
है कौन विघ्न ऐसा जग में,
टिक सके आदमी के मग में?
ख़म ठोंक ठेलता है जब नर
पर्वत के जाते पांव उखड़,
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ – दिनकर जी आधुनिक युग के एक ऐसे उदीयमान साहित्यकार है जिन्होंने वाल्यावस्था से वृध्दावस्था तक हिंदी – साहित्य की अनवरत सेवा की है | हिंदी साहित्य में कविवर दिनकर जी एक क्रन्तिकारी और युग – प्रवर्तन कवि के रूप में सुविख्यात है कविता – कामिनी के प्रेम क्षेत्र में ‘दिनकर जी’ राष्ट्र प्रेम लेकर उपस्थित होते है जिसमे हमें उनके विद्रोही कवि के रूप का दर्शन होता है | कवि क्रान्ति का सजग – सशक्त दूत है इसलिए वाणी में विद्रोह का आगमन स्वाभाविक है | कवि की क्रान्तिकारी लेखनी से कोई भी अछूता नहीं रहा | भारतीय जनमानस में जागरण की विचारधारा को प्रखर बनाने का पुनीत कार्य रामधारी सिंह ”दिनकर” जी ने किया | उनकी कविताओ में ओज है , तेज है और अग्नि जैसा तीव्र ताप है | दिनकर जी जनसाधारण के प्रति समर्पित रहे है और राष्ट्रीय जागरण के प्रणेता होने के कारण उन्हें “राष्ट्रिय हिंदी – कविता का वैतालिक” भी कहा जाता है |
प्रारंभिक जीवन:
दिनकर’ जी का जन्म 24 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गाँव में एक सामान्य किसान ‘रवि सिंह’ तथा उनकी पत्नी ‘मनरूप देवी’ के पुत्र के रूप में हुआ था। दिनकर दो वर्ष के थे, जब उनके पिता का देहावसान हो गया। परिणामत: दिनकर और उनके भाई-बहनों का पालन-पोषण उनकी विधवा माता ने किया। दिनकर का बचपन और कैशोर्य देहात में बीता, जहाँ दूर तक फैले खेतों की हरियाली, बांसों के झुरमुट, आमों के बग़ीचे और कांस के विस्तार थे। प्रकृति की इस सुषमा का प्रभाव दिनकर के मन में बस गया, पर शायद इसीलिए वास्तविक जीवन की कठोरताओं का भी अधिक गहरा प्रभाव पड़ा।
संस्कृत के एक पंडित के पास अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्रारंभ करते हुए दिनकर जी ने गाँव के ‘प्राथमिक विद्यालय’ से प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की एवं निकटवर्ती बोरो नामक ग्राम में ‘राष्ट्रीय मिडिल स्कूल’ जो सरकारी शिक्षा व्यवस्था के विरोध में खोला गया था, में प्रवेश प्राप्त किया। यहीं से इनके मनोमस्तिष्क में राष्ट्रीयता की भावना का विकास होने लगा था।
हाई स्कूल की शिक्षा इन्होंने ‘मोकामाघाट हाई स्कूल’ से प्राप्त की। इसी बीच इनका विवाह भी हो चुका था तथा ये एक पुत्र के पिता भी बन चुके थे। 1928 में मैट्रिक के बाद दिनकर ने पटना विश्वविद्यालय से 1932 में इतिहास में बी. ए. ऑनर्स किया। पटना विश्वविद्यालय से बी. ए. ऑनर्स करने के बाद अगले ही वर्ष एक स्कूल में यह ‘प्रधानाध्यापक’ नियुक्त हुए, पर 1934 में बिहार सरकार के अधीन इन्होंने ‘सब-रजिस्ट्रार’ का पद स्वीकार कर लिया।
दिनकर के प्रथम तीन काव्य-संग्रह प्रमुख हैं– ‘रेणुका’ (1935 ई.), ‘हुंकार’ (1938 ई.) और ‘रसवन्ती’ (1939 ई.) उनके आरम्भिक आत्म मंथन के युग की रचनाएँ हैं। इनमें दिनकर का कवि अपने व्यक्ति परक, सौन्दर्यान्वेषी मन और सामाजिक चेतना से उत्तम बुद्धि के परस्पर संघर्ष का तटस्थ द्रष्टा नहीं, दोनों के बीच से कोई राह निकालने की चेष्टा में संलग्न साधक के रूप में मिलता है।
इन मुक्तक काव्य संग्रहों के अतिरिक्त दिनकर ने अनेक प्रबन्ध काव्यों की रचना भी की है, जिनमें ‘कुरुक्षेत्र’ (1946 ई.), ‘रश्मिरथी’ (1952 ई.) तथा ‘उर्वशी’ (1961 ई.) प्रमुख हैं। ‘कुरुक्षेत्र’ में महाभारत के शान्ति पर्व के मूल कथानक का ढाँचा लेकर दिनकर ने युद्ध और शान्ति के विशद, गम्भीर और महत्त्वपूर्ण विषय पर अपने विचार भीष्म और युधिष्ठर के संलाप के रूप में प्रस्तुत किये हैं। दिनकर के काव्य में विचार तत्त्व इस तरह उभरकर सामने पहले कभी नहीं आया था।
‘कुरुक्षेत्र’ के बाद उनके नवीनतम काव्य ‘उर्वशी’ में फिर हमें विचार तत्त्व की प्रधानता मिलती है। साहसपूर्वक गांधीवादी अहिंसा की आलोचना करने वाले ‘कुरुक्षेत्र’ का हिन्दी जगत में यथेष्ट आदर हुआ। ‘उर्वशी’ जिसे कवि ने स्वयं ‘कामाध्याय’ की उपाधि प्रदान की है– ’दिनकर’ की कविता को एक नये शिखर पर पहुँचा दिया है। भले ही सर्वोच्च शिखर न हो, दिनकर के कृतित्त्व की गिरिश्रेणी का एक सर्वथा नवीन शिखर तो है ही।
हिन्दी काव्य छायावाद का प्रतिलोम है, यह कहना तो शायद उचित नहीं होगा पर इसमें सन्देह नहीं कि हिन्दी काव्य जगत पर छाये छायावादी कुहासे को काटने वाली शक्तियों में दिनकर की प्रवाहमयी, ओजस्विनी कविता के स्थान का विशिष्ट महत्त्व है। दिनकर छायावादोत्तर काल के कवि हैं, अत: छायावाद की उपलब्धियाँ उन्हें विरासत में मिलीं पर उनके काव्योत्कर्ष का काल छायावाद की रंगभरी सन्ध्या का समय था। दिनकर की प्रगतिशीलता साम्यवादी लीग पर चलने की प्रक्रिया का साहित्यिक नाम नहीं है, एक ऐसी सामाजिक चेतना का परिणाम है, जो मूलत: भारतीय है और राष्ट्रीय भावना से परिचालित है।
उन्होंने राजनीतिक मान्यताओं को राजनीतिक मान्यताएँ होने के कारण अपने काव्य का विषय नहीं बनाया, न कभी राजनीतिक लक्ष्य सिद्धि को काव्य का उद्देश्य माना, पर उन्होंने नि:संकोच राजनीतिक विषयों को उठाया है और उनका प्रतिपादन किया है, क्योंकि वे काव्यानुभूति की व्यापकता स्वीकार करते हैं। राजनीतिक दायित्वों, मान्यताओं और नीतियों का बोध सहज ही उनकी काव्यानुभूति के भीतर समा जाता है।
सम्मान :
दिनकरजी को उनकी रचना कुरुक्षेत्र के लिये काशी नागरी प्रचारिणी सभा, उत्तरप्रदेश सरकार और भारत सरकार से सम्मान मिला। संस्कृति के चार अध्याय के लिये उन्हें 1959 में साहित्य अकादमी से सम्मानित किया गया। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें 1959 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया। भागलपुर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलाधिपति और बिहार के राज्यपाल जाकिर हुसैन, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने, ने उन्हें डॉक्ट्रेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया। गुरू महाविद्यालय ने उन्हें विद्या वाचस्पति के लिये चुना। 1968 में राजस्थान विद्यापीठ ने उन्हें साहित्य-चूड़ामणि से सम्मानित किया। वर्ष 1972 में काव्य रचना उर्वशी के लिये उन्हें ज्ञानपीठ से सम्मानित किया गया। 1952 में वे राज्यसभा के लिए चुने गये और लगातार तीन बार राज्यसभा के सदस्य रहे।

तथ्य :
• प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ काशी प्रसाद जायसवाल इनको पुत्र की तरह प्यार करते थे. उन्होंने इनके कवि बनने के शुरुवाती दौर में हर तरीके से मदद की. परन्तु उनका भी 1937 में निधन हो गया. जिसका इन्हें बहुत गहरा धक्का लगा. इन्होने संवेदना व्यक्त की थी कि, “जायसवाल जी जैसा इस दुनिया में कोई नहीं था.”
• रेणुका (1935) और हुंकार की कुछ रचनाऐं यहाँ-वहाँ प्रकाश में आईं और अग्रेज़ प्रशासकों को समझते देर न लगी कि वे एक ग़लत आदमी को अपने तंत्र का अंग बना बैठे हैं और दिनकर की फ़ाइल तैयार होने लगी, बात-बात पर क़ैफ़ियत तलब होती और चेतावनियाँ मिला करतीं. चार वर्ष में बाईस बार उनका तबादला किया गया.
• मशहूर कवि प्रेम जनमेजय के अनुसार दिनकर जी ने गुलाम भारत और आजाद भारत दोनों में अपनी कविताओं के जरिये क्रांतिकारी विचारों को विस्तार दिया. जनमेजय ने कहा, ‘‘आजादी के समय और चीन के हमले के समय दिनकर ने अपनी कविताओं के माध्यम से लोगों के बीच राष्ट्रीय चेतना को बढ़ाया.’’
• हरिवंश राय बच्चन ने कहा कि, “दिनकरजी को एक नहीं, बल्कि गद्य, पद्य, भाषा और हिन्दी-सेवा के लिये अलग-अलग चार ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने चाहिये.”
मृत्यु Death:
रामधारी सिंह दिनकर जी का निधन 24 अप्रैल 1974, बेगूसराय शहर, बिहार, भारत में हुआ था।
मरणोपरांत मान्यता Posthumous recognition
30 सितंबर, 1987 को, भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने उनकी 79 वीं जयंती के अवसर पर श्रद्धांजलि अर्पित की थी। 1999 में, दिनकर भारत के “भाषाई सद्भावना” का जश्न मनाने के लिए भारत सरकार द्वारा जारी स्मारक डाक टिकटों के सेट में इस्तेमाल किए जाने वाले हिंदी लेखकों में से एक थे। 50 वीं वर्षगांठ के बाद से भारतीय संघ ने अपनी आधिकारिक भाषा के रूप में हिंदी को अपनाया।
महान देशभक्त कवि रामधारी सिंह के लिए एक श्रद्धांजलि के रूप में- सूचनाकार और प्रसारण मंत्रालय की कैबिनेट मंत्री श्री प्रिया रंजन दासमुंशी ने अपनी जन्म शताब्दी, रामधारी सिंह-दिनकर, पर एक पुस्तक जारी की। ‘व्यक्तित्व और क्रतित्व’ यह पुस्तक प्रसिद्ध आलोचक और लेखक खगेंद्र ठाकुर द्वारा लिखी गई है और सूचना और प्रसारण मंत्रालय के प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित की गई है।
23 सितंबर, 2008 को पटना में उनकी 100 वीं जयंती के अवसर पर उनके लिए श्रद्धांजलि दी गईं और बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने दिनकर चौक में उनकी प्रतिमा का अनावरण किया और दिवंगत कवियों को फूलों की श्रद्धांजलि दी। रामधरी सिंह दिनकर के जन्म शताब्दी के उप-लक्ष्य में कालीकट विश्वविद्यालय में एक दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया था।
प्रमुख काव्यात्मक कार्य Popular Poems and Literature
रामधारी दिनकर का पहला प्रकाशित कवितात्मक कार्य विजय संदेश (1928) था
उनके दूसरे काम हैं :-
- प्रणभंग (1929)
- रेणुका (1935)
- हुनकर (महाकाव्य कविता) (1938)
- रसवंती (1939)
- द्वन्दगीत (1940)
- कुरुक्षेत्र (1946)
- धूप छांव (1946)
- सामधेनी (1947)
- बापू (1947)
- इतिहास के आँसू (1951)
- धूप और धुन (1951)
- मिर्च का मज़ा (1951)
- रश्मिरथी (1952)
- दील्ली (1954)
- नीम के पत्ते (1954)
- सूरज का बियाह (1955)
- नील कुसुम (1954)
- चक्रवाल (1956)
- सीपी और शंख (1957)
- नाय सुभाषिता (1957)
- उर्वशी (1961)
- परशुराम की प्रतिक्षा (1963)
- कोयला और कवितवा (1964)
- मृति तिलक (1964)
- आत्मा की आँखे (1964)
- हारे को हरिनाम (1970)
कविता का संकलन Collection of Poetry
- लोकप्रिया कवि दिनकर (1960)
- दिनार की सूक्तियां (1964)
- दिनकर के गीत (1973)
- संचयिता(1973)
- रश्मिलोक (1974)
- उर्वशी तथा अन्य श्रंगारिक कवितायें (1974)
- अमृत मंथन, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008
- भाजन विना, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008
- सपनों का धुन, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008
- समानांतर लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008
- रश्मिमाला, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008
प्रमुख गद्य कार्य Major Prose
दिनकर के प्रमुख विश्लेषणात्मक और अन्य गद्य कार्य हैं:-
- मिट्टी की ओर (1946)
- चित्तौर का साका (1948)
- अर्धनारीश्वर (1952)
- रेती की फूल (1954)
- हमारी सांस्कृतिक एकता (1954)
- भारत की सांस्कृतिक कहानी (1955)
- राज्यभाषा और राष्ट्रीय एकता (1955)
- उजली आग (1956)
- संस्कृति के चार अध्याय (1956)
- काव्य की भूमिका (1958)
- पंत, प्रसाद और मैथिलीशरण (1958)
- वेणु वान (1958)
- धर्म, नैतिकता और विज्ञान (1959)
- वट-पीपल (1961)
- लोकदेव नेहरू (1965)
- शुद्ध कविता की खोज (1966)
- साहित्यमुखी (1968)
- हे राम! (1968)
- संस्मरण और श्रद्धांजलियन (1970)
- मेरी यत्रायें (1971)
- भारतीय एकता (1971)
- दिनकर की डायरी (1973)
- चेतना की शिला (1973)
- विवाह की मुसीबतें (1973) और
- आधुनिक बोध (1973)
- साहित्यिक आलोचना
- साहित्य और समाज, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008
- चिंतन के आयाम, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008
- कवि और कविता, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008
- संस्कृति भाषा और राष्ट्र, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008
- कविता और शुद्ध कविता, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008
आत्मकथाएं Biographies
- श्री अरबिंदो: मेरी दृष्टी में , लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008
- पंडित नेहरू और और अन्य महापुरुष, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008
- समरांजलि, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008