भगवान अगस्त्य से भगवान राम के यह पूछे जाने पर कि सम्स्त युद्ध में अहम् भूमिका हनुमान की रही तो वह सुग्रीव के मित्र व मंत्री होने के बावजूद बालि के विरुद्ध सुग्रीव की सहायता क्यों न कर सके ,पर भगवान अगस्त्य का उत्तर था…
ठाकुर प्रसाद मिश्र
अंजना नंदनम् वीरं, जानकी शोक नाशनम्।
कपीश्मक्षहंतारम्, वंदे लंकाभयंकरम्।।
उल्लंघ्य सिन्धोः सलिलं सलीलं यः शोक वहिनम् जनकात्मजायाः।
आदाय तेनैव ददाह लंका, नमामि तं प्रांजलिरांजनेयम् ।
संतो द्वारा सुनाई गई कथा जैसी कि वाल्मीकि रामायण में भी सूक्ष्म अंतर के साथ वर्णित है। पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास है।
अमृत मंथन की घटना सर्वत्र शास्त्र विदित है कि अमृतघट प्रकट होने पर जब देव- दानवों में छीना झपटी होने लगी तो भगवान श्रीहरि ने मोहिनी रूप धारण कर देव दनुज की मध्यस्थता की थी। देवों को अमृत एवं असुरों को मदिरा परस्ते देख एक असुर देव रूप बना कर देव पंक्ति में बैठ अमृत पीने में सफल रहा। किन्तु, सूर्य एवं चन्द्रमा ने उसे पहचान लिया और भगवान श्रीहरि ने चक्र से उसका सिर काट दिया। किंतु अमृत के प्रभाव से वह मरा नहीं। उसका सिर राहु एवं धड़ केतु के नाम से प्रसिद्ध है। शस्त्र मत से यही दोनों सूर्य एवं चंद्रग्रहण के कारक। जिसकी अनुमति उन्हें इंद्र द्वारा प्राप्त है।
उस समय भगवान भोले नाथ हलाहल पान कर उसके ताप से विहृवल थे। अतः वे भगवान विष्णु के उस मोहिनी रूप को भर नेत्र निहार नहीं सके थे। अतः उनके हृदय में उस रूप को देखने की पुनः प्रबल कामना थी । एक बार मोहिनी रूप के दर्शन की अतिकामना उनके मन में पुनः जागृत हुई । और उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से उसी मोहिनी रूप का दर्शन पाने की अभिलाषा प्रकट की। पहले तो भगवान श्रीहरि ने भोलेनाथ को समझाया कि वह मेरी माया थी जो आप जैसे परमयोगी के लिए शुभ नहीं है। अतः आप माया के उस प्रभाव को देखने का हठ न करें। लेकिन भगवान शिव तो उस रूप के दर्शन के लिए किसी सीमा तक जाने के लिए तैयार थे। अतः श्री हरि को भोलेनाथ की वह बात माननी पड़ी। प्रभु ने उस दिव्य दर्शन के लिए सागर का निर्जन किनारा चुना। भगवान श्रीहरि ने जैसे ही मोहिनी रूप धारण किया उस पर दृष्टि पड़ते ही उमापति अपनी सुध-बुधि, ज्ञान, वैराग्य यहाँ तक कि अपना ईश्वरत्व भूल गए। वे एक कामुक व्यक्ति के समान उस छवि को अपने अंक में भर लेना चाहते थे। किंतु जैसे ही वे उस छवि को अंक में भरते वह छिटककर दूर खड़ी हो जाती। भोलेनाथ बार-बार ऐसा किए और इसी उत्तेजना में काम मोहित भगवान भोलेनाथ का तेज स्वस्खलित हो गया। मद उतर जाने के बाद होश में आने पर वे भगवान श्रीविष्णु जो अपने स्वरूप में आ चुके थे के सामने लज्जा महसूस करने लगे। किंतु अपने ईष्ट श्री विष्णु द्वारा इसमें भी जगत हित निहित है कहने पर संतुष्ट होकर अपने धाम को चले गए।
कुछ समय बाद महामुनि नारद आकाश मार्ग से पृथ्वी पर भ्रमण के लिए निकले तो उन्हें सागर तट पर अत्यंत दीप्तिवान कोई वस्तु नजर आईं तो उन्होंने ध्यान किया तो पता चला कि यह तो श्रीहरि की महालीला द्वारा स्वस्खलित कराया गया अति प्रभावान भोले नाथ का तेज है। यह यहाँ अपमानित अवस्था में रहा तो पृथ्वी का अनिष्ट हो सकता है। अतः उन्होंने श्री पवन देव का आश्रय लिया और प्रार्थना किया कि प्रभु आप अलक्ष्य भाव से इस संपूर्ण धरा पर संचरण करते रहते हैं। आप की गति सर्वत्र है अतः पृथ्वी पर जो भी नारी पात्र इस दिव्य तेज को धारण करने की क्षमता रखती हो, उस तक पहुंचा कर जगत कल्याण का एक कार्य और संपन्न करें। पवन देव ने नारद की बात मानकर वह तेज अपने में अवशोषित कर लिया।
देवगुरु बृहस्पति द्वारा शापित अप्सरा पूंजिकस्थला वानरी के रूप में जन्म लेकर वनराज केसरी की धर्म पत्नी थी, उसका नाम अंजना था। माता अंजना अनुपम पुत्र प्राप्ति के लिए उस समय पर्वत पर घोर तपस्या कर रही थीं। तप के कारण उनका स्वरूप तपाये हुए सोने की तरह चमक रहा था। अतः पवनदेव ने उन्हें ही इस तेज को धारण करने के उपयुक्त समझा और श्वास के साथ जाकर उनके गर्भ में इस शिव तेज को स्थापित कर दिया। और समय आने पर माता अंजनी के उदर से बजरंगी का उदय हुआ। उनके जन्म में माता अंजनी के साथ उनके पति केसरी, तेज रूप में रुद्र एवं तेज वाहक के रूप में पवन देव की युति रही। अतः ये तीनों ही बजरंगबली के पिता कहलाए। मानस की चौपाई में भी और हनुमान चालीसा में भी हनुमान जी के साथ उनके पिता त्रय का नाम आया है यथा…
शंकर सुवन, केसरीनंदन…
पवन तनय बल पवन समाना….
बजरंगबली अभी कुछ दिन के ही थे कि ये निर्माता अंजनी प्रातः जल्दी उठकर भोजन हेतु फल लेने जंगल चली गई। हनुमान जगे तो उन्हें बड़ी भूख लगी थी। माता अंजनी को न देख ए इधर-उधर उछल कूद कर मचाने लगे। उसी समय उनकी दृष्टि पूर्व दिशा से उठती अरुणाभा पर पड़ी। उन्होंने अपनी बाल बुद्धि से उसे पका हुआ कोई लाल फल समझा और उसे तोड़ने के लिए वे आकाश में उछल पड़े। आकाश में उड़ते ही उनकी गति अत्यंत तीव्र हो गई। जब पवन देव ने उन्हें ऐसा करते देखा तो पहले तो उन्हें रोकने की कोशिश की किंतु, जब रोक न सके तो सोचा कहीं सूर्य ताप से मेरे पुत्र का कोई अनिष्ट ना हो जाए। अतः उन्होंने पृथ्वी की सारी हिम शिलाओं की शीतलता अपने में धारण कर बजरंगी के संग हो लिए। पिता का सहयोग बजरंगी की गति दोगुनी हो गई। वे मन के वेग से उड़ते हुए भगवान सूर्य के निकट पहुँच गए।
उस दिन अमावस्या का दिन था। सूर्य ग्रहण लगने वाला था । अतः बजरंगबली और राहु एक साथ ही सूर्य को ग्रसना चाहे। तो बजरंगबली सूर्य की आभा को घेर चुके थे। मात्र सूर्य के रथ का ऊपर का भाग ही थोड़ा सा दिखाई पड़ रहा था। राहुल ने जैसे ही वहाँ से गरजना शुरू करना चाहा। तो कपि के हाथों उसका शरीर छू गया और वह भयभीत होकर भाग निकला। हनुमान द्वारा ग्रसित आभा के बावजूद भगवान सूर्यदेव हितकारी बानर बालक सोचकर हनुमान जी से कुपित नहीं हुए। और जब केवल स्पर्श मात्र से ही भयभीत भाव से भाने लगा तो बजरंगी ने उसे दूसरा फल समझ उसका पीछा किया तो वह राह बदलकर पुनः वापस लौटा और अत्यंत तीव्र गति से इंद्रलोक चला गया। और सभा में पहुंचते ही इन्द्रदेव को कुपित दृष्टि से देखने लगा। इंद्र देव द्वारा पूछने पर बोला आप ने समय-समय पर अपनी भूख मिटाने के लिए हमें चंद्रमा और सूर्य को ग्रसने का अधिकार दिया है। लेकिन आज मैं जब सूर्य को ग्रसने गया तो वहाँ दूसरा राहु वहां मौजूद था। अब वो मेरा पीछा करता हुआ अब वो आपके इंद्रलोक के दरवाजे तक आ पहुंचा है। वह मुझे समाप्त करना चाहता है। आप हमारी मदद करें, रक्षा करें इंद्र ने महान पर्वत के समान अपने छह दांतों वाले गजराज को साझा और जब वे राहु के साथ इंद्रलोक से बाहर निकले तो हनुमान जी सूर्य के पास चले आए थे। उनको देखकर उनकी तरफ झपटे उसी समय इंद्र ने उन पर बज्र प्रहार किया और वे मृत प्राय होकर एक पहाड़ पर आ गिरे। उनकी यह दशा देखकर इंद्रदेव से कुपित पवनदेव ने पुत्र को गोद में उठाया। एक गुफा में जाकर बैठ गए और संसार से अपना संचरण और उसकी गति खींच लिए । वायु कोप से सारे संचार में हाहाकार मच गया । हर प्राणी जीवन शून्य होकर काष्ठवत हो गया। सारे देव कार्य बंद हो गए । साधना में लगे ऋषि मुनियों की साधना टूट गई । उनके पेट धड़े के समान घड़े के समान फूल गए । सारी पृथ्वी शून्य सी हो गई । तब पीड़ा से कराहते ऋषिगण ब्रह्मधाम ब्रह्मा जी के पास गए, ब्रह्मा जी ऋषियों संग उस स्थल पर गुफ़ा में गए । जब पवन ने उन्हें देखा तो अत्यंत दुख पूर्व कोने तीन बार झुक कर प्रणाम किए और उनके चरणों पर गिर पड़े। ब्रह्मा जी ने जैसे ही अपना हाथ बालक के सिर पर रखा हुआ जीवित हो उठा। बालक के जिंदा होते ही पवन देव का कोप और दुख दूर हो गया । वायु संचरण होते ही समस्त सृष्टि जैसी थी, वैसी हो गई। सब का दुख दूर हो गया। अब ब्रह्मा जी ने सभी देवताओं को संबोधित करते हुए कहा कि देवगण इस बालक द्वारा भविष्य में आप लोगों का बड़ा कल्याण होने वाला है। अतः आप लोग पवन देव की प्रसन्नता के लिए इसे वरदान दें। ब्रह्मा जी द्वारा जी द्वारा ऐसा कहने पर सबसे पहले देवराज इंद्र आगे बढ़े और सात कमलों की सुंदर माला बालक के गले में डालते हुए बोले मेरे बज्र प्रहार से इस बालक की हनु (हुड्डी) टूट गई थी। अतः इस बालक का नाम हनुमान होगा और दूसरा वरदान देता हूँ कि अब से यह मेरे बज्र से भी सदा अवध्य होगा। इसके बाद भगवान सूर्य बोले मैं इसे अपने तेज का सौंवां अंश इसे देता हूँ और इसका गुरु बनकर इसे सारे ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा देकर निष्णात बनाऊंगा की जगत में कोई भी ज्ञान, विज्ञान, बुद्धि, विवेक में इसे बढ़कर इससे बढ़कर नहीं होगा। उसके बाद वरुण देवता ने कहा कि दसों लाख वर्ष से अधिक आयु होने के बाद भी इस बालक की मेरे पाश एवं जल से वृद्धि नहीं होगी। भगवान यमराज ने कहा, मेरे यमदंड का इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा और इस पर किसी रोग या दोष का कोई असर नहीं होगा। पीली आंखोंवाले कुबेर ने कहा इस बालक को युद्ध में कहीं भी पीड़ा नहीं होगी। और मेरी इस गदा से भी इस पर प्रहार होने पर इसकी कोई हानि नहीं होगी। भगवान शंकर ने कहा यह बालक मेरे और मेरे अस्त्र-शस्त्रों से सदा अवध्य़ होगा। भगवान विश्वकर्मा ने कहा, मेरे द्वारा निर्मित जितने भी अस्त्र-शस्त्र हैं यह बालाक उनसे अवध्य होकर चिरंजीवी होगा भगवान ब्रह्मा जी अंत में बोले यह दीर्घायु महात्मा तथा हर प्रकार के ब्रह्मदंड से अभद्र होगा। इसके बाद ब्रह्मा जी ने पवन देव से कहा मारुत तुम्हारा यह पुत्र शत्रुओं के लिए भयंकर और सज्जनों के लिए अभय दाता होगा, कोई कभी इसे जीत नहीं सकेगा। ऐसा कहकर सभी देवगण अपने धाम चले गए और पवन देव श्री हनुमान जी को उनकी माता अंजनी के पास पहुंचा गए ।
संपूर्ण शक्ति सम्पन्न हनुमान जब अपनी माता के पास पहुंचे तो अत्यंत उद्दंड एवं धृष्ट हो गए। वे पास के मुनि आश्रमों में जाकर उन्हें परेशान करने लगे। वे ऋषियों की यज्ञ सामग्री बिखेर देते, उनके आहुति देने के पात्र, यज्ञ, कलश वगैरह तोड़-फोड देते, ऋषियों के रखे बल्कल वसन चीर फाड़ डालते । सभी रिषि उनसे बहुत परेशान रहने लगे । एक दिन भृगु एवं अंगिरा वंशी ऋषियों ने उन्हें साफ देते हुए कहा हनुमान आज से तुम अपनी सारी शक्ति भूल जाओगे। और यह तभी स्मरण होगी जब किसी विशेष परिस्थिति में तुम्हें कोई स्मरण कराएगा । उस दिन से महाबली हनुमान की सारी गति विधियाँ सामान्य हो गईं । उनका व्यवहार सबके साथ साथ मृदुल हो गया।
महावीर हनुमान की वे भूली सारी शक्तियां उस समय याद आई जब सागर तट पर जामवंत जी ने चुप बैठे हनुमान जी से कहा —
कहई रीछ पति सुनु हनुमाना ।
का चुप सािध रहे बलवाना ।
पवन तनय बल पवन समाना।
बुधि बिबेक विज्ञान निधना ।
कवन सो काज कठिन जग माही।
जो नहिं होइ तात तुम पाही,
राम काज लगि तव अवतारा।
सुनतहिं भयो पर्वताकारा ।
इस तरह निज सुधि संवारे महाबली बजरंग बली राम कृपा के संग हम सब के कष्ट दूर करें, रक्षा करें, जय मारुति।
लेखक – सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं ।