इसका श्रेय भारतेन्दु जी को इस अर्थ में दिया है कि जगन्नाथ यात्रा के अनुक्रम में उनका बंगला नाटकों से परिचय हुआ तो वैसे ही नाटकों की आवश्यकता उन्हें हिंदी में महसूस हुई और तब उन्होनें ‘विद्यासुन्दरी’ का हिंदी अनुवाद किया।शुक्लजी इस अनुवाद से बहुत संतुष्ट थे और उन्होनें इसे हिंदी गद्य का सुडौल रूप का आभास बताया। इसके बाद तो वे भारतेंदुजी के अनूदित नाटकों का महत्व भी स्थापित करते हैं। इन सब बातों को देखें तो स्पष्ट धारणा बनती है कि अनुवाद ने कई बार हिंदी भाषा और साहित्य के संरक्षण का काम किया है।यदि अनुवाद की यह परंपरा न होती तो अपने कठिन आरम्भिक दौर में शायद हिंदी का अपना स्वरूप निर्मित नहीं हो पाता। जाहिर है कि अनुवाद के इस महत्व और प्रभाव से स्वयं आचार्य शुक्ल भी प्रेरित रहे थे और इसी कारण उन्होनें अपने जीवनकाल में कई कृतियों का अनुवाद भी किया |

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के समूचे अनुवाद कर्म में दो भागों में विभाजित किया जा सकता है | पहली कोटि में उन अनूदित पुस्तकों को रखा जा सकता है जिन्हें शुक्लजी ने हिंदी समाज के लिए अत्यंत महत्व का मानते हुए चुना है |इनमें मूलतः चार पुस्तकें आती हैं जिन्हें ‘विश्वप्रपंच’,’राज्यप्रबंधन शिक्षा’,’आदर्श जीवन’ और ‘मेगास्थिनीज का भारतवर्षीय वर्णन’ के नाम से जाना जाता है | इनमें ‘विश्वप्रपंच’ जर्मनी के प्राणीतत्ववेत्ता हैकेल कि पुस्तक ‘रिडल ऑफ़ द यूनिवर्स’ का अनुवाद है जो विज्ञान और दर्शन से सम्बन्धित है |’राज्यप्रबंधन शिक्षा’ को लोक प्रशासन की पुस्तक माना जाएगा जिसे राजा सर टी.माधवराव ने लिखा था |इसमें देशी राज्यों के प्रबन्धन से संबंधित अनुभव हैं |’मेगास्थनीज का भारतवर्षीय वर्णन’ एक पश्चिमी विद्वान डॉ.श्वानबक द्वारा लिखित पुस्तक ‘मेगास्थिनिज़ इंडिका’ का अनुवाद है जो चन्द्रगुप्त मौर्य के इतिहास से सम्बन्धित पुस्तक है|आचार्य शुक्ल द्वारा किये हुए अनुवादों में दूसरी कोटि रचनात्मक साहित्य के अनुवाद की है जिसमें ‘बुद्धचरित’ आर ‘शशांक’ आते हैं | ‘बुद्धचरित’ लाइट ऑफ़ एशिया नाम की कविता का अनुवाद है | ‘शशांक’ राखालदास बन्द्योपाध्याय के बंगला उपन्यास का हिंदी अनुवाद है |      

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की पुस्तक ‘आदर्श जीवन’ उनकी एक ऐसी कृति है जो उन्हें उनकी छवि से अलग चरित्र प्रदान करती है | वे हिन्दी के शिक्षा जगत,साहित्य संसार और पाठकों की दुनिया में अपने इतिहास, त्रिवेणी, जायसी ग्रन्थावली जैसी मानक और अनिवार्य पुस्तकों के लिए सर्वप्रिय हैं |इसके साथ ही उनके निबन्ध और अनुवाद भी हिन्दी की इसी मानसिक भूमि में प्रतिष्ठित हैं | लेकिन ‘आदर्श जीवन’ उनके चिंतक-चरित्र का लोकोपयोगी विस्तार करती है | यह पुस्तक उनके बोध के सूक्ष्म और विस्तृत आयतन का प्रमाण है | वह तत्कालीन आचरण संहिता की एक ऐसी प्रस्तावना है जिस पर ऐतिहासिक दबाव और सामाजिक प्रशिक्षण के चिह्न विद्यमान हैं |

                                        ‘आदर्श जीवन’ सन १९१४ में काशी नागरीप्रचारिणी सभा से ‘मनोरंजन पुस्तकमाला’ के अंतर्गत प्रकाशित हुयी थी | इस पुस्तकमाला का उद्देश्य हिन्दी के वांगमय को योजनाबद्ध तरीके से परिपुष्ट करने का था जिससे जनसाधारण को हिन्दी में विविध और अनिवार्य विषयों पर पुस्तकें पढ़ने के लिए प्राप्त हों | इस समूची माला के सम्पादक आधुनिक हिन्दी के आदि-आचार्य बाबू श्यामसुन्दर दास थे | ‘आदर्श जीवन’ सभा की मनोरंजन पुस्तकमाला की पहली किताब है | यह किताब एडम्स विलियम डेवनपोर्ट की विश्व प्रसिद्ध पुस्तक ‘प्लेन लिविंग एंड हाई थिंकिंग’ का भारतीय रूपांतरण है | मनोरंजन पुस्तकमाला और यह किताब बहुत ही विनम्रता से हमारे सामने मनोरंजन शब्द का नया अर्थ गढ़ते हैं | आज के अनुसार देखें तो तो मनोरंजन बहुत ही बिकाऊ, चलताऊ और बाजारू शब्द बनता चला जा रहा है, लेकिन इस पुस्तकमाला की दृष्टि से विचार करें तो तो मनोरंजन सभ्यता और संस्कृति के स्वाभाविक और सहज परिचायक के रूप में स्थापित होता है | एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि यहाँ शुक्ल जी ने भारतीयता के परिचय में युरोप के विचार-चिन्तन का समावेश किया है, बल्कि कहना यह चाहिए कि सांस्कृतिक निर्माण का उनका बोध विविधता को शक्ति मानता है और सामंजस्य के अपने मूल्य का व्यावहारिक वहन करता है | यह चिन्तन और प्रभाव इतना गहरा है कि युरोप और भारतीय-अभारतीय की सीमा का ध्यान स्वयं पाठक को ही नहीं रह जाता | इसलिए यह मानना अनिवार्य है कि शुक्ल जी, बाबू साहब और नागरीप्रचारिणी सभा के प्रयास हिन्दी भाषा के माध्यम से विश्व-नागरिकता की परम्परा के निर्माण के प्रयास थे |

आचार्य शुक्ल ने ‘आदर्श जीवन’ की भूमिका में इसका अनुवाद करने के कारण स्पष्ट किये हैं |उनका अपना दृढ विश्वास है कि यह पुस्तक तत्कालीन समाज के युवकों के लिए उच्च संस्कारों की शिक्षा देती है जिस पर चल कर वे सुख और यश प्राप्त कर सकते हैं |इसके साथ ही साथ वे इंगित करते हैं कि अब भारतीय समाज में ऐसी पुस्तकों की मांग बढ़ रही है | अतः उनका हिंदी प्रकाशन आवश्यक हो गया है |शुक्लजी लिखते हैं –

किस प्रकार के आचरण से मनुष्य अपना जन्म सफल कर सकता है, किस रीति पर चलने से वह संसार में सुख और यश का भागी हो सकता है, यदि ऐसी बातों का जानना आवश्यक है तो ऐसी पुस्तक का पढ़ना भी आवश्यक है |हिंदी में ऐसी पुस्तकें देखने की चाह अब लोगों को हो चली है|”

                                          शुक्ल जी ने ‘आदर्श जीवन’ में पहला प्रकरण पारिवारिक जीवन पर लिखा है | आज के समय में जब परिवार और सम्बन्ध लगातार श्रीहीन और लघुतर होते चले जा रहे हैं तथा समाज धीरे-धीरे व्यक्तिगत आवश्यकताओं के इर्ग-गिर्द बनता है, शुक्ल जी की पुस्तक का यह पक्ष एक खोयी हुयी कहानी का अहसास कराता है | इस अध्याय में वे स्पष्ट लिखते हैं कि पारिवारिक जीवन के लिए एक-दूसरे कि स्मृति, परस्पर सदभाव, मंगलकामना, सहानुभूति, माता-पिता के आशीर्वाद तथा भाई-बहन के सम्बन्धों की जीवन्तता पर बल देते हैं | एक अन्य निबन्ध में उन्होंने लिखा था कि जैसे-जैसे सभ्यता का विकास होता जायेगा, कवि-कर्म या साहित्य की रचना करना और कठिन होता चला जाएगा | हम जानते हैं कि शुक्ल जी के बहुत बाद ‘चीफ़ की दावत’ जैसी कारुणिक कहानी हिन्दी समाज को पढ़ने के लिए मिलती है और इस अर्थ में लिखना कठिन होने के साथ ही बड़े साहस के साथ बोध को विस्तृत करने का कर्म साबित हुआ है | लेकिन शुक्ल जी का उक्त अध्याय जैसे समूची सभ्यता को मर्मविहीन होने से बचाने का प्रयास जान पड़ता है |

                                           शुक्ल जी की इस पुस्तक का अगला पड़ाव सांसारिक जीवन है | इस प्रकरण में उन्होंने मित्रता के धर्म पर बहुत व्यापकता के साथ प्रकाश डाला है | यहाँ शुक्ल जी परिवार के बाद मित्रों को ही गाढ़े का साथी मानते हैं | संकट और धैर्य-पोषण के समय मित्र ही मनुष्य को सशक्त बनाते हैं | ऐसी में भी यह प्रकरण पढ़ते हुए इस सम्बन्ध में युगीन विरोधाभास सामने प्रकट होते ही हैं | समकालीनता में मित्रता का बोध भी कम से कम लगातार परीक्षा की मांग तो करता ही है, लेकिन वहाँ भी ये दो पंक्तियाँ कि “मित्र का पता आपातकाल में चलता है” (तुलसीदास) और “न काहूँ से दोस्ती न काहूँ से बैर” (कबीरदास) तनाव पैदा करती दिखती हैं | शायद व्यापक अर्थ में यह समय चुनने का नहीं रह गया है लेकिन मनुष्य का इतिहास और उसका बोध ही हमें इस समकालीनता की पूरी समझ दे सकते हैं | इसी अध्याय में एक जगह वे ग्रामीण-युवाओं के लिए यह सलाह देते हैं कि नगर में अकेले होते ग्रामीणों को साहित्य समाज में प्रवेश करना चाहिए | यह अपने समय के अनुसार बेहद प्रगतिशील विचार है लेकिन आज हम देखते हैं कि वह ग्रामीण समाज ही नगर के प्रभाव में इतना विखंडित हो चला है कि उसके सांस्कृतिक उत्पाद उसी की स्थानीय भाषा या मातृभाषा में रिमोट कंट्रोल से लहंगा उठाने की कल्पना पर अपार सफलता प्राप्त करता चला जा रहा है |

                                              पुस्तक का अगला प्रकरण आत्मबल पर केन्द्रित है | इस अध्याय में वे स्वतंत्रता, सत्य, वीरता, आज्ञापालन, साहस, परिश्रम, अध्यवसाय, नियम का पालन और विनोदप्रियता जैसे मूल्यों और गुणों पर बात करते हैं | आज के समय जब इन मूल्यों और गुणों पर बातचीत होती है तो उसे अव्यावहारिक, उपदेशात्मक और नाटकीय माना जाता है जिसके अनगिनत संदर्भ मौजूद हैं | इस दृष्टि से इन पर सीधे बात करना थोड़ा सशंकित करता है लेकिन यहाँ इस तथ्य पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है कि आचार्य शुक्ल का समय गुलामी का समय था जहाँ स्वतंत्रता और राष्ट्रीयता सामाजिक और मानसिक आवश्यकताएँ थी | इस कारण यह संभव है कि आज का पाठक इन बातों में रुचि न दिखाये लेकिन यदि इतिहास बोध के तर्क से देखें तो इसमें फिर कभी गुलामी न झेलने की एक बड़ी आकांक्षा मौजूद है | बल्कि इस अध्याय में एक रोचक मोड़ तब आता है जब आचार्य शुक्ल बेंजमिन फ्रेंकलिन की समूची दिनचर्या पाठक से साझा करते हैं | पढ़ते ही यह समझ बनती है कि यह अध्याय कोरा उपदेश नहीं है बल्कि भविष्य में भारत को बचाने और विकसित करने की लम्बी तैयारी की भूमिका है | जैसे वे भारतेन्दु की ‘भारत दुर्दशा’ का अगला अध्याय सबको सचेत करते हुए लिख रहे हों !

                                          आचार्य शुक्ल ने अगला अध्याय आचरण पर लिखा है | इसमें वे उन लोगों पर कटाक्ष करते हैं जो आलस्य में तल्लीन रहते हुए प्रारब्ध को ही सबकुछ मानते हैं | इसके साथ ही शुक्ल जी का मानना है कि सदाचरण का आधार धर्म ही होता है | लेकिन सबसे अधिक मार्के की बात वे धन के उपयोग को लेकर करते हैं | उनका स्पष्ट मानना है कि रूपये की कद्र हमेशा करनी चाहिए और उसे हाथ का मैल मानना एक मानवीय भूल है | वे रुपया ही पैदा करने वालों तथा रूपये से विरक्त रहने वाले दोनों ही प्रकार के लोगों से अपनी गहरी असहमति रखते हैं क्योंकि वे धन को उपकार और गृहस्थ लोगों के लिए आवश्यक मानते हैं | आमोद-प्रमोद के लिए भी अजायब घर, चित्रशालाओं, विज्ञानालय तथा संगीत जैसे साधनों की ओर संकेत करते हैं जिसमें किसी भी प्रकार के व्यय से बचकर निर्धन व्यक्ति भी अपने आस्वादन सुरक्षित रख सकता है | कहना चाहिए कि जो लोग बैंक के कर्ज की निर्मम अदायगी से गुजरते हैं ,उनके लिए यह अध्याय एक शिक्षक की ध्वनि का काम करता है |

arunkar pandey with ram chandra shukla

                                          अध्ययन ‘आदर्श जीवन’ का सबसे महत्वपूर्ण प्रकरण है | इसमें पाठक के निर्माण की प्रक्रिया की प्रस्तावना शुक्ल जी करते हैं | इस अध्याय का प्रमुख स्वर यही है कि पढ़ना जीवन की शर्त है | शुक्ल जी का यह अध्याय बतलाता है कि पढ़ने का अर्थ इतिहास की क्रियाशीलता में समाया हुआ है | जो नहीं पढ़ते उन्हें इतिहास की अस्थिरता का बोध नहीं हो सकता | इसके उदाहरण स्वरुप एक जगह शुक्ल जी ने बताया है कि विकास शक्ति के क्रमशः क्षीण होने का संकेत है | यहाँ पर वे लखनऊ के विकास के सन्दर्भ में वाजिदअली शाह की विलासिता को रेखांकित करते हैं | यही नहीं उनका अटूट विश्वास है कि जो विद्याभ्यासी पढ़ते हैं वे साथियों का अभाव महसूस नहीं कर सकते | इसके साथ ही शुक्ल जी अध्ययन का एक अन्य महत्व यह मानते हैं कि वः औषधि का कार्य करता है क्योंकि इससे तर्क-वितर्क और सूक्ष्म विवेचन की शक्ति तो पैदा होती ही है, साथ ही भावों का परिष्करण भी होता है | इन सभी बातों से अलग, जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात वे यह लिखते हैं कि विषयों के पठन में एक क्रम होना ही चाहिए अन्यथा पढ़ना वृथा है | देखा जाए तो यहाँ पर वे साधारण पाठक को शोधार्थी में रूपांतरित करने की कला का संदश दे रहे हैं | इसका स्वाभाविक प्रतिफलन वे पढ़ने को आलोचनात्मक क्रिया के रूप में देखते हैं |

                                           ‘आदर्श जीवन’ का अंतिम अध्याय स्वास्थ्य विधान से सम्बन्धित है जिसमें आचार्य शुक्ल ने भोजन के नियम, पेय पदार्थ, व्यायाम, स्नान और निद्रा के बारे में अपने विचार प्रकट किये हैं | इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य शुक्ल केवल साहित्य और शिक्षा के ही चिंतक नहीं थे बल्कि उनकी दृष्टि उस अध्यापक सरीखी थी जो अपने समाज के सर्वांगीण विकास के बारे में सोचता है | यह अध्याय सिद्ध करता है कि उस समय भी बौद्धिकता की सीमा में स्वास्थ्य और शारीरिक विकास जैसे विषयों पर भी उनकी दृष्टि उसी प्रकार का पैनापन लिए थी जैसा कि वह अपने मूल विषयों के प्रति उजागर होती है | शिक्षा की इस परम्परा के बारे में आगे के आलोचकों का चिन्तन खोजना भी इसी कारण एक अनिवार्यता लगती है | यही इस पुस्तक का देय है |  

अनुवाद कौशल की दृष्टि से देखें तो स्पष्ट है कि ‘आदर्श जीवन’ एक भावानुवाद की कृति है |आचार्य शुक्ल ने इसका अनुवाद शब्दशः नहीं किया है बल्कि भारतीय प्रकृति के अनुसार उन्होंने इस पुतक का अनुवाद किया है | जहां उन्हें आवश्यक लगा है उन्होंने मूल पुस्तक का वह भाग संपादित कर अनुवाद किये है जिससे भारतीय पाठक को बात सीधे पहुँच जाए | आचार्य शुक्ल प्रथम संस्करण के वक्तव्य में लिखते हैं कि – 

“जहाँ-जहाँ अंगरेजी पुस्तक में दृष्टांत आए हैं,वहाँ-वहाँ यथासंभव भारतीय पुरुषों के दृष्टांत दिए गए हैं |पुस्तक को इस देश की रीति नीति के अनुकूल करने के लिए और भी बहुत सी बातें घटाई बढ़ाई गयी हैं |”

इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि शुक्ल जी की दृष्टि में विदेशी पुस्तकों के अनुवाद में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि वे भारतीय पाठकों की प्रकृति और आवश्यकताओं के अनुकूल हो |इस पुस्तक के ‘प्रकाशकीय’ में नागरीप्रचारिणी सभा के तत्कालीन प्रधानमंत्री सुधाकर पाण्डेय ने भी यह स्वीकार किया है कि आदर्श जीवन मूल ग्रन्थ का ‘अविकल अनुवाद नहीं है लेकिन फिर भी यह अपने आप में एक सम्पूर्ण पुतक का बोध देती है |उनके शब्दों में –

“यद्यपि यह सम्पूर्ण ग्रन्थ का अविकल अनुवाद नहीं है तो भी भारतीय आचार-व्यवहार की दृष्टि से यह ग्रन्थ अपने में परिपूर्ण है |ऐसे प्रकरण इसमें नहीं हैं जो हमारे उपयोग के नहीं हैं |”

सुधाकरजी के इस कथन में ‘हमारे’ शब्द पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है |हमारे का अर्थ ही भारतीय प्रकृति या स्वभाव से है जिसकी अपनी संस्कृति और समझ व्यवहारों में मौजूद होती है |शुक्लजी ने अनुवाद्में इसीलिए इस पर जोर दिया कि मूल ग्रन्थ को ज्यों का त्यों न रख दिया जाय |वह सच्चे अर्थों में भारतीय किशोरों के लिए उपयोगी हो इसका प्रयत्न शुक्लजी ने आदर्श जीवन में भरसक किया है |तभी इसमें जगह-जगह भारतीय व्यक्तियों जैसे कि महाराजा रणजीत सिंह,रैदास और वाजिद अली शाह के उदाहरण दृष्टांत स्वरुप पढ़ने को मिलते हैं |

आदर्श जीवन के अनुवाद में शुक्लजी ने जिस भाषा को चुना है उस पर उनके सरल-सहज व्यक्तित्व की छाप दिखाई देती है |उनके शब्दों का चयन कई बार आश्चर्य में डाल देती है और कई बार गहरी आत्मीयता का बोध होने लगता है मानो जैसे वे सामने बैठकर पाठक को अपनी बात सुना रहे हों  | आदर्श जीवन के दूसरे प्रकरण ‘सांसारिक जीवन’ का यह उद्धरण पढने से बात खुल जाएगी |शुक्लजी लिखते हैं –

“संसार के अनेक महान पुरुष मित्रों की बदौलत बड़े-बड़े कार्य करने में समर्थ हुए हैं |मित्रों ने उनके हृदय के उच्च भावों को सहारा दिया है |मित्रों के ही दृष्टान्तों को देख देखकर उन्होंने अपने ह्रदय को दृण किया है |अहा ! मित्रों ने कितने मनुष्यों के जीवन को साधु और श्रेष्ठ बनाया है, उन्हें मूर्खता और कुमार्ग के गड्ढों से निकाल कर सात्विकता के पवित्र शिखर पर पहुँचाया है |” 

प्रस्तुत उद्धरण में देखें तो शुक्लजी का भाषा प्रवाह बना हुआ है और हिंदी के शब्दों का चयन भी बहुत स्वाभाविक लग रहा है |इसमें जैसे वे मित्रता के परम उद्देश्य को उद्घाटित करते हुए आनन्द कि मुद्रा में दिखाई दे रहे है |लेकिन यहाँ पर भी सबसे अधिक ध्यान देने वाला शब्द ‘अहा !’ है जो अनुवाद में भाव के परिमाण को बताने वाला शब्द है |इस शब्द से जैसे वे मूल ग्रन्थ की कही हुयी बात पर अपने अनुभव की रसीद लगा रहे हों | इस अर्थ में देखें तो शुक्लजी का अनुवाद मूल ग्रन्थ को और अधिक उपयोगी बना देता है | 

आचार्य शक्ल के आदर्श जीवन के अनुवाद की एक अनोखी विशेषता यह भी है कि उन्होंने भावानुवाद में छंदों के प्रयोग से भी काम लिया है |’सांसारिक जीवन’ के प्रकरण में वे यह बताते हैं कि दरअसल समय से पहले किसी काम को पूरा कर देना किसी कौशल की निशानी नहीं है बल्कि वह तो उतावलेपन का चिह्न है | इसी प्रसंग में वे महाराणा प्रतापसिंह का उदाहरण देते हैं जो मृत्युशैय्या पर पड़े हए थे लेकिन अपने पुत्र अमरसिंह की उतावली से जितना दुखी थे उतना किसी अन्य बात से नहीं | महाराणाप्रताप के इस मनोभाव को आचार्य शुक्ल ने चार छंदों के माध्यम से व्यक्त किया है और इसके बाद गद्य में कुछ भी नहीं कहा जैसे पद्य से बात पूरी हो गयी | शुक्लजी के शब्दों में पहला छंद है-

                         “एक दिवस एहि कुटी अमर मेरे ढिग बैठ्यो |

                          इतने में ही आनि एक मृग तहाँ जु पैठ्यो |

                          हरबराइ संधानि सर अमर चल्यो ता ओर |

                          कुटिया के या बाँस में फँस्यो पाग को छोर|

                                           अमर तौहूँ न रुक्यो ||” 

उतावली में अमरसिंह हिरन पर जब निशाना लगा रहे थे तबउनके पैर कुटिया में फंस गए और निशाना भी चूक गया|आगे भी वे धैर्य से पैर छुडाने कि जगह और जल्दीबाजी दिखाते हैं जिनसे उनके पैर फट जाते हैं | राणाप्रताप का दुःख ऐसे में बढ़ जाता है| लेकिन उतावलेपन का यह दृष्टांत आचार्य शुक्ल ने गद्य की जगह पद्य में ही देना अधिक रुचिकर समझा है | उनकी दृष्टि में यहाँ गद्य का बेहतर अनुवाद पद्य ही है न कि गद्य!ऐसे ही उन्होंने ‘आत्मबल’ वाले प्रकरण में ही उन्होंने एक जगह गिरिधर कविराय की प्रसिद्ध कुंडली “बीती ताहि बिसारी दे आगे की सुधि लेय” को भी उद्धृत किया है |

इसी तरह आचार्य शुक्ल ने आदर्श जीवन में कई बार संस्कृत के श्लोक और उक्तियों को अनुवाद्के लिए कहीं अधिक उपयुक्त माना है |इन्हें पढ़ते हुए अक्सर यह प्रतीत होता है कि जैसे पूर्व और पश्चिम का अंतर होते हुए  भी जैसे यह कोई ऐसी डायरी हो जिसमें हर कोई एक ही बात को सिर्फ अपने शब्दों और अपने संदर्भों से भर जाता हो |आदर्श जीवन में शुक्लजी चौथे  प्रकरण ‘आचरण’ में धन की कद्र करना बताते हैं तब वे संस्कृत उक्ति का उपयोग अनुवाद के लिए जिस प्रवाह में करते हैं वह पूरे वाक्य के बीच जैसे एक पल के लिए चकित कर देता है क्योंकि तब संस्कृत कि यह उक्ति स्मृति में लहर पैदा कर देती है जो एक परिपक्व सामाजिक शिक्षा की याद दिला देती है |

 आचार्य शुक्ल के शब्दों में-

चाहे हम उदापूर्वक लोभियों का तिरस्कार करें,चाहे हम ऐसे लोगों से उपयुक्त घृणा करें जो रुपया पैदा करना ही अपने अविश्रांत और असंतोषपूर्ण प्रयत्नों का एकमात्र उद्देश्य समझते हैं और ‘सर्वे गुणा: कांचनमाश्रयंति’ के पूरे समर्थक हैं,पर द्रव्य की उपयोगिता को हम किसी प्रकार अस्वीकार नहीं कर सकते, न यह कह सकते हैं कि सच्चे प्रयत्न करने वालों को द्रव्य से वंचित  रहना चाहिए |”

इन पंक्तियों के बीच आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जो  ‘सर्वे गुणा: कांचनमाश्रयंति’ का उपयोग अनुवाद के अंतर्गत किया है वह यही प्रतीति कराता है कि शुक्लजी ने यह अनुवाद केवल किशोरों और युवाओं को ही ध्यान में रखकर नहीं किया बल्कि हिंदी का जो शिक्षित समाज है उसके लिए भी यहाँ वस्तु और भाषा के स्तर पर पर्याप्त बौद्धिक सामग्री है |इसलिए यह कहना होगा कि शुक्लजी का यह अनुवाद प्रत्येक वर्ग के लिए काम का है जिसका संकेत उन्होंने यह कह कर किया था कि “हिंदी में ऐसी पुस्तकें देखने की चाह अब लोगों को हो चली है |”

शुक्लजी का यह अनुवाद 1914 में पहली बार आया था | इसके बाद इसके लगभग आठ संस्करण नागरीप्रचारिणी सभा से प्रकाशित हुए हैं | इसके साथ ही सभा से और कॉपीराइट खत्म होने के बाद अन्य प्रकाशनों से जो शुक्ल जी की रचनावली प्रकाशित हुए हैं उनमें भी आदर्श जीवन अन्य पुस्तकों के साथ समय-समय पर प्रकाशित होती रही है | इतने वर्षों में किसी पुस्तक का बार-बार प्रकाशित होना इस ओर इंगित करता है कि वह लोकप्रिय रही है |भले ही इस पुस्तक की चर्चा और आचार्य रामचंद्र शुक्ल की अनुवादक के रूप में चर्चा कम हुयी हो लेकिन लगता है कि इसकी उपस्थिति हिंदी जगत में अपना अलग महत्व रखती है |

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