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ठाकुर प्रसाद मिश्र

THAKUR PRASAD MISHRA

वेदने सदा धिक्कार तुझे ।

 सिकुड़ी सिमटी रहती उर में जब तक संयोग रहे कर में।

 हिय व्योम क्षितिज के अंचल में चहकते शकुन गण के पर में।

 शुभ भाव जहाँ तुम दासी वन फिरती संग-संग, गृह वन उपवन।

 पर विप्रलंभ के असि प्रहार भय पीड़ित करती है तन-मन ।

 बस इसी से छलना कहलाई,प्रिय योग बधे अधिकार है तुझे।

 वेदने सदा धिक्कार तुझे।

अव्यक्त रूप तो सुखदायी जैसे सुग्राह्य हो नीर- क्षीर । 

हो तृप्त गगन धनु रंगों में आकुल स्वजनों  के उर अधीर।

 कहीं अटक कर रही दृग शिशु अबोध, कहिं ममता सी करती प्रबोध।

कहीं भाव ग्रंथियाँ खोल रहीं पलटे अवगुंठन मृदुल बोल।

हर पल बसवर्ती करने को बस सपने ही साकार तुझे।

वेदने सदा धिक्कार तुझे।

कभी बनी नायिका ऐंठ रही संग बनी बांधव बैठ रही।

वाडव वन दहती भाव सिंधु चित्त की देहरी में पैठ रही ।

जिह्वा स्पंदन क्षीण करें मानस पर भारी बोझ धरे।

रे क्रूरे अविचल हर पल तू यह उपालंभ सत बार तुझे । 

वेदने सदा धिक्कार तुझे।

रचनाकार -हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं । प्रकाशित हिंदी उपन्यास रद्दी के पन्ने ।

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