ठाकुर प्रसाद मिश्र
मलिन वस्त्र में विलख अरे यह कौन चली है ?
किस पर विस्वास निशा में गयी छली है ?
सदय हुआ एक हृदय निकट जा उससे पूछा |
सुन उत्तर स्तब्ध यथा घट उल्टा छूंछा ||
स्फुट स्वर था और व्यथा असि तीक्ष्ण धार थी |
मलिना थी पर वचन धर्म से अति उदार थी ||
भेद दृष्टि से प्रथम देख कर फिर वह बोली |
पछताओगे मुझे जानकर ‘जिह्वा खोली ||
ढूँढ़ रही हूँ अपना तन छूट गया जो |
नई सभ्यता के महलों में टूट गया जो ||
किस वादी में गड़ा हुआ वह ढ़ाचा मेरा |
रही ढूंढ़ती पर मिल न सका, हुआ सवेरा ||
संभवतः अति घृणा भाव से सभ्य नगर ने |
फेंक दिया उसको नगर में घुटकर मरने ||
अब जाती हूँ प्रकृति क्रोड में अलख जगाने |
जहाँ न कोई मानव आए मुझे भगाने ||
क्या पाओगे मुझे जानकर? ‘शुष्क लता हूँ |
त्यक्ता हूँ मैं निज आश्रय से ‘मानवता’ हूँ ||
रचनाकार – हिंदी के प्रतिष्ठित कवि हैं। प्रकाशित हिंदी उपन्यास ” रद्दी के पन्ने” |