रावण का दिग्विजयी अभियान भाग -4

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रावण द्वारा अयोध्या के महाप्रतापी राजा अनरण्य का बध और रावण का उनके द्वारा शापित होना

ठाकुर प्रसाद मिश्र

THAKUR PRASAD MISHRA

महाराज मरुत को पराजित करने के बाद रावण का दिग्विजय अभियान संपूर्ण पृथ्वी पर बहुत काल तक चलता रहा । इंद्र और वरुण के समान अनेक बलशाली राजाओं ने बरदान के द्वारा अजेय शक्ति प्राप्त रावण की गाथा सुन चुके थे, अतः अपने- अपने समय के ए सारे वुद्धिमान बलशाली राजा जिसमें दुष्यंत , सुरत , गाधि , गय राजा पुरुरुवा भूपालों ने बुद्धमत्ता पूर्वक दशानन से हार मान ली । अतः बिना युद्ध किए ही दशानन का पुष्पक विमान आगे बढ गया। चारों तरफ से पृथ्वी का चक्कर लगाते हुए दशानन की दृष्टि इंद्रपुरी अमरावती के समान सुंदर व सुसज्जित अयोध्या पर पडी ।  उस समय वहां महाराज अनरण्य का राज्य था । जो इच्छवाकु कुल में ही उत्पन्न महाप्रतापी ,महाधर्मात्मा और समर भूमि में महाधैर्य को धारण करने वाले राजा अनरण्य थे । जिन्होंने रावण के दिग्विजय अभियान का समाचार सुन रखा था । अतः गज, रथ, अश्व एवं पैदल वाहिनियों का एक अभेद्य सैन्य बेडा बना रखा था । राजा स्वयं वीरता के प्रतीक थे । अतः रावण का यह प्रस्ताव कि या तो हार मान लो या युद्ध करो सुनकर कुपित होते हुए उसकी युद्ध की चुनौती को स्वीकार कर लिए । उन्होंने रावण को ललकारते हुए कहा हे पापी राक्षस मैंने तेरे दुर्विनीत स्वभाव के बारे में सुन रखा है । अतः मैं युद्ध में तेरा बध अवश्य करूंगा। तू अपनी सेना सजा और मैं भी तैयार होकर युद्ध के लिए आता हूं।

रण क्षेत्र में अयोध्या एवं राक्षस सेना आमने-सांमने थी । वहां अपने सुंदर एवं प्रकाशवान रथ पर सवार होकर महाराज अनरण्य रण क्षेत्र में उपस्थित हुए और रावण को ललकारते हुए बोले हे लंकेश मैं तुम्हें द्वंद्व युद्ध का अवसर प्रदान करने के लिए उपस्थित हूं। सावधान. दोनों सेनाओं में द्वंद्व युद्ध छिड गया । अनरण्य की सेना में लाखों घुड सवार, कई हजार गजराज, कई हजार रथ एवं कई लाख पैदल सैनिक थे, इस तरह से वह सेना अजेय प्रतीत होती थी ।

अजेय प्रतीत होने वाली यह सेना राक्षसों से युद्ध करते हुए उस तरह से क्षीण होने लगी जैसे किसी फलदार वृक्ष से उसके पके अधपके फल भीषण वायु प्रवाह में पतित होते रहते हैं । इस तरह से क्षीण होने वाली महाराज अनरण्य की सेना राक्षसों से युद्धथ करती हुई मात्र दो तीन घडी में ही समाप्त हो गयी।अपनी सेना का क्षरण देख जहां रण क्षेत्र में कुछ ही सौनिक शेष रह गये थे, महाराज ने स्वयं शस्त्र धारण किया और अत्यंत क्रोध के साथ उपस्थित हुए । ऐसे दुधर्ष योद्धा को युद्ध में देख तथा उनके बाण वर्षा से विकल हुई राक्षस सेना इधर उधर भागने लगी । अब राजा का सामना अपने सौनिकों को यज्ञ वेदी में आहुति देने की सामग्री के समान भष्म कर देने वाले रावण से हुआ । दोनो में युद्ध प्रारंभ हो गया । राजा एवं रावण के युद्ध के समय महाराज की जो बची खुची सेना थी जैसे पतंगे आग में जलते हैं उसी रावण रोष की अग्नि में जलकर समाप्त हो गये । राजा ने देखा उनकी सेना महासागर में गिरने वाली अनेक नदियों के समान काल के गाल में चली गयी । अर्थात युद्ध अग्नि में भष्म हो गयी । यह देख कुपित महाराज अनरण्य अपने महान धनुष के साथ युद्ध में प्रवृत्त हुए तो जैसे सिंह को देख कर मृग भाग जाते हैं उसी प्रकार रावण के मंत्री मारीच सुख, सारण तथा प्रहस्त राजा से भयभीत होकर समर आंगन से भाग गये । त्तपश्चात इछ्वाकु कुल भूषण महाराज अनरण्य ने अत्यंत वेग से रावण के सिर पर आठ सौ बाणों से प्रहार किया । किंतु रावण के सिर पर लगने वाले ए बाण पर्वत शिखर पर गिरती हुई जल भूंदों के समान उसे आहत न कर स्वयं जल धारा बनकर जैसे पृथ्वी पर पतित हो जाती हैं उसी तरह उन सायकों का भी अंत हुआ । महाराज द्वारा किए गए बाण प्रहार से रावण तनिक भी विचलित नहीं हुआ । वे सारे सायक रावण के मस्तक को छूकर पृथ्वी पर गिर चुके थे । और उसके शरीर पर कहीं भी किसी प्रकार का घाव नहीं बना सके थे ।

इस तरह महारज के द्वारा प्रयोग किए गये वाणों से विचलित न होने वाला रावण आगे बढकर महारज अनरण्य के सिर में कराघात किया । इस प्रहार से महारज रथ से नीचे गिर पडे और उनका शरीर थर-थर कांपने लगा । यह देख रावण अट्टहास कर हंसने लगा और बोला देखा राजन मेरे साथ युद्ध करने का फल तुम्हें क्या मिला । हे राजन तीनों लोको  में ऐसा कोई वीर नहीं जो मुझसे द्वंद्व युद्ध कर सके लगता है, तुम्हारी भोगों में आसक्ति ज्यादा थी, अतः तुम मेरे पराक्रम को नहीं जान सके । बज्र के समान रावण के कर प्रहार के कारण राजा मृत्यु के समीप पहुंच रहे थे । फिर भी वे प्राण शक्ति को बडे उद्यम से इकठ्ठी कर बोले हे रावण इस समय मैं मृत्यु को प्राप्त होने जा रहा हूं । अब इसके बाद मैं क्या कर सकता हूं लेकिन इतना अवश्य कहूंगा कि तुमने नहीं मुझे काल ने मारा है । तुम तो केवल प्रतीक हो और काल का उलंघन करना अत्यंत दुष्कर है । हे राक्षस तू अपने मुख से अपनी प्रशंसा कर रहा है । लेकिन मुझे पराजित करने वाला काल ही है । वास्तव में मुझे काल ही ने मारा है । तुम तो केवल निमित्त मात्र बन गया है। किंतु मुझे अत्यंत संतोष है कि मैंने युद्ध से मुंह नहीं मोडा एक योद्धा के समान युद्ध करता हुआ तेरे हाथों मारा गया हूं । जीतने वाला वास्तविक योद्धा पराजित होने वाले असली योद्दआ का सम्मान करता है, उसका अनादर नहीं करता है । किंतु तुमने मुझ पर ब्यंग्य बाण छोडकर संपूर्ण इच्वाकु वंश का अनादर किया है । अतः मैं तुम्हें शाप देता हूं मेरे इसी कुल में दशरथ नंदन श्री राम उत्पन्न होंगे जो तेरे प्राणों का हरण करेंगे । राजा के इस तरह शाप देने पर आकाश से मेघ माला से उत्पन्न गंभीर ध्वनि के समान देवाताओं की दुंदुभि बज उठी और राजा के निष्प्राण होते शरीर पर पुष्प वर्षा होने लगी । और वे स्वर्गवासी हो गये । उनकी मृत्यु के पश्चात रावण युद्ध की अतृप्त कामना लिए आगे बढ गया ।

ततः स राजा राजेंद्र गतः स्थानं तृप्विष्टपम्

स्वरगते च नृपे तस्मिन राक्षसः शोकसरपत…..

अस्तु  

रावण के दिग्विजयी अभियान का भाग –5 जल्द ही आपके बीच प्रस्तुत होगा ।         

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